1960 के दशक के ऐतिहासिक वियतनाम युद्ध का नाम लेकर, साम्राज्यवादी लठैत, अमेरिकी सरकार को आज भी दुनियाभर में लानत भेजी जाती है. वियतनामियों ने अमेरिकी क़त्लेआम को बेमिसाल बहादुरी से हराया था. साथ ही, अमेरिकी छात्रों ने, अमेरिकी सेना द्वारा किए जा रहे, ‘वियतनाम नर-संहार’ के विरुद्ध एक शानदार जन-आंदोलन चलाया था, जिसमें हर इंसाफ पसंद अमेरिकी जुड़ता चला गया था. इसी का नतीज़ा था कि अत्याधुनिक विनाशकारी हथियारों से लैस, हमलावर, जंगखोर, ख़ूनी अमेरिकी सेना को, निर्लज्जता के साथ, दुम दबाकर वियतनाम से भागना पड़ा था.
वैसा ही शानदार आंदोलन, अमेरिकी छात्र आज चला रहे हैं. जंगखोर ख़ूनी अमेरिकी सरकार द्वारा अपने बगलबच्चों, इजराइल, ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस को साथ लेकर पिछले 7 महीने से गाज़ा में फिलिस्तीनियों पर चलाए जा रहे नरसंहार के विरुद्ध अमेरिकी छात्रों ने मोर्चा खोल दिया है. जितना दमन बढ़ रहा है, छात्र आंदोलन उतना ही फैलता जा रहा है. विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर भी छात्रों के साथ आ गए हैं. छात्र, अपना बोरिया-बिस्तर लेकर कैंपस के अंदर फ़ौजी छावनियों की तरह डट गए हैं. 35,000 बेक़सूर फिलिस्तीनियों, जिनमें आधे मासूम बच्चे हैं, की हत्यारी बाईडेन सरकार दहशत में है; इंसाफ पसंद, अमन पसंद अमेरिकी भी छात्रों के साथ मिल गए तो क्या होगा ?
समूची दुनिया, ख़ासतौर पर छात्रों ने ना सिर्फ़ इस शानदार अमेरिकी छात्र आंदोलन का समर्थन करना चाहिए, बल्कि इसके साथ सचेत एवं सक्रिय रूप से जुड़ जाना चाहिए. नाज़ियों द्वारा कंसंट्रेशन कैम्पस में जो नरसंहार किया गया, उसे जानकर समूची मानवता आज भी शर्मसार होती है. उसे, लेकिन, हमने क़िताबों में पढ़ा है. आज, जो गाज़ा में हो रहा है, वह हमारी आंखों के सामने हो रहा है. हैवानियत की हर इन्तेहा लांघ रहा ख़ूनी भेड़िया इजराइल अमेरिकी उकसावे और हथियार-आपूर्ति के बगैर, एक दिन भी यह विनाशकारी जंग नहीं चला सकता.
धरती दहलाने वाली, लपटें उठाती भीषण बमबारी, चीखें-चीत्कार, मलबे के ढेर और सफ़ेद कपड़े में लिपटे, छोटे-छोटे बच्चों के मृत शरीरों की लम्बी लाइनें, 205 दिन से हर रोज़ दुनिया देख रही है. मासूम बच्चों की लाशों के ढूह बेचैन करते हैं, रात में सोने नहीं देते. समूची मानवता को ही चुनौती देने वाले इस नरसंहार को रोकने के हर प्रयास को अमेरिकी जंगखोरों ने पूरी निर्लज्जता से रोका है. ‘यहां से वहां चले जाओ; ‘अब यहां से फ़िर वापस वहीं चले जाओ.’ लाखों लोगों की ये निर्मम परेड, ज़िल्लत सहते, मदद लेते, भूखे-बेहाल लोगों पर नृशंस गोलाबारी, अस्पतालों को तबाह करते हमले, डोक्टरों, पत्रकारों, संयुक्त राष्ट्र संघ के इमदाद करते स्टाफ पर गोलीबारी, ऐसी हैवानियत जिसे बयान करना मुमकिन नहीं.
अमेरिकी छात्र आज सबसे मौज्ज़िज़ अमेरिकी और विश्वविख्यात मुक्केबाज़ मोहम्मद अली से सीख रहे हैं. ‘वियतनाम में छिड़ी जंग में अमेरिकी सेना की मदद करो’, अमेरिकी हुकूमत के इस हुक्म का मोहम्मद अली ने ये जवाब दिया था, ‘मैं और मेरे जैसे लोग, जिन्हें आप नीग्रो कहते हैं, अमेरिका से 10,000 मील दूर, ऐसे बेक़सूर लोगों पर बम गिराने और गोलियां बरसाने क्यों जाएं, जिन्होंने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा. मेरा जवाब है, ‘ना’, मैं बेक़सूर लोगों का क़त्ल करने 10,000 मील दूर हरगिज़ नहीं जाऊंगा.’ वे, अमेरिकी सरकार द्वारा लादी गई ज़रूरी ‘सैन्य-ड्यूटी’ करने नहीं गए, जेल चले गए.
‘छात्र ही क्यों हर वक़्त बग़ावत पर उतारू रहते हैं ?’ इस सवाल का जवाब 1960 के दशक के गौरवशाली अमेरिकी छात्र आंदोलन पर शोध करने वाले, अमेरिकी समाजशास्त्री गेरार्ड जे डेग्रूट ने अपनी पुस्तक, ‘स्टूडेंट प्रोटेस्ट; द सिक्सटीज एंड आफ्टर’ में एक बहुत दिलचस्प अंदाज़ में दिया है, ‘छात्र हमेशा, उग्र सामाजिक बदलाव (अर्थात बग़ावत) के लिए तत्पर रहते हैं. क्योंकि उनके पास होता है; युवा जुझारूपन, अनुभवहीन आदर्शवाद, सत्ता-ताक़त के विरुद्ध बग़ावत, उफ़ान मारते आदर्शवाद, दुस्साहस के प्रति आकर्षण और कहने की ज़रूरत ही नहीं, ख़ूब सारा फ़ालतू वक़्त; इन सब का सम्मिश्रण.’
अमेरिका में, छात्र आंदोलन का एक बहुत ही गौरवशाली इतिहास है. अमेरिका ने सामंती युग नहीं देखा, लेकिन घृणित दास-प्रथा, वहां बहुत लंबे समय रही. एशिया, अफ्रीका के ग़रीबों को माल ढोने वाले जहाज़ों में जानवरों की तरह ठूंसकर वहां ले जाया जाता था, जिनमें कई तो रास्ते में ही दम छोड़ देते थे. जो जिंदा बच जाते थे, वे वहां मौत से भी बदतर गुलामी ही नहीं, बल्कि दासता झेलते-झेलते मरते थे. इस अमानवीय दास प्रथा के विरुद्ध, 1730, 1830, 1860 तथा गोरे-काले के रंगभेद के विरुद्ध, अमेरिकी छात्रों ने गौरवशाली आंदोलन चलाए हैं. ‘ओकुपाई वाल स्ट्रीट’ तथा ‘ब्लैक लाइवज मैटर’ के बैनरों तले, पुलिस की बंदूकों के सामने बेख़ौफ़ डट जाने वाले, बहादुर अमेरिकी छात्रों के जत्थों को भला कौन भूल सकता है ?
अमेरिकी विश्वविद्यालय, कॉलेज कैंपस आज फिर छात्रों की विद्रोही युवा ऊर्जा का का केंद्र बन गए हैं. 24 अप्रैल को, टेक्सास विश्वविद्यालय के 50 तथा कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के 100 छात्रों को हथियारबंद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. उसके बाद उफनता छात्र आंदोलन, स्टैनफोर्ड, प्रिंसटन, येल, मसाचुसेट, न्यूयॉर्क तथा कोलंबिया विश्वविद्यालयों में फ़ैल गया. पुलिस को अपना दमन रोकना पड़ा, क्योंकि सरकार समझ गई कि आंदोलन की ज्वाला दमन से और भड़केगी.
कोलंबिया विश्वविद्यालय में छात्रों ने एक अलग प्रयोग किया. वे अपने साथ, टेंट और बोरिया-बिस्तरा लेकर गई और ग्राउंड में, हमारे किसानों की तरह, पक्का मोर्चा ठोक दिया. साथ ही, विश्वविद्यालय के लगभग सभी प्रोफ़ेसर, छात्रों के साथ आ गए, जिससे पुलिस के हाथ-पैर फूल गए. पक्का मोर्चा, मतलब, लंबी लड़ाई, जो निर्णायक मोड़ लेने की संभावनाएं भी रखती है क्योंकि लोग वहां भी बेरोज़गारी-मंहगाई की मार से कराह रहे हैं. सतह के नीचे आक्रोश की ज्वाला धधक ही रही है.
कोलंबिया विश्वविद्यालय ग्राउंड में ‘गाज़ा सॉलिडेरिटी एन्केम्प्मेंट’ नाम से छात्रों का पक्का मोर्चा लग चुका है. पुलिस और अर्धसैनिक दस्ते, उसे दूर से निहारते नज़र आते हैं. सबसे दिलचस्प हकीक़त ये है कि यहूदी छात्रों और प्रोफ़ेसरों के कई इदारे, इस तहरीक में शामिल हैं. कोलंबिया विश्वविद्यालय वह जगह है, जहां नागरिक-अधिकारों के हनन, काले-गोरे भेदभाव तथा वियतनाम के विरुद्ध भी यादगार आंदोलन हुए था. अमेरिकी फ़ौजों द्वारा, कम्बोडिया में ज़ारी नरसंहार को मदद दी जा रही थी. उसके विरुद्ध उठे तीखे छात्र-आंदोलन पर 4 मई, 1970 को हुई पुलिस गोलीबारी में 4 छात्र शहीद हुए थे.
प्रतिष्ठित अमेरिकी समाजशास्त्री और शिक्षाविद, मेल्कोम एक्स ने कहा था, ‘अन्याय के विरुद्ध लड़ते वक़्त, मैं यह नहीं देखूंगा कि कौन मेरे साथ है और कौन ख़िलाफ़’, ‘मेरा ऐसा मानना है कि आख़िर में उत्पीड़ितों और उत्पीड़कों के बीच युद्ध होगा. मेरा यह भी मानना है कि उस युद्ध में आज़ादी, इंसाफ़ और सभी को बराबरी चाहने वाले लोग, इकट्ठे होकर, उनके विरुद्ध लड़ेंगे, जो शोषण-उत्पीड़न की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं.’ अमेरिकी छात्र आज, मेल्कोम एक्स को याद कर रहे हैं. आओ, उनके साथ चलें !
- सत्यवीर सिंह
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छात्र आन्दोलन : Stop Playing with Our Future
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