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‘आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं रहूंगा’ – HSRA के ‘कमांडर इन चीफ’ चंद्रशेखर आज़ाद

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'आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं रहूंगा' - HSRA के 'कमांडर इन चीफ' चंद्रशेखर आज़ाद
‘आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं रहूंगा’ – HSRA के ‘कमांडर इन चीफ’ चंद्रशेखर आज़ाद

‘आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं मरूंगा ।
‘आज़ाद’ की धरती पे, आज़ाद होकर रहूंगा ।।

आज महान क्रान्तिकारी अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के ये शब्द समूची जनता के हृदयपटल पर अंकित हो चुकी है. उन्होंने जो कहा वह कर दिखाया. भारत के इतिहास में ये पहला आजाद हैं, जिन्होंने आखिरी गोली तक मौत का सामना किया और उनके खून से सनी धरती ने आज हजारों आजाद पुत्रों को जन्म दिया है, जो हर दिन अपनी शहादतों से इस पावन धरती को अपने खून से सींच रहे हैं.

चन्द्रशेखर ‘आजाद (23 जुलाई 1906 — 27 फ़रवरी 1931) शहीद राम प्रसाद बिस्मिल व शहीद भगत सिंह सरीखे क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे, जिन्होंने इस देश में मार्क्सवाद और समाजवाद का सपना देखा था और अपने सपनों को साकार करने और जेल में बंद अपने साथियों (भगतसिंह और अन्यों) को निकालने के अपने प्रयासों में लड़ते हुए शहीद हो गये.

‘चन्द्रशेखर आजाद’ का जीवन

सन् 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये. इस संस्था के माध्यम से राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड में शामिल हुए और एकमात्र यही बचे जो अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बच सके थे और फरार हो गए थे.

इसके पश्चात् सन् 1927 में ‘बिस्मिल’ के साथ 4 प्रमुख साथियों के फांसी के फंदे पर शहीद कर देने के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स की हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुंचकर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया.

ऐसा भी कहा जाता हैं कि आजाद को पहचानने के लिए ब्रिटिश हुक़ूमत ने 700 लोग नौकरी पर रखे हुए थे. आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सेंट्रल कमेटी सदस्य वीरभद्र तिवारी अंग्रेजों के मुखबिर बन गए थे और आजाद की मुखबिरी की थी. संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता ने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई थी. लेकिन गोली मिस होने से वीरभद्र तिवारी बच गए और गुप्ता की गिरफ्तारी हुई और फिर उन्हें हुई 10 साल की सजा.

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गांव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में एक ब्राह्मण परिवार में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ था. उनके पूर्वज ग्राम बदरका वर्तमान उन्नाव जिला (बैसवारा) से थे. आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे, फिर जाकर भाबरा गांव में बस गये. यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता.

उनकी मां का नाम जगरानी देवी था. आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में बीता. अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये. इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी.

बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया. उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था. वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये. क्रान्तिकारियों का वह दल ‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’ के नाम से जाना जाता था.

पहली घटना

1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया. चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे, जब गांधीजी ने सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया था, जो आग की तरह चारों तरफ फैल ज्वालामुखी बनकर फट पड़ा. तमाम अन्य छात्रों की भांति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये. वे अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली. इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है –

‘ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 14 या 15 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी. उसे नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बांध दिया गया. बेंत एक एक कर उस पर पड़ते और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते, पर वह हर बेंत के साथ चिल्लाता ‘भारत माता की जय !’ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक की वह बेहोश न हो गया. बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना.’ (जवाहरलाल नेहरू (अनुवादक: हरिभाऊ उपाध्याय) मेरी कहानी, 1955, पृष्ठ 73-74)

झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियां

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया. झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे. अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे. वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे. झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी.

क्रान्तिकारी संगठन

असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसी से पूछे गांधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच.आर.ए.) का गठन किया. चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये.

इस संगठन ने जब गांव के अमीर घरों में डकैतियां डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा. एक गांव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया.

इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गांव ने हमला कर दिया. बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत को कसकर चांटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डांटते हुए खींचकर बाहर लाये. इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया.

1 जनवरी 1925 को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बांटा, जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था. इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी. इश्तहार के लेखक के रूप में ‘विजयसिंह’ का छद्म नाम दिया गया था. शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बांकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. ‘एच.आर.ए.’ के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं – बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था.

इस संघ की नीतियों के अनुसार 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया. जब शाहजहांपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खां ने इसका विरोध किया था. उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी.

अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं – पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खां एवं ठाकुररोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 तथा उससे 2 दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर 1927 को फांसी पर लटकाकर शहीद कर दिया.

सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा. एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारणवश यह योजना पूरी न हो सकी.

4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया. इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया. इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये.

पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन’ का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ रखा गया. चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला. इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया – ‘हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत.’

लाला लाजपतराय का बदला

17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने संध्या के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को जा घेरा. ज्यों ही जे. पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग़ दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा. भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार–छह गोलियां और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया.

जब सांडर्स के अंगरक्षक चन्नन सिंह ने दोनों का पीछा किया तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी बंदूक से उसे भी गोली मारकर समाप्त कर दिया. लाहौर नगर में जगह–जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया. समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस क़दम को सराहा गया.

केन्द्रीय असेंबली में बम

चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया. यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था. विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था. इस काण्ड के फलस्वरूप क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए. केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया. वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे.

आजाद की चरम सक्रियता

आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था. जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में ‘फासीवादी मनोवृत्ति’ के रूप में किया है. इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है. कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे, जिनमें से 448 रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे.

सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था, पर 1928-31 के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया, जबकि यह बात सच नहीं है. चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी. साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की.

आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे. आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था. इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी.

भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहां से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था. आज़ाद ने अपने बलबूते पर झांसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे. झांसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे. शालिग्राम शुक्ल को 1 दिसम्बर 1930 को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था.

चंद्रशेखर आज़ाद का सावरकर पर नजरिया

ये बात है उन दिनों की जब चंद्रशेखर आज़ाद लाहौर षड्यंत्र केस चलानेवालों को सबक सिखाना चाहते थे. यशपाल और उनके साथियों ने सुझाव दिया कि वायसराय को गोली मारने से संदेश दूर तक जाएगा. आज़ाद इसके लिए तैयार तो हो गए मगर उनका संगठन पैसे की तंगी में से जूझ हो रहा था और कोई भी काम बिना पैसे के पूरा नहीं होनेवाला था.

अब क्रांतिकारी रकम जुगाड़ने में जुट गए. यशपाल और उनके साथी भगवती ने इसी दौरान दिल्ली में विनायक दामोदार सावरकर के बड़े भाई बाबा सावरकर से मुलाकात की. ये वो दिन थे जब सावरकर बंधु हिंदू महासभा की राजनीति में घुस गए थे. यशपाल ने बाबा को अपने दल की योजना बताई तो उन्होंने महाराष्ट्र आकर मिलने को कहा. कुछ ही दिन बाद यशपाल अकोला के एक मकान में बाबा से फिर मिले. दिसंबर की सरदी में बाबा जुकाम से परेशान थे. सादे से घर में उन्होंने यशपाल का स्वागत किया.

यशपाल ने उनके साथ काफी वक्त बिताया. वहां उन्होंने पाया कि सावरकर से प्रभावित कुछ लड़के घर पर आकर किसी फुटबॉल मैच पर चर्चा कर रहे थे. मराठी में बातें करते हुए वो लोग अंग्रेज़ी के सेंटर, फॉरवर्ड, बैक, गोल शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी जगह अजीब से संस्कृत पर्यायवाची शब्द बोल रहे थे. यशपाल को ये कोशिश भली तो लगी मगर विचित्र भी.

खैर, वक्त मिलते ही यशपाल ने उनसे एक बार फिर अपना उद्देश्य बताया और साथ ही संसाधनों की कमी के बारे में भी कहा. बाबा सावरकर ने यशपाल के उद्देश्य से असहमति तो नहीं जताई लेकिन कहा- ‘अंग्रेज़ी शासन के अतिरिक्त देश में दूसरा भी एक हमारा राष्ट्रीय शत्रु है जो हमारी राष्ट्रीय एकता का विरोधी है और अंग्रेज़ों के पक्ष में होकर हमारे स्वतंत्रता के प्रयत्नों को विफल कर देता है.’

उनका इशारा मुसलमानों की ओर था. यशपाल और उनके साथियों को अपनी ओर मिला लेने की नीयत से आगे बाबा बोले, ‘विदेशी दासता के विरुद्ध हम अपनी सांस्कृतिक एकता और शक्ति के बल से ही लड़कर स्वतंत्र हो सकते हैं. हमें पहले सांस्कृतिक शक्ति और एकता स्थापित करने के लिए इसके विरोधी शत्रुओं से स्वतंत्र होना है. इसके बिना अंग्रेज़ से लड़ना ऐसे ही ही जैसे दासता के वृक्ष की जड़ को छोड़कर पत्तों को छांटते रहना. हमें तुम्हारे उद्देश्य से पूरी सहानुभूति है परंतु सहयोग तो तभी हो सकता है जब कार्यक्रम में एकता हो.’

यशपाल चुप रहे तो बाबा ने अपनी योजना खोल कर रख दी. यशपाल अपनी किताब में बताते हैं कि बाबा सावरकर ने जिन्ना को उस समय देश की सबसे घातक वस्तु कहा. वो बोले- ‘यदि आप लोग इस व्यक्ति को समाप्त कर देने की ज़िम्मेदारी लें तो स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा दूर हो सकेगी. इसके लिए हम पचास हज़ार रुपये तक का प्रबंध करने की ज़िम्मेदारी ले सकते हैं.’

यशपाल सावरकर बंधुओं का आदर करते थे, लेकिन इस प्रस्ताव को मुस्कुराकर टालने में ही उन्होंने भलाई समझी. यशपाल मानते हैं कि चंद्रशेखर आज़ाद के संगठन को उस समय पचास हज़ार रुपये मिलना बड़ी बात होती. यूं भी अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए क्रांतिकारी डकैती करने या जाली सिक्के बनाने में गुरेज़ नहीं करते थे. डकैती में एकाध हत्या हो जाने की संभावना भी हमेशा बनी रहती थी. ऊपर से जिन्ना की राजनीति को लेकर क्रांतिकारियों में कोई हमदर्दी भी नहीं थी लेकिन सांप्रदायिक मतभेद में हत्या करने का विचार उन्हें जमा नहीं. उसी शाम यशपाल ने दिल्ली लौटना तय किया. उन्हें चंद्रशेखर आज़ाद को रिपोर्ट करना था, लेकिन अभी उन्हें हैरान होना बाकी था.

बाबा सावरकर ने यशपाल के रवाना होने से पहले उन्हें तोहफे में कुछ देना चाहा. एक कपड़े में बंधे बंडल से निकालकर उन्होंने यशपाल को हाथ भर लंबी पिस्तौल दिखाई. यशपाल लिखते हैं- हथियार की गढ़न और रूप देखकर मैं समझ गया कि देहाती लौहार की बनाई चीज़ है. उसमें कारतूस के बजाय नली के छेद से बारूद और गोली भरनी पड़ती थी. यशपाल ने आदिम ज़माने के इस हथियार को देखकर तौबा कर ली. बदले में बाबा को धन्यवाद दिया और वो बोझ उठाने से इनकार कर दिया. उन्होंने बाबा को अपनी कमर से निकालकर कोल्ट पिस्तौल भी दिखाई और कहा- हमें ऐसी चीज़ों की आवश्यकता है जिन्हें सुविधा से शरीर पर छिपाया जा सके.

बाबा निराश हो गए. बोले- ‘जैसी तुम्हारी इच्छा, पर ऐसी विदेशी चीज़ें कितनी मात्रा में जुटाई जा सकेंगी.’ देसी पिस्तौल के प्रति बाबा सावरकर की ये अजीब सी सनक यशपाल को भली तो लगी थी लेकिन व्यवहारिकता से कोसों दूर होने की वजह से अजीब थी. बाद में यशपाल ने जब गज भर लंबी पिस्तौल का किस्सा दोस्तों को सुनाया तो उन्होंने खूब मज़ाक उड़ाया.

दिल्ली लौटकर यशपाल ने भगवती और चंद्रशेखर आज़ाद को बाबा सावरकर से हुई मुलाकात का पूरा किस्सा सुनाया. जिन्ना को मारने के प्रस्ताव के बारे में सुनकर चंद्रशेखर आज़ाद तो झुंझला ही गए. गुस्से में कहने लगे- ‘ये लोग क्या हमें पेशेवर हत्यारा समझते हैं ?’ ज़ाहिर है, सावरकर बंधुओं की नज़र में देश का अंग्रेज़ों से ज़्यादा ज़रूरी मुसलमानों से छुटकारा पाना था. उनके पास धन तो था लेकिन उसे वो वायसराय की जगह जिन्ना की हत्या पर खर्चना चाहते थे.

आजाद की शहादत

एच.एस.आर.ए. द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फांसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था. अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ 3 ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की. 11 फ़रवरी 1931 को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई. इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति मांगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी.

चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया. वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले. विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और 20 फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की. आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फांसी को उम्रकैद में बदलवाने के लिये जोर डालें.

अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सीआईडी का एसएसपी नॉट बाबर जीप से वहां आ पहुंचा. उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी. दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए. अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए. यह दुखद घटना 27 फ़रवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी.

पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था. जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा प्रयागराज अलफ्रेड पार्क में उमड पडा. जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे. वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियां बांध दी. लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे. समूचे शहर में आजाद के बलिदान की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया. शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे. लोग सडकों पर आ गये.

आज़ाद के बलिदान की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम कांग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी. बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में प्रयागराज के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुंचा. अगले दिन आजाद की अस्थियां चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया.

इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि प्रयागराज की मुख्य सडकों पर जाम लग गया. ऐसा लग रहा था जैसे प्रयागराज की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पड़ा हो. जुलूस के बाद सभा हुई. सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की बलिदान के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा. सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया. इससे कुछ ही दिन पूर्व 6 फ़रवरी 1931 को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेस बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे.

आजाद का व्यक्तित्व

आजाद प्रखर देशभक्त थे. काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया. एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये. परन्तु वहां जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुंचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये.

प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे. इसमें आजाद भी थे लेकिन वे खुद अंग्रेजी में पढ़ और समझ पाने में असमर्थ रहने के कारण दूसरों को पढ़ाने और हिन्दी में समझाने के लिए कहते थे. एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहां उन्होंने कई फिल्में भी देखीं. उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था, अत: वे फिल्मों के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए. चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी. उनकी शहादत के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया. उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े.

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