विष्णु नागर
प्रधानमंत्री कभी मर्यादित भाषा बोलने के लिए ‘बदनाम’ नहीं रहे. मगर मतदान का पहला चरण खत्म होने के बाद उनकी घबराहट और डर और अधिक सामने आ रहा है. एक दिन कहते हैं कि देश और विदेश के ताकतवर लोग मुझे हटाना चाहते हैं. उसके एक दिन और पहले कहते हैं कि कांग्रेस आ गई तो आपकी मेहनत का सारा पैसा, जो ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, उनको बांटेंगी, घुसपैठियों को देगी. तो अब मुसलमान अधिक बच्चे पैदा करनेवाले और घुसपैठिए हो गए ? सभ्यता और लोकतांत्रिक शालीनता तो इन्हें छू नहीं गई. राहुल गांधी के लिए लगातार ‘शहजादे’ शब्द का इस्तेमाल इसी जहरीली मानसिकता का द्योतक है.
पहली बात, हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं तो जनता यह तय करती है कि अगले पांच साल देश का नेतृत्व किस पार्टी या गठबंधन, किस नेता के हाथ में होगा. अगर जनता आपको हटाना चाहती है तो हटाएगी ही. चुनाव इसलिए नहीं होते कि जो पार्टी सत्ता में थी, उसे ही, उसके नेता को ही बार-बार चुनने के लिए, ढोने के लिए बाध्य है. अभी भारत रूस नहीं बना है. और यह कहना सीधे सीधे मतदाताओं का अपमान है कि जनता नहीं, देश विदेश के ताकतवर लोग मुझे हटाना चाहते हैं.
माननीय इंदिरा गांधी को 1977 में और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को किसने हटाया था – जनता ने या भारत तथा दुनिया के ताकतवर लोगों ने ? मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस को 2014 में किन देशी-विदेशी ताकतवरों ने हटाकर आपको प्रधानमंत्री बनाया था ? आप यह कह रहे हैं कि आपको देशी विदेशी ताकतवरों ने बनवाया था ? तब तो आपको हटाना ही चाहिए- किसी भी कीमत पर. जिन्होंने दो बार आपको मौका दिया, उनका आप इस तरह अपमान कर रहे हैं-भले ही उन्होंने आपके झूठ के जाल में फंसकर वोट दिया था, मगर आप वोट से ही आए थे, न कि किसी षड़यंत्र का हिस्सा थे ? बताइए खुद कहिए यह बात !
दूसरी बात, अब सीधे-सीधे प्रधानमंत्री बेहद आपत्तिजनक, घनघोर सांप्रदायिक भाषा पर उतर आए हैं, यह खतरनाक तो है ही, यह इस बात को भी फिर से यह सिद्ध करता है कि यह शख्स कभी भी देश की 130 या 135 करोड़ जनता का प्रतिनिधि नहीं रहा. यह मुसलमानों को तो छोड़ो, बहुसंख्यकों का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता. यह शख्स किसी भी, यहां तक कि अपनी पार्टी का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता. यह मैं मैं मैं है. मैं नहीं तो जग नहीं. यह भारत के इतिहास का पहला ऐसा प्रधानमंत्री है. राहुल गांधी को ‘शहजादा’ कहने के पीछे भी यह छोटी और घटिया सोच है.
बेशर्मी अब तेरा ही आसरा है
इस आदमी ने सब नष्ट कर दिया. किसी पद की, किसी विभाग की कोई अहमियत नहीं बची. किसी मंत्री और यहां तक कि इससे ऊपर के पद पर बैठे व्यक्तियों की भी कोई हैसियत नहीं बची. सब रबर स्टाम्प बन गए हैं. मीडिया को पूरी तरह अपना गुलाम बना लिया है. टीवी चैनल देखने का अब मन नहीं करता. हिंदी के अखबार मरे-मरे से हैं बल्कि शर्मनाक से भी हद तक गिर चुके हैं. सरकार की भजन मंडली के गायक बन चुके हैं.
विकास के नाम पर पर्यावरण की ऐसी-तैसी कर दी गई है. अदालतें भी काफी हद तक अनुकूलित कर ली गई हैं. विश्वविद्यालयों की रही- सही साख खत्म कर दी गई है. आईआईएम का प्रबंधन की आजादी खत्म कर दी गई है. जहां तक विदेशों से रिश्तों की बात है, मालदीव जैसा नन्हा सा देश तक आज धमकाता है. चीन हमारी जमीन पर कब्जा करके बैठा है मगर दावा है कि दुनिया में हमारा डंका बज रहा है. वाह रे डंके तू किधर बज रहा है भाई,जरा नजर भी तो आ जा !
बचा क्या ? मगर देश में छाती तानता घूम रहा है कि मैंने देश को बचा लिया. मैं ही बचा सकता हूं. दस साल तो कांग्रेस ने जो गड़बड़ियां कीं, उन्हें ठीक करने में लग गए,जबकि ये काम धेलेभर का नहीं करता. एक ही काम इसे अच्छी तरह आता है लगातार षड़यंत्र रचना और अपनी कीर्ति कथा सुनाना. विपक्ष शासित राज्यों की जनता की तकलीफों की कीमत पर भी इसने चुनी हुई राज्य सरकारों को काम नहीं करने दिया है और कहता है, मैं संविधान का रक्षक हूं !
इन राज्यों के राज्यपालों और जहां उपराज्यपाल हैं, उनका एक ही काम है, वहां की चुनी हुई सरकारों को काम न करने देना. पंगु बना देना, बदनाम करना. दिल्ली में उपराज्यपाल और भाजपा नेता का फर्क मिट चुका है. मुख्यमंत्रियों को जेल भेजा जा रहा है, ताकि वे लोकतांत्रिक खतरा न बन सकें. दलों के नेताओं को लालच और धमकी और लालच से लुभाया और कुचला जा रहा है.
जो लोकतंत्र और भाईचारे की बात करते थे, काम करते थे, ऐसे सैकड़ों निर्दोषों को जेल में बंद कर दिया गया है. और चुनावी चंदे की इतनी बड़ी धोखाधड़ी सामने आने के बावजूद बंदा भ्रष्टाचार मिटाने का ब्रांड एंबेसडर टाइप बना हुआ है, धन्य है. बेशर्मी अब तेरा ही आसरा है.
फिलीस्तीनी संकट पर कविता पाठ
तो वे अब फिलीस्तीनी संकट पर कविता पाठ तक से डरने लगे हैं. दोस्ती फिलीस्तीनियों से भी निभाने का नाटक करते हैं मगर इस्राइल और अमेरिका से इतना डरते हैं कि दिल्ली के कला संकाय में थोड़े से छात्रों और अध्यापकों के बीच कविता पाठ की अनुमति देकर अंत में मुकर जाते हैं.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के अनुसार दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय ने फिलीस्तीन पर कविता पाठ की अनुमति मांगी थी, जो उसने दे दी. यह कविता पाठ आयोजित होना था मगर कहां से, किसने, कौन सी चाबी चुपचाप घुमाई कि शनिवार को इसे स्थगित कर दिया गया. इसमें अशोक वाजपेयी का व्याख्यान भी होना था. तो मोदी राज में अकादमिक स्वतंत्रता का इतना बुरा हाल है कि एक मित्र देश के संकट पर कविता पढ़ना भी गुनाह है.
समय सब अपराध याद रखेगा दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी शिखर कर्ताधर्ताओं, तुम्हें भी माफ नहीं करेगा. यह भी याद रखा जाएगा. यह याद रहे कि फिलीस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देने वाला दुनिया का सबसे पहले देश भारत था, लेकिन तब भारत, भारत था, हिन्दू राष्ट्र नहीं हुआ था.फिलीस्तीन के नेता यासिर अराफात भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सबसे अच्छे मित्रों में हुआ करते थे. उनका यहां दिल खोलकर स्वागत हुआ करता था और आज इस्राइल के जासूसी उपकरण विरोधियों के मोबाइल में चुपचाप फिट किए जाते हैं.
नारंगी संतरे और खाकी कच्छे
दिक्कत यह है कि पिछवाड़ा लाल न हो जाए किसी भी धुरंधर का ! दिक्कत यह है कि अगड़े-पिछड़े के खेल से कहीं बरी न कर दिया जाए किसी भी खिलंदड़े को, कि बातिल न कर दिया जाए उन्हें, उनके सबसे बड़े रंगभूमि से. दिक्कत यह है कि दाल भात के साथ अचार पापड़ और घी खाने की तीव्र इच्छा पर कोई डाका न पड़ जाए !!! कायरता और कातरता इस क़दर पसर आई है जो बाहर से दिखते थे ‘कुछ और थे.’ असल में, वे नारंगी संतरे और खाकी कच्छे के जामे में जार हुए लोग हैं.
कहने का तात्पर्य है कि दिलीप मंडल एक मंझा हुआ कलाकार है, अब साफ़ रूप में दिखाई दिया है. दिलीप मंडल उतना ही कलाकार है जितना कि रामदेव है. उतना कि जितना अन्ना हजारे व उनके नाभि से पैदा हुए सब संतान हैं. इस देश के नसों पर बहता हुआ रक्त मुझे सशंकित करता है. डराता है कि दोगलाई का कीड़ा कहां-कहां,और किस-किस में संचरित है.
बात सिर्फ दिलीप मंडल की ही नहीं है, बात तेरी-मेरी और उन सभी की समझ और स्वार्थ के हैं, जो अपने-अपने हितों के हिसाब से तय हो जाया करती है. समकालीन समय और समाज का यथार्थ जिस तेज़ी में बदलता जा रहा है, कहना मुश्किल नहीं है कि ”धोखा सबसे अधिक वहीं है, जहां सबसे ज्यादा भरोसा है. भूल जाएं कि कोई मोदी है या योगी, कोई मंडल है कि कमंडल. संदेह जरूर करें. बहुत अधिक भरोसा कम करें.
डिक्टेटर का आत्मविश्वास
तुम मुझ पर हंसना चाहते हो, हंसो. याद रखो, तुम मुझ पर हंसने के अलावा कुछ कर नहीं सकते. हंसा था मुझ पर चैप्लिन, क्या हुआ ?क्या मैं, मैं नहीं रहा, तुम हो गया ? क्या मेरा पुनर्जन्म लेना बंद हुआ ? क्या मैं पूरी दुनिया में फैल नहीं गया ? तुमने एक ही चैप्लिन पैदा किया, तुम्हें याद है, आज मेरे समरूप कितने और कहां हैं ? वे कितने देशों, कितनी नस्लों, कितने धर्मों में हैं और कितने युगों तक रहेंगे ?
सोचो, तुम्हारे चैप्लिन को कब्र में भी कभी चैन मिला होगा और मुझे याद है, कब्र में जाकर भी अपना भविष्य उज्ज्वल जानकर मैं खुश था. वह आज भी कब्र में है और कब्र क्या होती है, यह मैं भूल चुका हूं. चैप्लिन अमर है मगर मेरे बहाने फिल्म बना कर. मैं अपने को जानता था, चैप्लिन पूरे समय को. फर्क पड़ा इससे कुछ ?
भूलो चैप्लिन को, याद रखो मुझे. मैं ही तुम्हारा वर्तमान, भविष्य, अतीत हूं. मुझसे तुम्हारा कितनी ही बार वास्ता पड़ेगा. वैसे देखते रहना ‘ग्रेट डिक्टेटर’, खुश होकर बाहर आओगे, तो तुम्हारे स्वागत में खड़ा मैं ही मिलूंगा, चैप्लिन नहीं.
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