मयंक सक्सेना को मैं नहीं जानता था और न ही कभी मिला. फेसबुक पर पन्ने पलटते हुए अचानक मयंक की मृत्यु का सूचना देता एक पोस्ट सामने आ गया. युवा चेहरा और मौत ! मैं तुरंत उनके पेज पर गया और वहां मैंने मयंक का लिखा एक लेख देखा. 25 मई को पोस्ट किये गये इस लेख में ‘2 अरब पैर और दो अरब हाथ’ का जिक्र जिस आवेग के साथ किया गया था, वह देखकर मैं दंग रह गया.
तत्क्षण मैंने अपने एक मित्र रविन्द्र पटवाल को फोन लगाया. हालांकि मैं कभी रविन्द्र पटवाल से भी नहीं मिला लेकिन वैचारिक नजदीकी ने कभी भी एहसास नहीं होने दिया कि हम कभी नहीं मिले. सदैव लगता है, वे साथ ही हैं. रविन्द्र पटवाल ने भी मयंक के मृत्यु की सूचना को कंफर्म किया और उनके बारे में कई चीज बताया. बाद में उन्होंने भी अपने फेसबुक पेज पर मयंक के साथ साथ एक अन्य संघर्षशील साथी की असामयिक मृत्यु पर लिखा.
रविन्द्र पटवाल ने फोन फर बातचीत के दौरान संघर्षशील साथियों की एक कमजोरी की ओर ध्यान आकर्षित किया. मुझे लगता है उनके द्वारा उक्त कमजोरी से लगभग तमाम साथी पीड़ित हैं. उन्होंने बताया कि अन्य साथियों की भांति ही मयंक भी कभी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देते थे. काम में जुटते तो दिन-रात एक कर देते, खानपान का भी ध्यान नहीं रखते. जिस कारण मयंक अपनी अस्थमा जैसी बीमारी का शिकार होकर विदा हो गये.
मैं समझता हूं कि एक रंगकर्मी, पत्रकार मयंक की असामयिक मृत्यु देश में चल रहे फासीवाद विरोधी मोर्चे को भारी क्षति है. यहां हम रविन्द्र पटवाल के उस पोस्ट को प्रस्तुत कर रहे हैं और उसके बाद मयंक के उस आलेख को भी प्रस्तुत करेंगे, जो उनका अंतिम लेख बन गया. रविन्द्र पटवाल लिखते हैं –
‘जिंदगी लंबी नहीं, भरपूर होनी चाहिए बाबू मोशाय.’ ऐसा ही कुछ एक फिल्म के डायलाग में कहा गया था. कल एक साथ दो अजीज लोगों की असमय मृत्यु की खबर ने मेरे सन्नाटे को गहरा कर दिया. फेसबुक में एक मृत्यु पर लगभग सभी मित्रों की पोस्ट को देखता रहा. मयंक को लेकर देर रात पटना से भी एक मित्र का फोन आया, क्योंकि उन्होंने अब उनके काम और कवि लेखक स्वरुप को देखा और वाह-वाह कर उठे.
दूसरी मौत आत्महत्या थी, एक 26 वर्षीय युवा की. वो भी एक बेहद घनिष्ठ मित्र के बेटे की, जो बेटी की शादी के बाद उनके घर का इकलौता चश्मोचिराग था. रात बेहद संक्षिप्त बातचीत से इतना ही समझ आया कि अवसाद की यह स्थिति पिछले 6-7 वर्षों से जारी थी और आवश्यक उपचार भी किया जा रहा था.
मयंक के बारे में इतना ही कह सकता हूं कि पिछले 8-9 साल से जानना शुरू किया था, और उसका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि बरबस अपना ध्यान आकर्षित कर लेता था. हर काम में टांग घुसेड़ना और पहल लेना शायद कुछ लोगों की नैसर्गिक प्रतिभा होती है. लेकिन उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि में उसे मानता हूं जो बेहद कम लोगों को पता होगी. यह बात मैंने फोन (मैं कभी शायद व्यक्तिगत तौर पर नहीं मिला), पर उससे शुरू में ही एक लंबी बातचीत में जानी थी.
वह था महाराष्ट्र के किसी दूर-दराज के गांव में कुछ वर्ष पहले जल-प्रबंधन में देशी और नई तकनीक के सम्मिश्रण की, जिसमें अथक परिश्रम के बाद जल स्रोत फिर से लहलहा उठा था. हममें से बहुत से लोग बहुत कुछ करने की होड़ में खुद एक पोस्टर बन जाते हैं. बदल कुछ नहीं पाते, क्योंकि बदलाव लाने वाले लोग तो या तो तलछट पर होते हैं या जिनके हाथ में राज्य सत्ता होती है. जमीनी स्तर पर बदलावकारी शक्तियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर यदि अपनी सोच को उनके साथ घुलामिला दिया जाये तो बहुत कुछ बदलाव संभव है. मयंक ने दोनों काम किये, और उनका स्वाद चखा. यही अपने आप में बहुत बड़ी निजी सफलता है.
इन दोनों वाकयों से हम अपने-अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं. जिंदगी छोटी ही सही लेकिन भरीपूरी होनी चाहिए. दूसरा- दुनिया में संघर्ष हमेशा हमेशा रहने वाला है. एक लंबी लड़ाई के लिए मोर्चेबंदी को भी मजबूत रखना होगा और एक योद्धा के तौर पर खुद के शरीर बुद्धि और भावनात्मक बल को भी लगातार अजेय बनाने पर काम करना होगा.
हम तात्कालिक लड़ाई में इतना उलझ जाते हैं कि असल मकसद को ओझल कर जाते हैं. परिस्थितियां अक्सर हमारी जिंदगी को दिशा देने लगती हैं. लाइफस्टाइल बीमारियों के हम अब लगातार शिकार होते जा रहे हैं, जो इस सिस्टम की वजह से हमें खत्म करने पर आमादा हैं. इन सभी मोर्चों पर बराबर दृष्टि रखकर हमें लड़ाई जारी रखनी होगी.
सिर्फ यह नहीं कि क्रोनी पूंजी ने कैसे एक अल्पमत सरकार को भी इतना आडम्बरयुक्त बलशाली बना डाला है कि वह आज भी अकड़ में ऐंठ रहा है, बल्कि उसे इसलिए भी घेरने की जरूरत है कि उसने अपने मुनाफे के लिए आपके पहाड़, नदी, पेड़, हवा, भोजन, सोच, रील्स हर उस चीज को इतना विषाक्त बना डाला है कि पहले तो आप सकारात्मक उर्जा ही हासिल नहीं कर सकते. और अगर मयंक जैसे बन भी गए तो आपके लिए ऐसी स्वास्थ्य परिस्थितियां पैदा कर चुके हैं कि यदि आपने अपना ध्यान खुद नहीं रखा तो असमय मौत के मुंह में चले जाने के लिए बाध्य हैं.
यह वह क्षेत्र है, जिसे आम तौर पर वह इंसान भी कुबूल करेगा जो विचारधारात्मक स्तर पर अभी भी शासक वर्ग की सोच से इत्तिफाक रखता है. लेकिन यही व्यक्ति हृदय रोग, कैंसर और डायबिटीज जैसे लाइफस्टाइल रोगों से तिल तिल कर या तो मर रहा है या अब तक कमाई जमापूंजी को इन्हीं के हाथों लुटाता है तो उसे बेहद तकलीफ, गुस्सा और परिवर्तन की कसक उठती है. सोचिये, बहुत काम अभी बाकी है. सम्यक नाम ने मुझे हमेशा आकर्षित किया. अलविदा, सम्यक और मयंक.
मयंक सक्सेना का आखिरी लेख
हम दो अरब हाथ और दो अरब पैर हैं…
लड़ेंगे और जीतेंगे !*
लोकतंत्र के चार खंभे भले ही कुछ भी हों, लोकतंत्र के उसके अलावा 2 अरब पैर हैं…जिन पर वो खड़ा है, चलता है, दौड़ता है या फिर घुटनों पर झुक जाता है…लोकतंत्र के चार खंभे भले ही कुछ भी हों, लोकतंत्र के उसके अलावा 2 अरब हाथ हैं, जिनसे वो साथ पाता है, ताकत पाता है, मुश्किल में थामता है, मुट्ठियां तानता है…वो दो अरब हाथ और पैर हम हैं, हम वो नागरिक – जो अभी भी नागरिक बने हुए हैं और बने रहना चाहते हैं…
हम जो अभी भी मनुष्य बचे हैं और शैतान नहीं बने…, हम जो किसी की हत्या, किसी पर हिंसा, किसी के ऊपर ज़ुल्म पर खुश नहीं हो पाते हैं…, हम जो शांति चाहते हैं लेकिन यथास्थिति से उपजी शांति नहीं – सौहार्द, संतुष्टि, खुशी, संपन्नता, सपनों की सफलता और सामाजिक-निजी उपलब्धियों से उपजी शांति – जिसे हम सुख-शांति कहते हैं…
हम जो संविधान से उपजे नागरिक हैं, संविधान जो हमको सेक्युलर, समाजवादी, समतामूलक, स्वतंत्र, साहसी समाज बनाने की प्रस्तावना सुनाता है…जो हमने ही उसे आत्मार्पित, अधिनियमित और अंगीकृत की…, हम जो सवाल करते हैं और उनके जवाब मिले बिना – उनसे संतुष्ट हुए बिना किसी पर यक़ीन नहीं करते – वो परिवार हो, धर्म हो, समाज हो, सिस्टम हो या सरकार…
हम जो गेंहू चाहते हैं पर साथ में गुलाब भी चाहते हैं..यानी कि रोटी पर सम्मान के साथ…फेंकी हुई नहीं, ख़ैरात में मिली नहीं और भूख से कम मिली तो बिल्कुल भी नहीं…हम जो अपने बच्चों के लिए विश्वस्तरीय सरकारी शिक्षा का सिस्टम चाहते हैं…हम जो सरकारी अस्पतालों में विश्वस्तरीय इलाज चाहते हैं..हम जो चाहते हैं कि नागरिक ही देश का मालिक हो, वो भी सामूहिक रूप से…कोई एक व्यक्ति नहीं, कोई एक समुदाय नहीं…
हम जो न अपनी इच्छा किसी पर थोपते हैं, न ही किसी को ये इजाज़त देना चाहते हैं…हम जो अपराध का ख़ात्मा चाहते हैंं लेकिन हिंसा और दमन से नहीं – कल्याणकारी राज्य बनाकर…हम जो धर्म, जाति या आर्थिक स्तर के आधार पर किसी को भी उसके अपराध और हिंसा से बरी नहीं कर सकते…ये लोकतंत्र हमारे 2 अरब हाथों और पैरों पर खड़ा होता है, अड़ा होता है और ज़िंदा रहता है…
अब हम 2 अरब हाथों और पैरों को चुनौती दी जा रही है कि दम है तो इस लोकतंत्र को बचाकर दिखाओ…हमको बांधने और कसने की कोशिश हो रही है…हमारे घुटने तोड़ने की साज़िश हो रही है…हमारे ही हाथों को एक-दूसरे के गलों पर कसने की साज़िश हो रही है…तो अब हम क्या करेंगे ?
याद रखिए इस चुनाव में जन विरोधी तानाशाही सत्ता के लालची और उद्योगपतियों के दलाल – सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं…वो चुनाव में चुनाव आयोग और बाकी सरकारी एजेंसियों के ज़रिए सारी बेईमानी कर रहे हैं और करेंगे…हम जो अभी देख रहे हैं, वो कुछ नहीं है…चुनाव का अंत आते-आते ये उस चरम पर पहुंचेगा, जो आपने सोचा हो या न सोचा हो – भयानक होगा, शर्मनाक होगा और हो सकता है आपको-आपकी अगली पीढ़ी को गुलामी-शोषण-लूट-दमन के जाल में दशकों तक जकड़ दे…
इन चुनावों में आप नरेंद्र मोदी, अमित शाह या भाजपा के ख़िलाफ़ नहीं लड़ रहे हैं – आप चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ भी लड़ रहे हैं…आपको देश बचाना है तो इन चुनावों में सिर्फ मोदी-शाह को नहीं, केंद्रीय चुनाव आयोग को भी हराना होगा…चुनाव 4 जून को शायद ख़त्म न हों…हो सकता है हमको एक नई लड़ाई लड़नी हो…हो सकता है कि हम में से कई बोलने वाले, जेलों में भर दिए जाएं..डरा दिए जाएं…या हमारी छवि की हत्या की जाए…
तब भी ये भरोसा रहना चाहिए कि ये 2 अरब हाथ और पैर हैं…दो या चार या चार सौ काट कर मोदी-शाह ये भ्रम न पालें कि वो जीत जाएंगे…क्या आप इस लड़ाई के लिए तैयार हैं ? ज़ोर से बोलिए, अपनी दो अरब मुट्ठियां तान कर और दो अरब पैरों को ज़मीन पर जमा कर…लड़ेंगे-जीतेंगे…!!
*इस लेख का शीर्षक हमारा दिया हुआ है. मयंक ने कोई शीर्षक नहीं दिया था.
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