हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
मोबाइल या लैपटॉप के कुछ बटन टीपिये, पलक झपकते लाखों करोड़ों रुपये इधर से उधर. तकनीक में आई इस क्रांति ने अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयां दी तो वित्तीय शक्तियों और राजनीति के अनैतिक गठजोड़ ने इसी क्रांति के गहरे अंधेरों में नई रहस्यमयी दुनिया का सृजन भी किया.
अब तो ऐसा है कि न जाने कितनी कंपनियां लैपटॉप में ही जन्म लेती हैं, करोड़ों, अरबों का वारा-न्यारा करती हैं और फिर लैपटॉप में ही खत्म हो जाती हैं. गीता में वर्णित आत्मा की तरह पूंजी किसी नई कंपनी के रूप में पुनर्जन्म ले लेती है. कंपनी, अब के दौर में इसका अर्थ व्यापक हो गया है.
पहले के जमाने में, जिसे औद्योगिक दौर कहा जाता था, कंपनी का मतलब था कोई भौतिक ढांचा, जिसमें लोग काम करते थे, रोजी रोजगार पाते थे. लोगबाग उस कंपनी को जानते थे. वह जन्म लेती थी तो कितने घर रोशन होते थे, मरती थी तो कितने घरों में अंधेरा छा जाता था.
अब उत्तर औद्योगिक दौर है. विश्लेषक कहते हैं कि यह ‘फाइनांसियलाइजेशन’ का दौर है. वित्त का असीमित और अबाध प्रवाह है. सत्ता और कार्पोरेट की जुगलबंदी हो जाए तो वित्त का यह प्रवाह कानून की आंखों में धूल झोंकते पल भर में जाने कहां से कहां तक की यात्रा कर लेता है.
अब ऐसी कंपनियां भी हैं जो नजर ही नहीं आती, लेकिन हैं. वे हैं और अरबों की पूंजी के साथ हैं लेकिन न वे देश के लिए हैं, न मानवता के लिए हैं. वित्तीय शक्तियां अपने छद्म के साथ नए रूप में सामने आई हैं – अलग स्वभाव, अलग चरित्र के साथ.
अब के दौर में पूंजी का एक बड़ा हिस्सा बांझ है. वह रोजगार पैदा नहीं करती. वह किसी कंपनी का रूप लेती है लेकिन किसी को रोजगार नहीं देती. उसका होना रहस्य को जन्म देता है, उसका मरना अगले रहस्य की ओर ले जाता है.
बटन की टीप पर जन्म लेने वाली कंपनियों में पूंजी का यह रहस्यमय प्रवाह न जाने कितने गोरखधंधों की राह आसान करता है. ऐसी ऐसी कंपनियां, जिनमें पूंजी तो हजारों करोड़ है, लेकिन कर्मचारी एक भी नहीं. ऐसी अधिकतर कंपनियां अक्सर किसी फ्रॉड अरबपति की उंगलियों पर चलती हैं, नाचती हैं और फिर खत्म कर दी जाती हैं.
टैक्स की चोरी और अवैध पूंजी को वैध का कुर्ता पहनाने में ऐसी कंपनियां बहुत काम आती हैं. कई बड़े कार्पोरेट घराने ऐसी कंपनियों का खेल खेलते हैं और संस्थाओं की आंखों में धूल झोंक कर, या उन्हें बेबस करके जनता के पैसों की लूट करते हैं.
टीवी पर एक किसान नेता एक हाथ में आलू और दूसरे हाथ में किसी ब्रांडेड चिप्स का रैपर लिए बोल रहे थे, ‘हमसे चार रुपये किलो आलू खरीद कर कंपनियां उसके कई गुने दाम पर मुनाफा कमाती हैं.’
बड़ी आबादी की आहों को समेटते इस मुनाफे का अर्थशास्त्र कोई जटिल मामला नहीं है. सब समझते हैं लेकिन जैसे किसी जकड़बंदी में यह सभ्यता बेबस सी नजर आ रही है.
अब अधिक आश्चर्य नहीं होता जब मुनाफे के इस क्रूर खेल के खिलाफ किसी आंदोलन को पेंशन भोगी रिटायर अंकलों से लेकर सामान्य शहरी कामकाजी वर्ग भी संदेह की नजरों से देखने लगता है. उनका माइंडसेट ही ऐसा बन गया है.
सारे आलम को आंदोलन विरोधी, बौद्धिक विमर्श विरोधी बना देने की साजिशों का पहला शिकार भारत की गोबरपट्टी का मिडिल क्लास है, दूसरा शिकार रील्स में डूबा हाशिए के तबकों का बेरोजगार युवा वर्ग है. ये मिल कर सुनिश्चित करते हैं कि कार्पोरेट और राजनीति की जुगलबंदी से अमानवीय बनते जा रहे सिस्टम के खिलाफ कोई आंदोलन जोर न पकड़े. इधर, लोगों तक सही सूचनाएं न पहुंचने देने के लिए कृत संकल्पित मीडिया फालतू किस्म के नित नए विमर्शों को जन्म देता रहता है.
चंद बटनों पर उंगलियों के स्पर्श से जन्म लेने वाली और तिरोहित होने वाली कंपनियों से सिर्फ अरबों की टैक्स चोरी ही नहीं होती, वैध को अवैध और अवैध को वैध बनाने का खुला खेल ही नहीं होता, ये कंपनियां राजनीतिक दलों को करोड़ों का चंदा भी देती हैं. अब तो आरोप लग रहे हैं कि गोरखधंधा बदस्तूर चलता रहे, इसके लिए भी इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से हजारों करोड़ इधर उधर किए गए.
ऊपर के लेवल पर वित्त का यह तीव्र और सघन प्रवाह नीचे के लेवल पर घोर शोषण और ठगी से ऊर्जा प्राप्त करता है. अब शोषण ही पर्याप्त शब्द नहीं है. यह शब्द औद्योगिक दौर में केंद्र में था. उत्तर औद्योगिक दौर में तो शोषण के साथ ठगी भी अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में आ चुकी है. यह संगठित ठगी का दौर है.
किसी देश की विकास दर का अधिकतम हिस्सा कुछ खास मुट्ठियों में कैद हो जाए तो यह सिर्फ शोषण से संभव नहीं, इसके लिए ठगी की भी जरूरत है. तकनीकी क्रांति और तीव्र वित्तीय प्रवाह ने इस ठगी को बेहद आसान बना दिया है.
पूंजी और राजनीति की जुगलबंदी अगर नापाक होने पर उतारू हो जाए तो शोषण और ठगी, दोनों अर्थव्यवस्था के केंद्रीय कारक बन ही जाएंगे. तभी तो, इस देश के किसान, श्रमिक से लेकर बेरोजगार युवाओं के साथ ठगी इस दौर की एक मुख्य प्रवृत्ति बन गई है. और, खुद को सयाना समझ रहा मिडिल क्लास भी इस शोषण और ठगी का कितना बड़ा शिकार है, यह आंखें और दिमाग खोलते ही समझ में आने लगता है. तभी तो, आंखों पर पर्दा और दिमाग पर कब्जा करने का खेल सांस्थानिक रूप अख्तियार कर चुका है.
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