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आरएसएस-मोदी की महानतम उपलब्धि है – अविवेकवाद

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

आरएसएस के राष्ट्रीय वर्चस्व का सबसे भयानक असर बुद्धिजीवियों और शिक्षितों पर हुआ है. संघ के वर्चस्व ने रेशनललिज्म के स्थान पर इरेशनलिज्म को प्रतिष्ठित किया है. पहले इरेशनलिज्म सार्वजनिक जीवन में था लेकिन राजनीति में नहीं था. राजनीति में इरेशनलिज्म की प्रतिष्ठा के बाद से तर्क, विवेक, सहिष्णुता और मानवाधिकारों पर हमले तेज़ हो गए. बुद्धिजीवियों पर हमले तेज़ हुए हैं. यह लोकतंत्र में ऐतिहासिक पैराडाइम शिफ़्ट है.

इस शिफ़्ट का परवर्ती पूंजीवाद, सीआईए के देश के अंदर राजनीतिक प्रभाव विस्तार और अमेरिकी साम्राज्यवाद से गहरा संबंध है. यह भारत की विवेकवादी परंपरा,सत्य निष्ठ परंपरा का निषेध है बल्कि यों कहना उचित होगा कि विलोम है. यह देश के अंदर अमेरिकी संस्कृति और राजनीतिक वर्चस्व का विस्तार है. इसका हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुत्व तो आवरण है. संघ जानता है कि जनता को हिन्दुत्ववादी नहीं बनाया जा सकता, वे यह भी जानते हैं कि भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं था और भविष्य में भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता.

आधुनिक काल में भारत-विभाजन अविवेकवाद का चरम था. लोग सोच रहे थे कि अब साम्प्रदायिक ताक़तें ख़त्म हुईं. इस भ्रम को बनाए रखने में जनसंघ और बाद में भाजपा की पराजय ने भी भूमिका अदा की, लेकिन हक़ीक़त यब थी कि साम्प्रदायिक ताक़तें ज़मीनी स्तर पर सक्रिय बनी रहीं. खासकर परवर्ती पूंजीवाद के दौर में इरेशनलिज्म का सीआईए और उसके समर्थन और सहयोग से चलने वाली संस्थाओं ने विगत चालीस सालों में आम जनता के बीच में इरेशनल मसलों पर जनता को बार बार गोलबंद किया और लोकतंत्र में अपनी स्वीकृति बनायी. उनके राजनीतिक आंदोलनों को समय-समय पर कारपोरेट घरानों का खुला समर्थन मिला.

इरेशनल राजनीतिक ताक़तें नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब से सत्ता में आई हैं उन्होंने संविधान की भूमिका, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक संस्थाओं को एकसिरे से निष्क्रिय बना दिया है. मीडिया की स्वतंत्रता ख़त्म कर दी है. इरेशनलिज्म ने जहां एक ओर सत्ता को तानाशाही की ओर ठेला है वहीं दूसरी ओर मानवता और मानवीय मूल्यों पर खुले हमले किए हैं. इरेशनलिज्म के व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रभावों की कोई चर्चा नहीं मिलती. जो भी चर्चा मिलती है, वह न्यूज़ इवेंट की चर्चा मिलती है.

आरएसएस सृजित और निर्मित इरेशनलिज्म को आधार मिला है परंपरागत इरेशनलिज्म से. मसलन्, पुरानी इरेशनल मान्यता है मंदिर महान हैं ! लेकिन हक़ीक़त यह है मंदिर पुराने ज़माने में भी महान नहीं थे, आज भी महान नहीं हैं. बल्कि रेशनल यह था कि उद्योग को महान बताते, मजदूर को महान बताते, लेकिन मज़दूर की बजाय हमने संत-महंतों को महान बनाया. जबकि संतों-महंतों ने कोई महान कार्य नहीं किया. मानव मुक्ति में उनको कोई निर्णायक भीतिक कभी भी किसी काल में नहीं रही.

मंदिर की महानता के बहाने भगवान को नए सिरे से महान बनाया गया. जिस भगवान को मध्यकाल में हाशिए पर डाला गया, रेनेसां में उसकी विदाई करके मनुष्य को केन्द्र में प्रतिष्ठित किया गया, उसी मनुष्य को भगवान की आड़ में बौना बनाया जा रहा है. मंदिर, मूर्ति और भगवान को परंपरा के बहाने जीवन और राजनीति के केन्द्र में लाने का लक्ष्य है इरेशनलिज्म को प्रतिष्ठित करना, उसके वर्चस्व को स्थापित करना.

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के कवियों ने भगवान से बड़ा भक्त को बनाया. रेनेसां ने भगवान से बड़ा मनुष्य को बनाया लेकिन आरएसएस ने राम-कृष्ण के बहाने भगवान महान है, इसका जयघोष करके इरेशनलिज्म को चरम पर पहुंचा दिया है. इरेशनलिज्म का दूसरा पहलू है कि राम-कृष्ण की विविधता का अस्वीकार. भगवान अजन्मा था, उसके जन्म का पाखंड खड़ा करना, उसे देवत्व से बाहर लाकर राजनीतिक वोट लामबन्दी का औज़ार बनाना. यह भगवान की वह पहचान है जो शास्त्रों में नहीं मिलती. शास्त्रों में जनता की गोलबंदी का आधार भगवान नहीं है. पर्यटन का आधार भगवान नहीं है. उपभोग का आधार भगवान नहीं है.

इरेशनल पैराडाइम को नई बुलंदियों पर पहुंचाया है सरकारी दान-पुण्य, काले धन के दान पुण्य ने. राजनीतिक वफ़ादारी, राजनीतिक आस्था, उपभोग और पर्यटन के नज़रिए ने. इस काम में देशी-विदेशी कारपोरेट घराने, देशी-विदेशी चंचल पूंजी बड़ी मात्रा में संघ की मदद कर रही है. वे मदद इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनको अपना आर्थिक-राजनीतिक साम्राज्य विस्तार करना है. धर्म के इवेंट बढ़े हैं, इससे रेशनल विचारों और संगठनों को समाज में हाशिए पर ठेलने में मदद मिली है.

इरेशनलिज्म का साइड इफ़ेक्ट यह भी है कि आम जनता का शोषण बढ़ता है, गरीब और गरीब होता चला जाता है. ग़रीबी और शोषण के कारणों को जानने की बजाय आम जनता के भाग्य और कर्मों को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है.जबकि ग़रीबी और शोषण के कारणों में सबसे बड़ा कारण है आरएसएस का आर्थिक-राजनीतिक नज़रिया और नीतियां. आरएसएस इनको मंदिर-भगवान-काशी-मथुरा की आड़ में छिपा लेता है. नरेन्द्र मोदी अपने इरेशनलिज्म और जनविरोधी कामों को भी इनकी आड़ में छिपा रहे हैं. मीडिया भी यही काम कर रहा है. इसने जनता में यथार्थ से पलायन, निहित स्वार्थी भावबोध और निष्क्रियता पैदा की है.

असल में इरेशनलिज्म कोई साधारण प्रवृति नहीं है बल्कि यह ठोस आर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिम्बन है. इरेशनलिज्म ने आम जनता के अंदर अपने आमदनी, रोजगार और आय बढ़ाने के रेशनल उपायों पर ही बहस ख़त्म कर दी है. अब आम लोग समस्याओं पर रेशनल नज़रिए से नहीं सोच रहे, बल्कि इंस्टीक्ट (सहजजात भावना), मिथ, तर्क के अस्वीकार के ज़रिए सोचते हैं.

तर्क पर वे उल्टियां करते हैं, भीड में गोलबंद होकर हमले करते हैं. इस मनोदशा के कारण आम जनता में बर्बरता, तानाशाही और साम्राज्यवाद की पक्षधरता का माहौल बनता है. वे इस तरह के तर्क देते हैं ज़िनका भौतिक यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता. समग्रता में मानवता नष्ट हो रही है, इसकी ओर वे छोटे छोटे स्वार्थों के कारण देखते ही नहीं हैं.

इरेशनलिज्म का अन्य प्रभाव यह है कि इतिहास को तार्किक नज़रिए से नहीं देखते बल्कि इरेशनल नज़रिए से देखते हैं. इरेशनिज्म के नए तर्क है इच्छा-शक्ति, सत्ता की इच्छा शक्ति, सहजजात वृत्ति, अनुमान, मिथ, आध्यात्मिक जीवन मूल्य और गहरी सामाजिक निष्क्रियता. वे भौतिकवादी कारणों, तर्क, विज्ञान और प्रगति के मूल्य का निषेध करते हैं. इनका दक्षिणपंथी संगठन या आरएसएस जैसे संगठन जमकर इस्तेमाल करते हैं और अपने मानवता विरोधी, लोकतंत्र विरोधी, विज्ञान विरोधी, समाजवाद विरोधी और द्वंद्ववाद विरोधी नज़रिए का प्रतिपादन करते हैं. इस तरह के संगठन जातिवाद, पुंसवाद और साम्प्रदायिक चेतना का जमकर प्रचार करते हैं.

भारत में इरेशनलिज्म व्यापक स्तर पर पैर फैला चुके हैं. अतः इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करने में, इसके ख़िलाफ़ आम जनता और बुद्धिजीवियों को सचेत करने में अभी लंबा समय लगेगा. अतः यह एक लंबे विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष की मांग करता है.
इरेशनलिज्म के कारण जादुई व्याख्याएं, करिश्माई भाषण और मीडिया-इंटरनेट प्रौपेगैंडा ने एक ऐसी अवस्था पैदा की है जिसमें इच्छा शक्ति और उसके भगवान के साथ संबंध पर खूब ज़ोर दिया जा रहा है. सारे संघी और मोदी इच्छाशक्ति पर खूब ज़ोर दे रहे हैं. वे ज्ञान और तर्क को इच्छाशक्ति के ज़रिए अपदस्थ करने में लगे हैं. उनके हिसाब से इच्छाशक्ति महान है, अनुमान महान है, सत्य जैसी कोई चीज नहीं होती. सत्य न तो नैतिकता में होता है और न हीं वैज्ञानिक भावनाओं में होता है.

इरेशलिज्म ने ठोस भौतिक सामाजिक शक्तियों को अपने इर्दगिर्द एकत्रित करने में सफलता हासिल कर ली है. यह भौतिक जमघट बहुत बड़ी समस्या है. इरेशनिज्म पहले भी था, लेकिन सामाजिक-राजनीतिक जीवन में इरेशनलिज्म के पास इतना व्यापक सामाजिक शक्तियों का समर्थन कभी नहीं था.

इरेशनलिज्म के तहत इच्छा शक्ति और भगवान की इच्छा के पैकेज के साथ जो कैम्पेन चल रहा है उसने आम जनता आध्यात्मिक आत्महत्या के मार्ग पर धकेल दिया है. एक तरफ आध्यात्मिक आत्महत्या और दूसरी ओर रीयल ज़िन्दगी में आत्महत्या, ये दो बड़े विकल्प सामने आए हैं. लोग आत्महत्या कर रहे हैं या फिर आध्यात्मिक आत्महत्या कर रहे हैं. इच्छाशक्ति पर ज़ोर देने के फिनोमिना ने इच्छाशक्ति को भी आत्महत्या के कगार पर धकेल दिया है.

यूरोप में नीत्शे को बीसवीं शताब्दी का इरेशनलिज्म का संस्थापक माना जाता है. उसी तरह आरएसएस और उसके प्रचारकों को भारत में बीसवीं सदी के इरेशनलिज्म का संस्थापक कह सकते हैं. नरेन्द्र मोदी ने उसे राजनीतिक अभिव्यक्ति दी है, जिस तरह नीत्शे के विचारों को हिटलर ने अभिव्यक्ति दी थी. नीत्शे और संघ के नज़रिए में एक साम्य है – दोनों मिथकीय चरित्रों के प्रचार पर ज़ोर देते हैं. उनकी लीलाओं का भद्दा अनुकरण करते हैं. मिथकीय पार्क, मंदिर, मूर्तियां, लीलाएं, ऋषि-मुनि और उनकी मूर्तियां लगाना यह सब भद्दा अनुकरण है. इन सबके ज़रिए इरेशनलिज्म के दार्शनिक राजनीतिक आधार का निर्माण किया गया है.

संघी लोग जब किसी मिथकीय चरित्र का प्रचार करते हैं उसके काल्पनिक उद्गम को खूब उछालते हैं. मसलन् राम-कृष्ण के जन्म, जन्मस्थान को उछालना उनकी काल्पनिकता का नमूना है. जबकि भगवान अजन्मा है. वह किसी स्थान विशेष पर पैदा नहीं हुआ. वह तो सर्वव्यापी है. इसके लिए वे छद्म ऐतिहासिकता और छद्म प्रमाणों का इस्तेमाल करते हैं. उनकी इस छद्म ऐतिहासिक प्रस्तुति से वे कोई नया इतिहास या नई चीज पेश नहीं करते बल्कि अदानी-अम्बानी मार्का लुंपेन कैपिटलिज्म पेश करते हैं.

मोदी बार बार कहते हैं इच्छाशक्ति हो तो नए विचार जन्म लेते हैं. देश की सेवा करने की भावना पैदा होती है. इसी तरह के विचार नीत्शे ने पेश किए थे जिनका हिटलर ने उपयोग किया था. शोषण के सवाल संघ ने कभी नहीं उठाए. धर्म के सवालों को उछालकर वे शोषण के सवालों से ध्यान हटाते रहे हैं. शोषित को शोषित का बोध या ज्ञान देने की बजाय, हिन्दूबोध दिया जो एक तरह से उसकी शोषित की पहचान को छिपाने की कोशिश है. शोषित से उसकी शोषित की पहचान छीनना, एक तरह का अपराध है, उसी तरह शोषित को लाभार्थी कहना अपराध है.

उसी तरह जब मोदी-आरएसएस नागरिक को लाभार्थी कहते हैं तो राजा और प्रजा की केटेगरी में बांटकर पेश करते हैं. वे जब पांच किलो राशन, उज्जवला गैस आदि जीवन की बुनियादी वस्तुओं का ज़िक्र करते हैं नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र की बजाय जीवन और उसकी अनिवार्य जरुरतों पर ध्यान खींचकर नागरिकचेतना और नागरिक अधिकारों से वंचित करते हैं.

वे जनता को आदिम अवस्था में ले जाते हैं जहां सिर्फ़ जीने के लिए खाना, पानी और राशन के अलावा और किसी चीज की जरुरत नहीं होती थी, इसे ही वे इच्छाशक्ति के प्रतीक के रुप में भाषणों में अपने महान कार्य के रुप में पेश करते हैं. जबकि यह तो एक तरह से आदिम अवस्था में ले जाने वाली बात है.

भारतीय समाज बड़े संघर्षों के बाद आदिम अवस्था से निकलकर आधुनिक अवस्था और नागरिक पहचान तक पहुंचा है. इसके पास लोकतंत्र है, लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संविधान है, ये सब चीजें मोदी और संघ के लिए ग़ैर जरुरी हैं. उनका यह नज़रिया नीत्शे और हिटलर के बुनियादी नज़रिए से मिलता है.

समाज के विकास के क्रम में जंग करते हुए मनुष्य ने जाना कि शोध किसे कहते हैं और मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषक क्या होता है. हमारे मन में यह भावना बिठायी जा रही है कि जो ताकतवर है वही तरक़्क़ी करता है. जो ताकतवर नहीं है वह नष्ट होने के लिए अभिशप्त है. अदानी ताकतवर है इसलिए वह तरक़्क़ी कर रहा है. इस क्रम में मनुष्य, श्रम, मजदूर, किसान आदि की इज़्ज़त को पलीता लगाया जा रहा है.

मोदी के यहां सिर्फ़ एक ही पहचान महत्वपूर्ण है वह है लाभार्थी. इसकी आड़ में पहचान के सभी आधुनिक रुपों को धता बता रहे हैं और शोषण के रुपों को छिपा रहे हैं. वे शोषण के रुपों पर बात नहीं करते. वे परिवारवाद, भ्रष्टाचार आदि पर जो बातें करते हैं उसका प्रधान लक्ष्य है शोषण को छिपाना और कारपोरेट लूट पर परदा डालना.

लाभार्थी या हिन्दू की धारणा बुनियादी तौर पर पहचान के आधुनिक रुपों को अस्वीकार करती है, नए पहचान के रुपों के साथ जुड़े अधिकारों से भी वंचित करती है. स्वाधीनता आंदोलन और उसमें विभिन्न राजनीतिक दलों और सामाजिक वर्गों की भूमिका को भी अस्वीकार करती है. संघी और मोदी गैंग ने व्यक्तिकरण और इच्छाशक्ति पर ज़ोर देकर नए क़िस्म की फ़ासिस्ट भाषा पैदा की है.
लाभार्थी की भाषा उसके जीवन जीने के नागरिक अधिकारों को अस्वीकार करती है.

मोदी अपने प्रचार में जिस तरह अध्यात्मवाद का दुरुपयोग कर रहे हैं और मानवीयचेतना को उसकी कसौटी पर परखने की कोशिश कर रहे हैं, उससे अनेक समस्याएं पैदा हुई हैं. पहली समस्या यह कि अध्यात्मवाद या धार्मिक पर्यटन आम जनता की समस्याओं का समाधान नहीं है. उनको खुश करने के चक्कर में शिक्षित और बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका अपने को आध्यात्मिक सिद्ध करने में लगा है.

मोदी और उनके अनुयायी हर चीज को विज्ञान और तर्क से परे ले जाकर देख रहे हैं. उनके शासन में विज्ञान और वैज्ञानिक संस्थाओं को इरेशनल संगठनों और विज्ञान विरोधी संगठनों का आए दिन सामना करना पड़ रहा है. तरह तरह के झूठ बोलने पड़ रहे हैं. वे सामान्य वैज्ञानिक ज्ञान को चुनौती दे रहे हैं. जमीनी स्तर पर अंधविश्वास, जादू टोना टोटका और चमत्कारों का जमकर प्रचार कर रहे हैं और उसे सत्ता का संरक्षण दे रहे हैं. कायदे से सत्ता को इनसे लड़ना चाहिए.

अंधविश्वास किस तरह फैलाया जा रहा है. उसका एक ही नमूना काफ़ी है. इसमें पीएम-सीएम और पूरा सत्तातंत्र, आरएसएस और मीडिया शामिल है. मसलन्, त्रेता नामक युग या समय कभी नहीं था. यह एक काल्पनिक काल विभाजन है. पर, राम जन्मभूमि के साथ उसे नत्थी करके पेस किया गया. आज से हज़ारों साल पहले भवन कला विकसित नहीं हुई थी, वस्त्र इत्यादि भी नहीं थे, मूर्तिकला का भी जन्म नहीं हुआ था, ऐसी अवस्था में त्रेता युग की वापसी या इमेजों को पेस करने का दावा ग़लत और अवैज्ञानिक है.

हम नहीं जानते त्रेता युग में मनुष्य कैसा था ? उसके इर्दगिर्द किस तरह की दुनिया थी ? किस तरह के भगवान थे ? क्या हम आज की आंखों से हज़ारों साल पहले के भारत की कल्पना कर सकते हैं ? पौराणिक आख्यानों को आधार बनाकर तो काल्पनिक संसार ही रचा जा सकता है, उसे वास्तविक कहना ग़लत होगा. राम की संघ और मोदी की अपनी कल्पना है. उसका अतीत की किसी भी कृति से कोई साम्य नहीं है.

उसी तरह अयोध्या का भी अतीत की कृतियों और विज्ञान के साथ कोई साम्य नहीं है. उसी तरह मोदी ने काल्पनिक तौर राम के शत्रु खोज निकाले हैं, जो विपक्षी हैं वे राम के शत्रु हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. राम का कोई शत्रु नहीं था. वे रचनाकार की कल्पना की सृष्टि हैं, उसी तरह विभिन्न देवी-देवता भी मनुष्य की कल्पना की सृष्टि हैं. कल्पना की सृष्टि को वास्तविकता कहना स्वयं में समस्यामूलक है. शास्त्रों में ईश्वर को वास्तविक नहीं माना गया है. वह वर्णन, जन्म, मरण, मृत्यु से परे है. वह अजर, अमर, अबद्ध और अजन्मा है. क्योंकि वह तो मनुष्य की सृष्टि है. ऋषियों की सृष्टि है.

मोदी, उनके भक्त, संघी यह मानते हैं कि मोदी जब सत्ता में आए भारत में तब लोकतंत्र आया. भारत आज़ाद हुआ. यह धारणा मोदी मीडिया सैल ने खूब प्रचारित की है. मोदी अपने भाषणों में पश्चिमी संस्कृति या आधुनिक संस्कृति का कभी महिमामंडन नहीं करते बल्कि हिन्दू संस्कृति का महिमामंडन करते हैं. वे जिसे हिन्दू संस्कृति या आध्यात्मिक संस्कृति कहते हैं उसका भारत की संस्कृति और उसकी विविधता से कोई संबंध नहीं है. वे जिस संस्कृति की बातें करते हैं वह शुद्ध संघी संस्कृति है. जो अध्यात्म, मंदिर, तीर्थ स्थान के पर्यटन पैकेज के रुप में आती है. यह एक तरह से पर्यटन प्रमोशन की स्कीम है. ट्रेवल एजेंट की स्कीम है. यह स्कीम भेदभाव और धार्मिक ध्रुवीकरण पर टिकी है.

मोदी का इरेशनलिज्म पूरी तरह बहुराष्ट्रीय पूंजी और कारपोरेट पूंजी के अबाधित निवेश के साथ गहरे जुड़ा है. यह निवेश जिस गति से बढ़ा है देश में इरेशनलिज्म उतनी तेज़ गति से बढ़ा है. कांग्रेस ने इस पहलू की उपेक्षा की है और उस उपेक्षा का सबसे अधिक नुकसान जनता और उसे ही उठाना पड़ा है. इस पूंजी निवेश ने ही इरेशनल संवेदनाओं का तेज़ी से विकास किया है.

भारत में इरेशनल संवेदनाओं के विकास का पहला चरण सन् 1966-67 से आरंभ होता है. दूसरा चरण सन् 1971 से आरंभ होता है, तीसरा सन् 1990-91 आरंभ होता है. संयोग की बात है कि इरेशनलिज्म पर देश में कभी क़ायदे से बहस ही नहीं हुई. हम इसे लगातार किसी न किसी बहाने टालते रहे हैं. इरेशनलिज्म को सिर्फ़ कुछ विज्ञान संगठन अपने तरीक़े से चुनौती देते रहे हैं लेकिन उनकी चुनौती से कोई बड़ा व्यापक सामाजिक असर नहीं पड़ा.

कहने को नेहरु ने विज्ञान सम्मत चेतना की बात कही थी लेकिन अंधविश्वास, धार्मिक पूर्वाग्रहों और कु-संस्कारों के ख़िलाफ़ कोई संगत सत्ता नियंत्रित अभियान नहीं चलाया गया जबकि मोदी के सत्ता में आने पर, भाजपा के राज्य सरकारों द्वारा अंधविश्वास और कुसंस्कारों को जमकर सत्ता का समर्थन दिया गया. खुलकर पीएम, सीएम, मंत्री, सांसद आदि इसके पक्ष में उतरे और मीडिया ने संगठित प्रचार किया.

मुश्किल यह है भारत में सरकार इनके पक्ष में है वहीं अमेरिकी मीडिया और सीआईए भी इनके पक्ष में है. अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की इस लोकल-ग्लोबल युगलबंदी को कैसे तोड़ा जाए, यह सबसे बड़ी चुनौती है. यह युगलबंदी धर्म, उद्योग और अंधविश्वास उद्योग के रुप में काम कर रही है.

इरेशनिज्म की विशेषता है कि वह नकारात्मकता और निहित स्वार्थ पर ज़ोर देती है. व्यक्ति की इच्छाशक्ति और सत्ता की इच्छा शक्ति पर मुख्य रुप से ज़ोर है. इस क्रम में यथार्थ और उसकी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया को वे अस्वीकार करते हैं. व्यक्ति की भावनाओं और विचारों का ऐतिहासिक संदर्भ और वर्तमान समय के संदर्भ से काटकर पेश करने की इसमें आदत है. साथ में भावनाओं को उन्माद में रुपान्तरित करना. उन्माद में रुपान्तरित करने का लक्ष्य यह है कि आम लोगों को शोषण के सवालों से विमुख बनाना, यथार्थ विच्छिन्न करना.

उन्माद का उत्पादन, वितरण और शोषण विमुखता इसकी धुरी है. मीडिया जिस अमूर्त यथार्थ को पेश करता है, उसको ही इरेशनल जनता यथार्थ मानती है. उन्मादी समूह अब सिर्फ़ इच्छाओं का उत्पादन-पुनर्रुत्पादन करते हैं, उनके विमर्श संवाद से यथार्थ ग़ायब है सिर्फ़ इच्छाएं शामिल हैं. वे सामाजिक संबंधों और सामाजिक यथार्थ से विच्छिन्न करके इच्छाओं का प्रचार करते रहते हैं. इसी तरह की इच्छा है विश्वगुरु बनने की अर्थव्यवस्था में ताकतवर बनने की.

इच्छाओं को ग़ैर यथार्थ रुप में जगाना, सबसे ख़तरनाक खेल है. यह प्रतिक्रियावादी इरेशनलिज्म का द्योतक है. इसमें कथनी और करनी में अंतर है. सवाल यह है इरेशनलिज्म को लागू करने के पीछे मंशा क्या हैं ? लक्ष्य क्या हैं ? क्या वही मंशा और लक्ष्य हैं जैसा प्रचारित किया जा रहा है ? या उससे भिन्न कोई लक्ष्य हैं ? वे नया भारत बनाना चाहते हैं ? क्यों बनाना चाहते हैं ? इसके पीछे मंशा क्या है ? क्या इसके पीछे लोकतांत्रिक भारत नष्ट करने की मंशा काम कर रही है ? क्या अहंकार के आधार पर नया भारत बन सकता है ? क्या तानाशाही के आधार पर नया भारत बन सकता है ? ये सवाल हैं जिनके उत्तर इरेशनल चिन्तकों, संघियों और मोदी के पास नहीं हैं.

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