मनुष्य का बच्चा जब इस धरती पर आता है तो वह नास्तिक ही होता है और जैसे-जैसे बड़ा होता है, अपने संस्कारों में अपना धर्म और ईश्वर खोजता है. जब तक वह बच्चा होता है, निश्छल होता है. उसको किसी भी धर्म और ईश्वर से कोई लेना देना नहीं होता है. जब हम उसे धर्म और भगवान का पाठ पढ़ाते हैं तब जाकर उसे राम/रहीम/इशू/नानक/बुद्ध… में अपना ईश्वर नजर आने लगता है.
अगर आप हिन्दू हैं तो जरा कल्पना करिए कि ‘अगर आप किसी मुसलमान के घर पैदा होते तो आज धर्म का पालन किस तरह कर रहे होते, आपकी आस्था कैसी होती, बाबरी मस्जिद ढहाने पर आपको कैसा लगता ?’ जो मुसलमान हैं जरा वे भी सोचें कि ‘अगर आप हिन्दू घरों में पैदा होते तो आपकी आस्था कैसी होती ? राम के आने पर आप की खुशी कैसी होती ?’ इस तरह ‘बाबरी मस्जिद ढहाए जाने’ और ‘राम के आने की खुशी’ राम के पैदा होने के स्थान से नहीं तय हो रही है बल्कि आप के पैदा होने के स्थान से तय हो रही है.
आप का पैदा होना महत्वपूर्ण है. मगर भूख का सवाल ऐसा सवाल है जो इससे तय नहीं होता कि आप हिन्दू के घर पैदा हुए हैं या मुसलमान के घर. बल्कि यह इससे तय होता है कि आप गरीब के घर पैदा हुए या अमीर के घर. अमीर-गरीब सबको भूख लगती है मगर कोई भी पूंजीपति या सामन्त, चाहे वो मुल्ला हो, पादरी हो या पादरी हो वह भूख पर प्रवचन नहीं करता. भूख पर बात होगी तो भोजन की बात होगी, भोजन की बात होगी तो भोजन के उत्पादन की बात होगी. उत्पादन की बात होगी तो उत्पादन के संसाधनों जैसे जल, जंगल, जमीन, कल-कारखाने, खान-खदान, स्कूल, अस्पताल बैंक की बात होगी. इस पर किस वर्ग का कब्जा है इसकी भी बात होगी.
तब मेहनत करने वाले सवाल करेंगे कि ‘जब सारी दौलत हमारे श्रम से पैदा हो रही है तो मुठ्ठी भर अमीरों के पास सारी दौलत कैसे चली जाती है ?’ इसी तरह के और भी जलते हुए सवाल उठेंगे तो इन सवालों की आंच पूरे समाज में फैलेगी, तब शोषकवर्ग का जीना दुश्वार हो जायेगा. इसलिए शोषकवर्ग अपनी मीडिया के माध्यम से आपकी आस्था के सवाल को नंगा करके सड़क पर उतार देता है और आपकी भूख के सवाल को कुचल देता है. आस्था को लेकर सड़क पर उतरेंगे तो सरकार आपके ऊपर फूल बरसाएगी और भूख यानी रोजी-रोटी, शिक्षा, चिकित्सा, जमीन… के सवालों को लेकर सड़क पर आयेंगे तो वहीं सरकार लाठियों से पिटवाएगी और जरूरत महसूस होने पर गोलियां भी चलवाएगी.
रामजी गये कहां थे कि दोबारा उन्हें आना पड़ा. राम के लिये किसी मंदिर की आवश्यकता नहीं है. क्यों राम को किसी घर में कैद कर लेना चाहते हैं कुछ लोग ? रामजी कल भी हमारे दिलों में थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे. जरा सोचिये कि भगवान राम को हमने बनाया या भगवान राम ने हमको बनाया ?
मुझे किसी की आस्था पर चोट नहीं करना है, ना ही बहस करना चाहता हूं कि भगवान हैं या नहीं ? क्योंकि यह आस्था का विषय है. कोई राम में विश्वास करता है कोई रहीम में तो ईशु में कोई बुद्ध में तो कोई नानक में… कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी आस्था किसी भी ईश्वर में नहीं है, ऐसे लोग अपने आपको नास्तिक/वास्तविक कहते हैं. मेरी भी आस्था किसी ईश्वर में नहीं है पर मैं इनकी श्रेणी में नहीं हूं.
आस्था व्यक्ति का निजी मामला है. यह आस्था तब तक आस्था रहती है जब तक आपकी चारदीवारी में, आपके घर तक, आपके दिलों तक रहती है. जैसे ही यह आस्था दिलों से निकलकर सड़क पर आ जाती है तो आस्था ना होकर राजनीति का विकृत रूप ले लेती है. और तब आस्था का राजनीतिकरण होता है तो यह आस्था दूसरे धर्म के खिलाफ नफरत पैदा करती है. यह जितना ही बढ़ती है उतना ही साम्प्रादायिक उन्माद बढ़ता है और इससे साम्प्रदायिक दंगे होते हैं, मार-काट, आगजनी, हत्या, बलात्कार….. होते हैं. इस साम्प्रदायिक राजनीति का मानवता से कोई लेना-देना नहीं होता.
विश्व इतिहास में सांप्रदायिक दंगों में लाखों नहीं वरन करोड़ों लोग मारे गये हैं. लाखों महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई हैं. लाखों मासूम बच्चों का कत्ल कर दिया गया है. मेरा मानना है, अगर भगवान कण-कण में व्याप्त हैं, और वे वो देख रहे हैं कि उनकी पूजा/पाठ/प्रार्थना/अरदास/इबादत… दिल से कर रहा है या दिखावा कर रहा है, तो आस्था को आस्था ही रहने दें, इसका सांप्रदायीकरण/राजनीतिकरण ना करें.
जन्म के आधार पर दोस्त दुश्मन तय करना मानवता नहीं है. कौन कहां, किस धर्म में पैदा हुआ इस बात को लेकर लड़ना, यह धर्म नहीं है क्योंकि पैदा होना मेरे या आपके बस में होता तो मैं सोनियां गांधी या नीता अम्बानी… की कोख से पैदा होता. अगर पैदा होना लोगों के बस में होता तो निश्चित ही सब लोग अमीर के घर पैदा होते. गरीब लोग तो नि:संतान ही मर जाते.
जिसके पास दो वक्त के खाने तक की व्यवस्था नहीं उसके लिये धर्म के मायने अलग हैं. गरीब लोग सिसक-सिसक कर, आह भर कर रोते और गिड़गिड़ाते हुए प्रार्थना करते हैं – ‘हे भगवान हमारे ऊपर भी रहम कर, हमारे लिये भी कुछ व्यवस्था करो.’ इस पर शोषक वर्ग अपने प्रचार तंत्र, अपनी पाठ्य पुस्तकें, कहानी, उपन्यास, धारावाहिक, फिल्मों, मीडिया… के जरिये अरबों रुपया फूंककर जनता के दिलों दिमाग में भर देता है कि ये अमीरी और गरीबी पिछले जन्म के पाप और पुण्य हैं. पिछले जन्म के पाप के कारण तुम गरीब हो.
और शोषक वर्ग के बहकावे में आकर, जनता जब यह मान लेती है कि उसके ऊपर होने वाला शोषण, दमन, अन्याय, अत्याचार, बलात्कार सब कुछ ईश्वर की इच्छा से हो रहा है और जब शोषक वर्ग धर्म के नाम पर जनता को गुमराह करता है, धार्मिक उन्माद फैलाकर जनता को जनता से लड़ाता है और जनता भी शोषक वर्ग के बहकावे में आकर अपने रोजी-रोटी के सवाल भूल कर आपस में लड़ती है. धर्म/जाति के नाम पर इंसानियत के खिलाफ लूटपाट, आगजनी, हिंसा, बलात्कार, हत्या पर आमादा हो जाती है और धर्म के नाम पर यह सब जायज हो जाता है. इसके हजारों उदाहरण विश्व इतिहास ही नहीं वरन भारत के इतिहास में मौजूद हैं, आजादी से पहले भी और बाद में भी.
असल सवाल क्या है ? असल जरूरत क्या है ? निश्चित ही भोजन क्योंकि इसके बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता. मूलभूत आवश्यकता की सबसे पहली चीज रोटी. इस पर कबीरदास कहते हैं –
‘ना कुछ देखा भाव भजन में,
ना कुछ देखा पोथी में.
कहत कबीर सुनो भाई साधौ,
जो देखा सो रोटी में.
रोटी आदि रोटी अन्त,
रोटी में सब साधो संत
रोटी जियावे रोटी मुवावे,
रोटी बिन मुख बात ना आवे.
जो कहते हैं कि मुझे कुछ नहीं चाहिये बस मंदिर चाहिये. पहले मंदिर फिर और कुछ. तो ऐसे लोगोँ को सिर्फ मंदिर दे दीजिये और खाने के लिये रोटी का एक निवाला भी ना दें तो निश्चित ही वो कुछ घंटों बाद भोजन की बात याद आने लगेगी और यदि भोजन नहीं मिला तो मंदिर का सारा नशा उतर जाएगा. इस पर कबीरदास की ये पंक्तियां कितनी सटीक बैठती है-
‘भूखे पेट भजन न होय गोपाला,
यह ले तेरी कंठी माला.
जब पेट भरै तब पूजा होय,
भूखे न मन में ध्याना आवे.
यदि पेट भरा रहेगा तो ईश्वर की पूजा में भी मन लगेगा अन्यथा मन रोटी की तरफ लगा रहेगा. मंदिर में शांत की जगह मन अशांत रहेगा. तो पहले भोजन, स्वास्थ्य जरूरी है फिर मंदिर की जरूरत होगी. जनता का इन मूल मुद्दों से ध्यान से हटाने के लिये धर्म का नशा जनता के दिमाग पर चढ़ा दिया जाता है ताकि जनता नशे में धुत होकर रोजी-रोटी के सवालों को भूल जाए और जनता यह सवाल ना करे कि –
- सरकारी नौकरियों को खत्म कर सरकारी संस्थानों को क्यों बेचकर निजीकरण किया जा रहा है ?
- जनता यह न पूछ सके कि परमानेंट पदों को समाप्त कर ठेका पर पदों को क्यूं भरा जा रहा है ?
- जनता यह न पूछ सके कि सरकारी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था क्यूं खराब किया जा रहा है.
- जनता यह न पूछ सके कि लगातार महंगाई क्यूं बढ़ती जा रही है ?
- जनता यह न पूछ सके कि हमारे बच्चों को मोबाइल के जरिये पोर्न क्यूं परोसा जा रहा है ?
- आटा से सस्ता डेटा देकर हमारे बच्चे दिनभर रील बनाने और रील दिखाने में क्यूं व्यस्त रखा जा रहा है ?
- जनता यह न पूछ सके कि भ्रष्टाचार और कालाबाजारी पर कंट्रोल क्यूं नहीं ?
इसी तरह के जनता के हजारों सवाल हैं जो दबाए जा रहे हैं. जाहिर है मंदिर निर्माण की खुशी में सिर्फ एक धर्म विशेष के कुछ अंधभक्त लोग खुशी मना सकते हैं, मगर दूसरे धर्मों के लोगों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होगी. इससे सिर्फ सांप्रदायिक उन्माद को और हवा दी जाएगी. दरअसल उन्हें मालूम है कि जैसे-जैसे आर्थिक मंदी का संकट बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे जनता अपने रोजी रोटी के सवालों को लेकर सड़क पर उतर कर सरकार के खिलाफ संघर्ष कर सकती है इसलिए शासक वर्ग धर्म के नाम पर जनता को जनता से लड़ाने के लिए मुकम्मल तैयारी कर लेना चाहती है.
शासक वर्ग जहां एक ओर धर्म और संस्कृति की खोल ओढ़ कर अपने खूनी जबड़ों को छुपा कर जनता के एक बड़े हिस्से (हिन्दुओं) का हितैषी बनने का ढोंग करते रहे हैं, दूसरी तरफ मुस्लिमों के लिये उड़ान योजना, शादी शगुन योजना, उस्ताद योजना, सीखो और कमाओ योजना, ईदी योजना, नया सवेरा जैसे कई योजनाएं मुस्लिमों के लिये लेकर आयी है. इसके अलावा केंद्र की मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता संभालते ही अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए बजट की राशि भी बढ़ा दी.
इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने मुसलमानों के लिए सऊदी अरब से आग्रह कर न सिर्फ हज का कोटा बढ़वाया बल्कि उस पर लगने वाली जीएसटी को 18 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया. वर्तमान में भाजपा सरकार लोकसभा और राज्यसभा दोनों में पूर्ण बहुमत में है. यह सब किस मजबूरी में करना पड़ रहा है ? फिर जनता को जनता से आपस में लड़ाकर सत्ता की मलाई कैसे कटेगी.
आने वाले 2024 चुनाव में भाजपा ने मुस्लिमों को जोड़ने के लिये नारा दिया नारा है- ‘ना दूरी है ना खाई है… मोदी हमारा भाई है.’ ये बात सिर्फ भाजपा की नहीं है, कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, तृणमूल कांग्रेस, जदयू, जनता दल, शिव सेना, तथा मुख्यधारा की कम्युनिष्ट पार्टियां करती हैं. सभी लोग मुसलमानों को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं. मुख्यधारा की जितनी भी पार्टियां हैं सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं. चाहे जो सत्ता में आयेगा ऐसा ही कर जनता को जनता से आपस में लड़ाएगा.
शासक वर्ग अपनी व्यवस्था को बचाए रखने के लिए दिन-रात जनता से झूठ बोल कर जनता को जनता से लड़ाते हैं, गंदी फिल्में दिखाते हैं, नशाखोरी-जुआखोरी को बढ़ावा देते हैं, अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं, धर्म की आड़ लेकर जनता के खिलाफ सारे कुकर्म करते हैं. रोटी के सवालों से जनता का ध्यान हटाने के लिए मंदिर मस्जिद के नाम पर दंगा फसाद, मॉब लिंचिंग, आगजनी, लूटपाट, बलात्कार, हत्या आदि को बढ़ावा देकर असल मुद्दों से ध्यान भटका देते हैं.
हिन्दुओं का दुश्मन मुसलमान नहीं है और ना ही मुसलमानों का दुश्मन हिन्दू है और ना ही इनका दुश्मन सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी… है. असल में सभी धर्मों की जनता का असल दुश्मन सिर्फ शोषक वर्ग है. जैसे अशफाक उल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल दोनों ही धार्मिक प्रवृति के थे और दोनों ने धर्म को एक किनारे कर शोषण/दमन/उत्पीड़न… के खिलाफ एक होकर संघर्ष किया था.
उसी तरह हमें भी अशफाक उल्ला खां की नमाज और रामप्रसाद बिस्मिल की पूजा का सम्मान कर एक दूसरे को साथ लेकर शोषण/दमन/उत्पीड़न/बलात्कार/अत्याचार/महंगाई/भ्रष्टाचार/बेरोजगारी… के खिलाफ जातियों/धर्मों को दरकिनार कर एकजुट होकर संघर्ष करना होगा अन्यथा शासक वर्ग हमें आपको यूं ही धर्म की अफीम सूंघाकर आपस में लड़ाकर खुद मजे करेगा.
- अजय असुर
जनवादी किसान सभा
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