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नौकरशाह के. के. पाठक के फरमान से हलकान शिक्षकों का पांच महीने से वेतन बंद

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नौकरशाह के. के. पाठक के फरमान से हलकान शिक्षकों का पांच महीने से वेतन बंद
नौकरशाह के. के. पाठक के फरमान से हलकान शिक्षकों का पांच महीने से वेतन बंद
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

के. के. पाठक के फरमान दर फरमान और निरंतरता की मनमानियों से जब बिहार का शैक्षणिक माहौल कर्कश कोलाहलों से ग्रस्त और शिक्षक समाज त्रस्त हो उठा था तो खास कर सत्ताधारी दलों से जुड़े शिक्षक या स्नातक प्रतिनिधि विधान पार्षदों ने वीडियो साक्षात्कारों में विरोध की आवाजें बुलंद की.

करीब पांच छह महीने पहले हमने उनमें से कुछ विधान पार्षदों को कहते सुना, ‘हम यहां झाल बजाने और कीर्त्तन करने के लिए नहीं आए हैं, हम शिक्षकों के साथ हो रहे अन्याय और बदसलूकियों के खिलाफ सख्त विरोध दर्ज करेंगे, हम माननीय मुख्यमंत्री जी से मिलेंगे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे आदि आदि.

आज, जब हालात इतने खराब हो चुके हैं कि विश्वविद्यालयों के शिक्षक कर्मचारियों का चार महीने से वेतन पेंशन बंद है, स्कूल के शिक्षक गर्मी छुट्टी में भी स्कूल जाकर ड्यूटी बजाने को मजबूर कर दिए गए हैं, कानून को ताक पर रख कर वजह बेवजह उनके वेतन काट लिए जा रहे हैं तो सवाल उठता है कि उन शिक्षक नेताओं, सदन में शिक्षक या स्नातक प्रतिनिधियों ने इन मुद्दों पर झाल बजाने और कीर्तन करने के अलावा और क्या किया है !

उनके ही शब्दों में वे सिर्फ झाल बजाते और कीर्तन करते रह गए जबकि एक ब्यूरोक्रेट एक ही डंडे से सबको हांकता रहा. इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ? पहला तो यही कि शिक्षक नेताओं और शिक्षकों के बीच कोई तारतम्य नहीं रह गया है. न शिक्षकों की अपने नेताओं पर कोई आस्था रह गई है, न नेताओं का शिक्षकों पर कोई प्रभाव रह गया है. चुनाव में जैसे तैसे मैनेज कर जीत जाना अलग बात है.

के. के. पाठक के दौर ने शिक्षक संगठनों के खोखलेपन और नेताओं के निष्प्रभावी होने को उजागर कर दिया है. साथ ही, यह भी साबित कर दिया है कि बेरोजगारी के इस भयावह दौर में अच्छा खासा वेतन उठाता नौकरीशुदा शिक्षक समुदाय आत्मतुष्ट, रीढ़ विहीन और मनोबल से हीन हो चुका है. न उनके नेताओं में इतनी प्रेरक शक्ति बची कि उनका कोई आह्वान प्रभावी साबित हो सके, न शिक्षक समुदाय में वह चेतना नजर आई जो उनके मानसिक उत्पीड़न और अनावश्यक के दमन के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध की कोई पृष्ठभूमि तैयार कर सके.

गौर कीजिए, शिक्षा विभाग ने स्कूलों की अवधि के निर्धारण के संबंध में सदन में दिए मुख्यमंत्री के वक्तव्य तक की अवहेलना कर दी और शिक्षक समुदाय विभागीय अधिकारियों की इस मनमानी के विरोध में सशक्त सामूहिक विरोध तक दर्ज नहीं करवा सका. सदन की गरिमा और मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा के नाम पर ही सही, प्रभावी विरोध तो हो ही सकता था. लेकिन, हजारों शिक्षक इस विभागीय मनमानी की आड़ में भ्रष्ट अधिकारियों की अवैध वसूली के शिकार बनते रहे.

लाखों की संख्या का अमोघ बल रखने वाला शिक्षक समुदाय उसी निरीह हिरण की तरह नजर आया जिसे हम वाइल्ड लाइफ चैनलों में किसी हिंसक पशु के चंगुल में फंस कर विवश भाव से छटपटाता देखते हैं.

गौर कीजिए, चार महीने से बिहार के विश्वविद्यालयों के शिक्षक कर्मचारी और रिटायरकर्मी बिना वेतन पेंशन के बुरी तरह कुलबुला रहे हैं. कल से पांचवा महीना शुरू होगा. पता नहीं, शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालय तंत्र के बीच का यह गतिरोध कब समाप्त होगा. लेकिन, हमने किसी अखबार या चैनल में ऐसी कोई खबर नहीं देखी कि फलां विश्वविद्यालय या कॉलेज के शिक्षक गण अपने इस बेवजह के उत्पीड़न के खिलाफ काली पट्टी बांध कर काम करने पहुंचे. विश्वविद्यालयों के कुछेक शिक्षक नेता मंत्री या मुख्यमंत्री को कोई ज्ञापन सौंप कर पता नहीं किस खोल में जा सिमटे हैं.

चार महीने से बिना वेतन के रहना कितना फजीहत कराने वाला अनुभव है यह कोई भी सामान्य शिक्षक महसूस कर रहा है, लेकिन न उनमें सामूहिक प्रतिरोध की किसी चेतना के दर्शन हो रहे, न उनके संघ के नेताओं का कोई प्रभावी वक्तव्य नजर आ रहा. गतिरोध राजभवन और शिक्षा विभाग में, कश्मकश शिक्षा के अपर मुख्य सचिव और कुलपतियों में, लेकिन पिस रहे हैं शिक्षक और कर्मचारी जिनके उल्लेख के पहले ‘निरीह’ शब्द का विशेषण लगाने में मन अजीब सा हो जा रहा है.

बीते दशकों में कब बिहार के विश्वविद्यालय शिक्षक और कर्मचारी इतने निरीह साबित हुए ? उनके सामूहिक संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है जिसने उन्हें इज्जत और सुरक्षा से जीने और नौकरी करने के लायक बनाया. आज, वह सामूहिकता नष्ट हो चुकी है, उनके संघ मृतप्राय हो चुके हैं, उनके नेताओं की नैतिक आभा नष्ट हो चुकी है.

तभी तो, कोई ब्यूरोक्रेट शिक्षा शास्त्र और शास्त्रियों की ऐसी की तैसी करते हुए एक ही डंडे से सबको हांकते हांकते हलकान कर चुका है और अपने जख्म गिनने के अलावा कोई कुछ कर नहीं पा रहा. समाजशास्त्रियों के लिए यह शोध का विषय है और समाज के लिए यह चिंता और क्षोभ का विषय है कि शिक्षक समुदाय अपनी सामूहिक चेतना खो कर अपने ही वैयक्तिक लिजलिजेपन के घेरे का बंदी बन चुका है, उनके संघों का अस्तित्व हास्यास्पद हो चुका है और उनके नेताओं की नैतिक आभा का इतना क्षरण हो चुका है कि शिक्षक उन्हें वोट भले ही दे दें, उनके आह्वानों को कोई तवज्जो नहीं देते.

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ROHIT SHARMA

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