हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
एक आर्थिक विशेषज्ञ बता रहे थे कि पिछले दस साल में कॉरर्पोरेट घरानों द्वारा लिए गए तेरह लाख करोड़ रुपयों के बैंक लोन ‘बैड लोन’ घोषित हो गए और उन्हें माफ कर दिया गया. तेरह लाख करोड़ रुपये ! जनता का पैसा. हमारे कलेजे को खुरच खुरच कर विभिन्न तरह के टैक्स के रूप में वसूला गया पैसा, महज दस साल में महज कुछ घरानों ने तेरह लाख करोड़ रुपयों को खा पचा लिया ! उसके पहले का हिसाब अलग होगा.
दूसरे विशेषज्ञ बता रहे थे कि पिछले एक साल में एक सौ पच्चीस अरबपतियों ने भारतीय बैंकों से लोन लेकर भारत छोड़ दिया. इनमें जिनका लोन सबसे कम था वह एक सौ करोड़ रुपयों का था.
चूंकि इस तरह की खबरों को प्रकाशित, प्रसारित करने में मीडिया की कोई रुचि नहीं होती इसलिए लोगों को इस खुली और निर्लज्ज लूट का कुछ पता नहीं चलता. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया जानबूझ कर ऐसी खबरों को छुपाता है और लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए या उन्हें भुलावे में रखने के लिए दूसरी तरह की खबरों को भरपूर स्पेस देता है, जिन्हें देख सुन कर हमें मन तो लगता है लेकिन जिनका हमारे जीवन से कोई मतलब नहीं.
नौकरी करने वाले और इनकम टैक्स देने वाले पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि पिछले दस वर्षों में आय कर की दरें आनुपातिक रूप से उच्चतम स्तरों पर जा पहुंची हैं. टैक्स वसूल करने में आयकर विभाग की सख्ती भी पिछले दशक के मुकाबले इस दशक में बढ़ी है.
यानी, लाखों करोड़ रुपये डकार जाने वाले शक्तिशाली कॉरर्पोरेट से वसूली में सरकार का दम फूल जाता है और वे पब्लिक मनी की लूट मचा कर सुरक्षित निकल जा रहे हैं लेकिन मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोगों के लोन की किस्तें वसूलने में बैंकों की तत्परता देखते ही बनती है.
होम लोन या किसी तरह के कंज्यूमर लोन या फिर पर्सनल लोन लेने के बाद कोई आम आदमी एक पैसे की भी हेराफेरी नहीं कर सकता. उन्हें लोन देने वाले बैंक मूल और ब्याज के एक एक पाई का हिसाब रखते हैं. बिना किसी नियमित आय वाले निम्न आर्थिक वर्ग के लोगों को तो बैंक लोन देते ही नहीं.
तो, हम जो अक्सर पढ़ते सुनते हैं कि भारतीय बैंकों की माली हालत अच्छी नहीं है उसके पीछे के मूल कारण हम नहीं, हमारे दौर के बड़े लोग हैं. ऐसे बड़े लोग, जिनके हाथों में सत्ता की डोर होती है और बड़े नौकरशाह जिनके प्यादे बन कर खुद को धन्य महसूस करते हैं. वे हमारे सार्वजनिक संसाधनों पर लगातार कब्जा करते जा रहे हैं. यह तो अलग और बेहद विस्तृत अध्याय है. इसे ही कहते हैं कॉरर्पोरेट राज, जो नवउदारवादी आर्थिकी की स्वाभाविक परिणति है.
हमें यह समझा दिया गया है कि इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं और बाकी तमाम वैचारिकताएं किताबों और संगोष्ठियों की सीमाओं में सीमित हो कर रह गई हैं.
इधर एक खबर चर्चा में रही कि टाटा की कुल आमदनी पाकिस्तान की कुल आमदनी से अधिक हो गई है. पता नहीं, अंबानी या अडानी की आमदनी के आगे पाकिस्तान की क्या बिसात रह गई होगी. हम खुश हैं कि हमारा एक उद्योगपति इतना कमा रहा है, जितना पूरा पाकिस्तान नहीं कमा पा रहा. महज कुछ साल में देखते ही देखते हमारे देश का कोई कॉरर्पोरेट घराना दुनिया का दूसरा या तीसरा सबसे धनी घराना बन गया.
किसी मैनेजमेंट संस्थान में या किसी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में इस पर गहन शोध नहीं हो रहा कि आखिर वे कौन से कारण और कौन सी परिस्थितियां रहीं जो किसी नामालूम से कंपनी मालिक को दुनिया के सर्वाधिक धनी लोगों की लिस्ट में शीर्ष पर ले आने के लिए जिम्मेवार हैं, वह भी महज कुछ वर्षों के अंतराल में. शोध होने चाहिए इस पर.
बड़े ही जोर शोर से हमें बताया जाता है कि नई शिक्षा नीति में शोध को बढ़ावा देने पर खास ध्यान है. तो, अर्थशास्त्र या वाणिज्य या प्रबंधन के क्षेत्र में शोध करने-करवाने वालों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता कि कोई एक कॉरर्पोरेट घराना कैसे इतने अल्प समय में इतनी वृद्धि दर हासिल कर लेता है कि वह देश का सबसे धनी आदमी बन जाता है ?
शोध इस पर भी होने चाहिए कि बीते एक दशक में हमारे देश में जो अरबपतियों की इतनी संख्या बढ़ी है उनके इस चमत्कारिक आर्थिक उत्थान के मूल में कौन से कारक उत्तरदायी हैं ? ऐसे शोध आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखा सकते हैं, उनकी प्रेरणा बन सकते हैं. लेकिन, यह शोध नहीं होगा, कदापि नहीं होगा.
अगर कोई रिसर्च की ठान ही ले तो उसका क्या हाल होगा यह सब जानते हैं. क्योंकि, ऐसे रिसर्च के निष्कर्ष हमारे देश की आर्थिकी में व्याप्त अराजकताओं को एक्सपोज कर देंगे, राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों के जनविरोधी और कॉर्पोरेट परस्त चरित्र को उजागर कर देंगे. नई आर्थिकी किसी सिद्धांत से संचालित नहीं, सिद्धांतहीनता की धुरी पर टिकी है और शोषण के साथ ही सत्ता संरक्षित लूट इसके मुख्य अवयव हैं.
वस्तुओं के उत्पादन से लेकर उनके खुदरा व्यापार तक पर अगर कुछ शक्तियों का ही नियंत्रण हो जाए तो पूंजी का संकेंद्रण स्वाभाविक है. हमारे देश में इस संकेंद्रण की गति दुनिया में सर्वाधिक है और बीते एक दशक में इस गति में हैरतअंगेज वृद्धि दर्ज की गई है. तभी तो, देश की आर्थिक विकास दर बढ़ती है लेकिन रोजगार के अवसर उस अनुपात में नहीं बढ़ते. विशेषज्ञ इसे ‘जॉबलेस ग्रोथ’ की संज्ञा देते हैं.
जॉबलेस ग्रोथ की यह बंजर व्यवस्था अर्थशास्त्र की बारीकी का विषय नहीं, राजनीति शास्त्र के अंतर्विरोधों का निष्कर्ष है. जिस राजनीति में छद्म मुद्दों को मुख्यधारा में ला कर मतदाताओं को भ्रमित करना ही मुख्य उद्देश्य बन जाए वह रोजगार और सामूहिक आर्थिक विकास के संदर्भ में बंजर ही साबित होगी. साबित हो भी रही है.
विशेषज्ञ बता रहे हैं कि आज जो बेरोजगारी की दर है वह बीते पचास वर्षों में सबसे अधिक है. यह उस सरकार के दौर में है जिसके प्रवक्ता बीते सत्तर साल को कोसते नहीं थकते.
बीते दस साल में देश की आर्थिकी की दशा और दिशा पर शोध होने चाहिए, इस दौरान उभरने वाले कॉर्पोरेट घरानों के अकल्पनीय उत्थान के राजनीतिक निहितार्थों पर शोध होने चाहिए, भारतीय बैंकों की दुर्दशा पर अध्ययन होने चाहिए जिन्होंने अपनी खस्ता आर्थिक हालत का हवाला दे कर नई नियुक्तियों को अधिकतम हतोत्साहित किया है, बीते दस साल में रेलवे सहित तमाम सार्वजनिक उपक्रमों की दशा दिशा पर व्यवस्थित अध्ययन होने चाहिए.
आखिर वे कौन सी नीतियां हैं जिन्होंने रेलवे को सबसे बड़े रोजगार प्रदाता से नीचे गिरा कर आउटसोर्सिंग की अमानुषिक व्यवस्था का अलंबरदार बना दिया है ? तीव्र आर्थिक विकास के आंकड़ों के बावजूद हमारे बैंक नई नियुक्तियों को लेकर इतने कंजूस क्यों हो गए हैं ? हालांकि, ये शोध, ये अध्ययन नहीं होंगे.
आगामी चुनावों में हम ऐसी उपलब्धियों की राजनीतिक गूंज सुनेंगे जो असल में उपलब्धियां नहीं, राजनीति के गहरे अंधेरों से उपजी भ्रम की कुहेलिका होगी, जिनका हमारे जीवन की वास्तविक चुनौतियों से कोई संबंध नहीं होगा. चुनावी मंच पर गाल बजाते नेताओं से यह सवाल पूछने का कोई स्पेस ही नहीं होगा कि हमारे देश के तेरह लाख करोड़ रुपयों का क्या हुआ ? न उन लोगों के नाम पूछे जाएंगे जो हजारों करोड़ रुपयों का लोन लेकर देश से भाग गए और विदेशों में ऐश की जिंदगी जी रहे हैं.
यह सवाल भी नहीं पूछा जाएगा कि विकास दर के मामले में जब हम अग्रणी देशों में शामिल हैं तो यह विकास रोजगार के मामले में बांझ क्यों है ? आखिर विकास के लाभ किनकी झोलियों में गुम होते जा रहे हैं ? हमारे आर्थिक सवाल हमारी जिंदगी की धुरी हैं लेकिन वे हमारी राजनीति के हाशिए पर हैं. जिंदगी और राजनीति के बीच यह अलगाव हमारे दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है.
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