अर्जुन प्रसाद सिंह
2024-25 का अंतरिम बजट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा 1 फरवरी, 2024 को पहली बार नई संसद में ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के पुराने जुमले के साथ पेश किया गया. इस बजट में यह कहा गया कि प्रधानमंत्री का ध्यान ‘गरीब, महिलायें, युवा और अन्नदाता (किसान) को ऊपर उठाने पर केन्द्रित है. जबकि सच्चाई यह है कि यह बजट नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए अन्य बजटों की तरह कारपोरेट पक्षीय और जन विरोधी है.
इस अंतरिम बजट की शुरुआत में ही ‘सामाजिक न्याय’ की बात की गई, लेकिन खेती-किसानी से जुड़े समाज के 19-20 के बजट में इस क्षेत्र का आवंटन कुल बजटीय आवंटन का 5.44 प्रतिशत था, जिसे इस सबसे बड़े समूह, जिसे अन्नदाता, यानी किसान कहा जाता है, को ऊपर उठाने हेतु कोई कदम उठाया नहीं गया है, उल्टे इस बजट में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र के बजटीय आवंटन में कमी की गई है. 2019 के बजट में घटाकर 3.08 प्रतिशत कर दिया गया है. वैसे नरेन्द्र मोदी सरकार पिछले कुछ सालों से कुल बजटीय आवंटन में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा घटाती रही है.
देखें तालिका-1
2019-20————–5.44 प्रतिशत
2020-21————–5.08 प्रतिशत
2021-22————–4.26 प्रतिश्त
2022-23————–3.84 प्रतिशत
2023-24————–3.20 प्रतिशत
2024-25————–3.08 प्रतिशत
किसानों के लिए प्रावधान
नरेन्द्र मोदी की सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात की थी, लेकिन पिछले बजट एवं इस बजट में भी इस सम्बन्ध में चुप्पी साध ली गई. इधर कुछ सालों से कृषि विकास दर बेहतर रह रही थी, लेकिन इस साल कृषि संकट बढ़ा है और इस क्षेत्र का विकास दर मात्र 1.8 प्रतिशत रह गई है.
नरेन्द्र मोदी सरकार ने किसानों का करीब 13 माह तक चले महाधरना को समाप्त कराते समय स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश के अनुसार किसानों की फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का आश्वासन दिया था, लेकिन इस बजट में इस सम्बन्ध में कोई जिक्र नहीं की गई. मोदी सरकार ने कृषि के विकास के लिए 2,516 करोड़ रूपये का कृषि त्वरक कोष (एग्रीकल्चर एक्सीलेटर फंड) बनाए थे, जिस फंड को कृषि क्षेत्र में निवेश करना था, लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि अबतक इस फंड से केवल 106 करोड़ रूपये खर्च किए गए.
मोदी सरकार ने पिछले बजट में कृषि मंडियों को ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) से जोड़कर किसानों की उपजों की बिक्री को व्यापक एवं आसान बनाने की बात की थी, लेकिन इस महत्वपूर्ण परियोजना को नागार्जुन फर्टिलाइजर एंड केमिकल्स लिमिटेड नामक डिफॉल्टर कम्पनी को सुपुर्द कर दिया गया है. मालूम हो कि इस कम्पनी को 1,500 करोड़ रूपये की रकम नहीं चुका पाने के कारण दिवालिया घोषित कर दिया गया था. ऐसी कम्पनी किसानों की फसलों की कीमत की अदायगी कितनी करेगी, आसानी से समझा जा सकता है.
इस बजट में 11.8 करोड़ किसानों को सम्मान निधि देने का झूठा दावा किया गया है. एक तो 500 रूपये मासिक की रकम काफी कम है और 2022 का आंकड़ा दर्शाता है कि केवल 3.87 करोड़ लोगों को ही सम्मान निधि प्रदान की गई. इस बजट में पी एम किसान सम्मान योजना का आवंटन पिछले बजट के बराबर ही रखा गया है, जबकि लाभुकों की संख्या बढ़ी है. इस बजट में खाद्य, खाद एवं ईंधन की सब्सिडी में और फसल बीमा योजना के आवंटन में कटौती की गई है. कुल मिलाकर यह अंतरिम बजट पूरी तरह किसान विरोधी है.
युवाओं के लिए प्रावधान
इस अन्तरिम बजट में बेरोजगारी कम करने का कोई प्रावधान नहीं किया गया है. प्रधानमंत्री ने केवल अपने एक बचाव में आगे- देश का दूसरा बड़ा समूह युवाओं का है, जो महंगाई, बेरोजगारी एवं कुशिक्षा या शिक्षा एवं स्वास्थ्य के निजीकरण से बुरी तरह परेशान है. मोदी सरकार ने इस अन्तरिम बजट में करीब 50 करोड़ युवाओं की आबादी के लिए कोई ठोस प्रावधान नहीं किया गया है. भारत में 15 से 30 साल के उम्र के लोगों को युवा माना जाता है. और विश्व में सबसे अधिक युवा हमारे देश में निवास करते हैं. इन युवाओं में से बड़ा हिस्सा बेरोजगार है.
सीएमआईई के आंकडे के अनुसार 25 से 29 वर्ष के स्नातकों या उच्च योग्यता वालों की बीच बेरोजगारी दर 22.8 प्रतिशत है और 25 साल के कम के स्नातकों के बीच यह दर 42 प्रतिशत है. अभी हमारे देश में कुल कार्यसक्षम आबादी करीब 80 करोड़ है, जिनमें से आधे लोग बेरोजगार हैं, इसके बावजूद करोड़ों लोगों को रोजगार मुहैय्या करने की जुमलेबाजी की है.
साथ ही शिक्षा के कुल बजटीय आवंटन में हिस्सा घटा दिया गया है और मनरेगा का बजटीय आवंटन भी वास्तव में कम कर दिया गया है. ग्रामीण मजदूरों को मांग के आधार पर काम मुहैय्या कराने के लिए बनाये जा रहे मनरेगा के बजट में पिछले 4 सालों से लगातार कटौती की जा रही है जबकि मनरेगा मजदूरों के यूनियन काम के निर्धारित 100 दिनों को बढ़ा कर 200 दिन और मजदूरी दर को कम से कम 500 रुपये प्रतिदिन करने की मांग लम्बे समय से उठा रहे हैं.
वैसे तो अंतरिम बजट में भी पिछले साल के बराबर मनरेगा का बजटीय आवंटन 60,000 करोड़ रूपये रखा गया है, लेकिन पिछले साल के मजदूरों के 20,000 करोड़ रुपये को चुकता करने की व्यवस्था नहीं की गई है. यानी इस साल का आवंटन कम से कम 20,000 करोड़ रुपये कम है. आर्थिक विशेषज्ञों ने 2022 में ही अनुमान लगाया था कि मनरेगा के तहत सक्रिय कोई धारकों को साल में निर्धारित 100 दिनों का काम देने के लिए कुल 2,64,000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन की जरूरत थी.
ज्ञात हो कि सत्ता में आने के पूर्व के चुनावी सभाओं में नरेन्द्र मोदी ने हर साल 2 करोड बेरोजगारों को रोजगार मुहैय्या कराने का वादा किया था. फिर जून 2023 में 10 लाख लोगों को रोजगार देने की घोषणा की थी। लेकिन सच्चाई यह है कि देश के विभिन सरकारी विभागों में करीब 60 लाख पद रिक्त पड़े हैं, जिनमें से 30 लाख पद केन्द्रीय विभागों में खाली है. उन्हें बेरोजगार युवाओं से भरने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है.
गरीबों के लिए प्रावधान
इस अन्तरिम बजट में देश के गरीबों को ऊपर उठाने पर ध्यान केन्द्रित करने की बात की गई है और दावा किया गया है कि पिछले 10 सालों के दौरान नरेन्द्र मोदी सरकार ने 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर आने में मदद की है. यह दावा अन्तरिम बजट के भाग-क के ’गरीब कल्याण, देश कल्याण’ के उप-शीर्षक के तहत किया गया. ऐसा फर्जी दावा गरीबी रेखा की परिभाषा को बदल कर किया गया, जबकि सच्चाई यह है कि पिछले 10 सालों से गरीबी दर मापने के लिए एनएसएस के घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण को नहीं कराया गया है.
संसद में पेश किए गए एक हालिया आंकडे के मुताबिक नरेन्द्र मोदी के 6 सालों के शासन काल (2016 से 2021) में देश के गरीबों की आय में 50 प्रतिशत, निम्न मध्य वर्ग की आय में 30 प्रतिशत एवं ऊच्च मध्य वर्ग की आय में 10 प्रतिशत की कमी हुई है, जबकि धनी वर्ग की आय में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यूएनडीपी एवं ऑक्सफोर्ड द्वारा जारी रिपोर्ट भी बताते हैं कि देश की कुल राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत मात्र 1 प्रतिशत अमीरों के पास है, जबकि 50 प्रतिशत गरीबों के पास केवल 13 प्रतिशत है.
2023 में जारी वैश्विक भूखमरी सूचकांक में 125 देशों में भारत का स्थान 111 वां हैं, जबकि पाकिस्तान, बांग्ला देश, नेपाल एवं श्रीलंका का क्रमशः 102वां, 81 वां, 69 वां एवं 60 वां है. यानी भारत में पडोसी देशों से भी गरीबी-भूखमरी की बदतर हालत है.
ध्यान देने की बात है कि 2011 के बाद देश में जनगणना नहीं हुई और नरेन्द्र मोदी सरकार उसी जनगणना के आधार पर करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है ताकि भूखमरी को काबू में रखा जा सके. अगर नई जनगणना होती तो उसके मुताबिक 94 करोड़ गरीब मुफ्त राशन पाने के पात्र होंगे. इस तरह अंतरिम बजट में 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से उपर उठाने का दावा कर देश के गरीबों की गरीबी से खिलवाड़ किया गया है.
महिलाओं के लिए प्रावधान
अन्तरिम बजट में महिलाओं को ऊपर उठाने की बात पर फोकस किया गया है लेकिन इस बजट में नारी सशक्तिकरण के लिए मिशन शक्ति के आवंटन को पूरी तरह खर्च नहीं किया जाता है. पिछले साल के बजट अनुमान के तहत 3,144 करोड़ रूपये का आवंटन किया गया था, जबकि वास्तविक खर्च 2,326 करोड़ रूपये ही किया गया. पिछले बजट के संशोधित अनुमान के अनुसार नारी सुरक्षा के मद में 1,008 करोड़ रुपये खर्च हुआ, जिसे अन्तरिम बजट अनुमान में घटाकर 955 करोड रुपये कर दिया गया.
‘लखपति दीदी का लक्ष्य 2 से 3 करोड़ घोषित किया गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि 1 करोड़ और महिलाओं को कर्ज के जाल में फंसाने की साजिश की गई. इस योजना के तहत महिलाओं को जो कर्ज दिये जाते हैं, उसकी व्याज दर 27 प्रतिशत होती है, जबकि किसान क्रेडिट कार्ड के तहत केवल 4 प्रतिशत सूद लिया जाता है. जमीनी सच्चाई यह है कि जो गरीब महिला कर्ज नहीं चुका पाती है, उन्हें निजी कर्जदाता तरह-तरह से परेशान करते हैं. नतीजतन ढेर सारी महिलाओं को निजी ऋणदाताओं एवं उनके गुंडों के दबाव में घर छोड़ने को बाध्य होना पड़ता है.
औसत आय में वृद्धि का दावा
इस अन्तरिम बजट में प्रति व्यक्ति औसत आाय में 50 प्रतिशत की वृद्धि होने का दावा किया गया है, जबकि आंकडे बताते हैं कि नरेन्द्र मोदी के शासन काल में मजदूरी एवं स्वरोजगार की वास्तविक आय में कमी हुई है. ‘हुरुन’ द्वारा जारी हालिया आंकडे के अनुसार पिछले 40 सालों में भारतीय अरबपतियों की कुल संपत्ति में 70,000 करोड़ डॉलर की वृद्धि हुई है, जबकि 25 प्रतिशत भारतीय परिवारों की वास्तविक आय में गिरावट आई है.
वित्तीय अनुशासन की कमी
नरेन्द्र मोदी के शासन काल में वित्तीय अनुशासन की कमी एवं फिजूलखर्ची के कारण बजट घाटा लगातार बढ़ता रहा है. बजट घाटा यूपीए के शासन काल में सालाना औसत 4.63 प्रतिशत था जो नरेन्द्र मोदी के काल में बढ़कर 5.13 प्रतिशत हो गया. 2023-24 में बजट घाटा बढ़कर 5.9 प्रतिशत हो जायेगा. 2024-25 के अंतरिम बजट के धारा 5.1 प्रतिशत तक रहने का अनुमान किया गया है.
बढ़ता कर्जों का बोझ
इस अन्तरिम बजट में देश की जनता पर लादे गए कर्ज की बोझ को छुपा लेने की कोशिश की गई है. सच्चाई यह है कि मोदी के शासन काल में देश की जनता पर कर्जों का बोझ काफी बढ़ा है. 2005-06 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में कुल कर्ज 81 प्रतिशत था, जो 2021-22 में बढ़कर 84 प्रतिशत हो गया. हाल में आईएमएफ ने भारत सरकार को आगाह किया है कि 2027 तक यह अनुपात 100 प्रतिशत से ज्यादा हो जायेगा, जिससे सरकार को कर्ज चुकाने एवं आर्थिक विकास सम्बंधी योजनाओं को चलाने में काफी मुशिकल का सामना करना पड़ेगा.
प्रतिगामी कराधान
मोदी सरकार कराधान की लगातार प्रतिगामी व्यवस्था (यानी अमीरों के प्रत्यक्ष पर करों में कटौती करना और गरीबों पर करों का बोझ को बढ़ाना) करती रही है. यही कारण है कि यूपीए काल में अप्रत्याक्ष करों का हिस्सा कुल कर प्राप्ति में 25 प्रतिशत होता था, वह नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में 45 प्रतिशत हो गया. 2019 के बाद कारपोरेट कर की दर में भारी कटौती की गई और अप्रत्यक्ष कर के रूप में 2017 में जीएसटी लगाया गया. यूपीए सरकार के कार्यकाल में कुल कर प्राप्ति का 40 प्रतिशत हिस्सा कारपोरेट टैक्स से आता था वो अभी घटकर 27 प्रतिशत हो गया है.
इस अन्तरिम बजट में भी घरेलू कारपोरेट कम्पनियों के लिए कॉरपोरेट आय कर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया गया है और विनिर्माण क्षेत्र की नई कम्पनियों के लिए कारपोरेट आय कर की दर को 15 प्रतिशत रखी गई है. ऐसा कर व्यवस्था को तर्कसंगत बनाने के नाम पर किया गया है. जीएसटी की उगाही बढ़ाने के आंकड़े मोदी सरकार लगातार दे रही है.
इस बजट में भी कहा गया है कि औसत मासिक सकल जीएसटी संग्रह दोगुना होकर 1.66 लाख करोड़ रूपये हो गया है. इन सबों के बावजूद नरेन्द्र मोदी सरकार राम-धुन में मस्त है. आर्थिक विकास के पूंजीवादी मॉडल एवं पूंजीवाद-साम्राज्यवाद परस्त नीतियों को अपनाते हुए देश की आर्थिक हालत को ठीक करना और जनपक्षीय बजट बनाना नामुमकिन है.
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