सुब्रतो चटर्जी
अर्णव गोस्वामी के लिए कोर्ट रात 12 बजे खुल सकता है, लेकिन केजरीवाल को बेवजह दो महीने जेल में रहना होगा और कोर्ट 29 अप्रैल के पहले ज़मानत पर फ़ैसला नहीं कर सकती है. यानी जो मोदी का कुत्ता नहीं है, सुप्रीम कोर्ट उसके लिए नहीं बना है, फिर इस कोर्ट की ज़रूरत क्या है ?
आप कहेंगे कि संजय सिंह को तो ज़मानत मिली ? दरअसल यह ठीक वैसी ही बात है जैसे कि तेलंगाना देकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को ईवीएम से ले लिया जाए ताकि शुचिता का वहम बना रहे.
नव फासीवाद को डिकोड करने के लिए आपको न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका को एक लाईन में खड़े कर देखना होगा. लोकतंत्र पर ग्रहण ऐसे ही नहीं लगता है, चांद, सूरज और पृथ्वी को एक सीधी रेखा में आना पड़ता है. ये अलग बात है कि अंधेरे में आपको कुछ सूझता नहीं है, क्योंकि आपकी फासीवाद की समझ सीमित है.
फासीवाद की सीमित समझ के पीछे आपकी वैचारिक शून्यता है और उसके लिए ज़िम्मेदार आपका पूंजीवादी व्यवस्था पर विश्वास है. पूंजीवादी लोकतंत्र पर विश्वास के लिए आपके निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए जद्दोजहद है.
यह स्थिति आपके कम होते नागरिक होने की निशानी है जो कि अंततोगत्वा आपको कम मनुष्य बना देता है. ऐसे में अगर आंशिक नागरिक और आंशिक मनुष्यों के देश में फासीवाद आ जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.
इसकी एक झलक आप गोबर पट्टी के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों (एकाध अपवादों को छोड़कर) की राजनीतिक चर्चाओं में देख सकते हैं. वे अभी तक 2019 के चुनाव में इवीएम धांधली पर नहीं बोलते हैं, जबकि क़रीब 350 सीटों पर इवीएम में पड़े वोटों और गिने गए वोटों के बीच अंतर पाया गया है.
गोबर बुद्धिजीवी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव के बाद इवीएम पर शक जता रहे थे, फिर इनके मुंह में पैसे ठूंस दिये गये और अब वे चुनाव के आख़िरी हफ़्ते में भाजपा के मास मोबिलाईजेशन की तारीफ़ करते हुए नहीं थकते हैं. यू ट्यूब पर दुकानदारी चल रही है और आपको लगता है कि ये गधे मोदी विरोधी हैं.
दरअसल आप गधे हैं कि इनको फासीवाद विरोधी समझ बैठे हैं. इनका मोदी विरोध सिर्फ़ इसलिए है कि कहीं तीसरी बार जीतने पर नये क़ानून के तहत इनकी दुकानदारी न बंद हो जाए.
तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया में कोई दोगलापन नहीं है. वे स्वघोषित नंगे हैं मोदी की तरह. ऐसे में यह आशा करना कि न्यायपालिका देश में लोकतंत्र पुनर्बहाली के लिए ठोस कदम उठाएगी, एक दिवास्वप्न है.
दो दिनों बाद से आम चुनाव शुरु हो रहे हैं. हर तरफ़ क्रुद्ध राजपूत, जाट और अन्य लॉबी की बात हो रही है. भाजपा की बड़ी हार की बात पहले चरण में होने की संभावनाएं जताईं जा रही हैं.
मेरे आज की बातों को सेव कर रख लीजिए, भाजपा इवीएम के दम पर हर जगह जीतेगी. 4 जून के बाद गोबर पट्टी का समानांतर प्रेस फिर से भाजपा के बूथ मैनेजमेंट की प्रशंसा में लहालोट होगी. कोई नहीं पूछेगा कि भाजपा के वे नेता भी कैसे जीत गये जिनका खदेड़ा हो रहा था.
जनता को ज़्यादा से ज़्यादा वोट देने की अपील इसी फासीवाद को मान्यता या validity देने का आह्वान है. ऐसे में एक अच्छी ख़बर ये है कि सिर्फ़ 38% फ़र्स्ट टाईम वोटरों ने ही वोटर कार्ड लिया है. मतलब एक नौजवान पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसका विश्वास चुनावी लोकतंत्र में नहीं रह गया है.
अब वे विशुद्ध लुंपेन हैं या चारु मजूमदार के अचेतन समर्थक हैं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इस मोहभंग की स्थिति का राजनीतिक फ़ायदा कोई भी ले सकता है, फ़ासिस्ट भी और कम्युनिस्ट भी.
ख़ैर, एक काल्पनिक चरित्र के पीछे मरे पड़े गोबर पट्टी के लोगों के लिए यह सब कोई समस्या नहीं है. आप एक ही साथ राजा राम के राजतंत्र की पूजा करेंगे और दूसरी तरफ़ लोकतंत्र के प्रहरी बनेंगे, ऐसा तो हो नहीं सकता है. बौद्धिक दोगलापन आपको कहीं का नहीं छोड़ता है.
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