जर्मन सरमाएदारों के ज़मूरे हिटलर ने अपने पृष्ठ भाग तक का ज़ोर लगाते हुए सोवियत संघ पर आक्रमण रविवार, 22 जून 1941 को एकदम तड़के किया था. इसका नाम उसने दिया था – ‘ऑपरेशन बारबरोसा’. ये नाम रखने की दास्तां भी बहुत दिलचस्प है. 12 वीं शताब्दी में फ्रेडेरिक बारबरोसा नाम के एक रोमन राजा हुए हैं, जिनकी लंबी लाल दाढ़ी थी.
हिटलर ने अपने जनरलों, कर्नलों और दूसरे चपड़कनातियों की अंतरंग मीटिंग में कहा था, ‘मुझे कम्युनिज्म से नफ़रत है, समाजवादी सोवियत संघ को नेस्तोनाबूद कर दो और स्टालिन को गिरफ्तार कर मेरे सामने हाज़िर करो, जितनी सेना, गोला-बारूद चाहिए ले लो, लाल दाढ़ी को नोच डालो. ये मेरी दिली ख्वाहिश है’.
रूस पर हमला, जिसे नाज़ी ‘पूर्वी मोर्चा’ कहते थे, अभी तक के इतिहास का सबसे बड़ा भीषण हमला था. पहले दिन, 22 जून को ही जर्मन तथा उनकी सहयोगी फ़ौजों की कुल 180 डिवीज़न टूट पड़ी थीं, कुल 3,00,000 सैनिक, 3,000 टैंक, 7,000 तोपें तथा 2,500 लड़ाकू जहाज़ लेकर !!
22 जून 1941 से फ़रवरी 1943 तक, जब दुनिया की सबसे भीषण जंग, स्तालिनग्राद में 91,000 जर्मन सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया, जर्मनी तथा इटली, जापान जैसे उसके पिट्ठू देशों की कुल 35 लाख सेना ने सोवियत संघ की जंग में भाग लिया था.
सोवियत सेना की तादाद का तो सही अंदाज़ मुमकिन नहीं, क्योंकि सबसे आगे वाले मोर्चे में हथियार लिए सेना होती थी, और उनके पीछे रसद, हथियार आपूर्ति के लिए मज़दूर रहते थे. मज़दूरों ने, रातोंरात ट्रेक्टर बनाने के कारखानों को, टैंक बनाने के कारखानों में तब्दील कर डाला था. ऐसा सिर्फ़ समाजवादी मुल्क में ही मुमकिन है. सोवियत संघ के मेहनतक़शों के उस वक़्त के ज़ज्बे को बयान करने के लिए, साहिर का ये शेर कितना सटीक है –
‘हम अमन चाहते हैं, पर अमन के लिए
गर जंग लाज़िम है, तो फिर जंग ही सही.’
20 अप्रैल को रुसी लाल सेना ने बर्लिन को चारों ओर से घेर लिया था. स्टालिन को गिरफ्तार करने के ख़्वाब देखने वाले हिटलर की पतलून गीली होनी शुरू हो गई थी. ‘लाल दाढ़ी’ वाली बात उसे याद थी ही !! रुसी लाल सेना द्वारा होने वाली ख़ातिरदारी का अंदाज़ लगाने में उसने कोई देर नहीं की,
और जैसे ही 30 अप्रैल को रुसी सैनिकों के बूटों की धमक और राइफलों की खनक उसके कान में पड़नी शुरू हुई, ख़ुद को गोली मार ली. उसके अगले ही दिन, उसके पालतू झूठ मंत्री गोएबेल और उसकी पत्नी मागदा ने, जो हिटलर के बंकर में ही शिफ्ट हो गए थे, पहले अपने 6 बच्चों को ज़हर खिलाया, और फिर फांसी के फंदों पर झूल गए.
सोवियत संघ ने इस जंग में बहुत भारी क़ीमत चुकाई, लेकिन हार नहीं मानी. उसी की बदौलत, फ़ासीवाद के उस संस्करण का अंत हुआ और 2 मई 1945 का वो दिन भी आया, जब रुसी सैनिक, कॉमरेड मेलितोन कन्तारिया और मिखाइल येगोरोव, अपने बैग में दो बड़े कम्युनिस्ट लाल झंडे लेकर, जर्मन संसद, राईसटाग पर चढ़ गए. नीचे लाल सेना की तालियों और राइफलों की दनदनाती गोलियों की गड़गड़ाहट के बीच लाल झंडा लहराया.
कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास का अब तक वो सबसे गौरवशाली पल, अमिट स्याही से लिखा गया. राइसटाग की मीनार पर, शान से लहराते लाल झंडे ने, लेकिन, नाज़ियों के साथ ही अमेरिका, इंग्लैंड और फ़्रांस के हुक्मरानों के पेट में गुड़गुड़ शुरू कर दी थी.
नाज़ी जर्मनी द्वारा आत्मसमर्पण करने की घटना भी दिलचस्प है. आत्मसमर्पण दस्तावेज़ों पर पहले 7 मई को दस्तख़त हुए थे. वह ड्राफ्ट, अमेरिका ने तैयार किया था, जिसमें जर्मन फ़ौजों द्वारा बिना शर्त समर्थन की बात तो थी, लेकिन जर्मनी की नाज़ी सरकार के बिना शर्त समर्पण की बात नहीं थी. नाज़ी सरकार चलती रहे, ये गुंजाईश मौजूद थी.
दूसरी अहम बात यह थी कि उसमें पूर्वी मोर्चे पर, जर्मन सेनाओं द्वारा रुसी लाल सेना के सामने बिना शर्त समर्पण करने का स्पष्ट उल्लेख नहीं था. इसलिए उस ड्राफ्ट को सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने नामंज़ूर किया. दूसरा ड्राफ्ट तैयार हुआ, जिसकी भाषा, सीधी, ठोस और कड़क थी. रुसी भाषा में लिखे दस्तावेज़ पर भी जर्मनी को दस्तख़त करने पड़े. इसे ही फाइनल दस्तावेज़ माना गया.
नाज़ियों द्वारा बिना शर्त आत्मसमर्पण दस्तावेज़ पर जिस वक़्त दस्तख़त हुए, तब जर्मनी में रात के 11.15 बज चुके थे, अर्थात सोवियत संघ में 9 मई आ चुकी थी. हमारे देश में तो ज़ाहिर है, 9 मई की भोर हो चुकी थी. इसीलिए सोवियत संघ में विजय दिवस 9 मई को मनाया जाता है. जिस इमारत में यह तारीखी दस्तावेज़ साइन हुए, उसे ‘बर्लिन-कार्ल्होर्स्त म्यूजियम’ कहा जाता है.
आज भी, बर्लिन में सबसे जयादा पर्यटक इसी ऐतिहासिक जगह को देखने जाते हैं. बिल्डिंग के आगे, लॉन के एक तरफ़, रुसी लाल सेना की विजय के प्रतीक के रूप में सोवियत संघ का वह टी-25 टैंक भी रखा हुआ है, जिसने युद्ध में नाज़ियों के होश फाख्ता किए थे. अंदर मुख्य हाल में 8 मई, 1945 की उस घटना की फिल्म लगातार चलती रहती है. इस नाचीज़ को भी दो साल पहले, इस मुक़द्दस जगह पर जाने का मौक़ा मिला था.
‘विजय दिवस’ जिंदाबाद !
लाल सेना के शहीदों को लाल सलाम !!
पूंजीवाद-साम्राज्यवाद-फ़ासीवाद को दफ़न करने का संघर्ष तेज़ करो !!!
- सत्यवीर सिंह
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जो इतिहास को जानता है, वह भविष्य भी जानता है…
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