करंज के पेड़ों से लटके हुए शव हैं
या अज्ञातवास में जीते
पांडवों के हथियार
पौरुष जब परिस्थितियों का
स्वैच्छिक ग़ुलाम हो तो
तय करेगा कौन
मेरे साए में समाते हुए
तुम्हारे साए ने कई बार कहा मुझसे
बहुत रात हो चुकी है
सो जाओ
बिस्तर
मुझे चुंबक की तरह खींचता है
और लिखने की मेज़
किसी विग्रह की तरह
विच्छेद से संधि तक पहुंचने का रास्ता
यक्ष गर्भा झील से होकर गुजरता है
जहां धर्मराज को देना पड़ता है
सत्य की परीक्षा
अपने मृत सहोदरों की ख़ातिर
बहुत पुरानी बात छेड़ दी तुमने
नया कुछ नहीं है तुम्हारे पास कहने के लिए
कुछ नया
जैसे शरीर से शरीर को प्रेम करते हुए
मृतात्माओं से संवाद की बात करना
तुम्हें अहेतुक चौंकाना
ये किसी बच्चे का पीछे से आ कर
पीठ पर धौल जमाते हुए
धप्पा कह कर ठठा कर हंसने जैसा नहीं है
कीकर के पेड़ों के बदन पर कांटे हैं
और बबूल के सीने में दूध
एक छंटाक रोशनी में
सब्ज़ी छौंकती हुई औरत की
थकी हुई आंखों में
बिस्तर का ख़्वाब है
और अगली सुबह की चाहत
बीच में बस एक जिस्म है
समुद्र में डूब कर सिक्के चुनने वालों की बस्ती है
और
रात के तीसरे पहर में
गुमशुदा चाहतों के सुनसान किनारे हैं
थका हुआ समंदर है
थके हुए रात के परिंदे हैं
और तुम्हारे सर्द हाथों में
मेरी बर्फीले हाथ हैं
गर्म जिस्म के पोस्टमार्टम किए हुए
सदियाँ बीत गईं हैं
अब सिर्फ़ बर्फ़ में लिपटे हुए
सदियों पुराने जिस्म हैं
मेरे हाथ सर्द पड़ चुके हैं अदिति
बर्फ़ हुए समंदर में
गौहर ढूंढते हुए
सो जाओ
समय रहते कहा था तुमने…
- सुब्रतो चटर्जी
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