फर्क करना सीखिए और अलग-अलग देशों में फर्क होते हुए देखिए. एक अच्छे लोकतंत्र का मानवतावाद और भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के मानवतावाद में न केवल राजनीतिक फर्क है बल्कि आंतरिक प्रशासनिक मशीनरी के परिसंचालन में भी एक दम उलट व बुनियादी फर्क है, जिसका नतीजा ये है कि ‘मानव के लिए मानवतंत्र’ की बहुत सी मिसालों में रूस और चीन आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रों में सुमार हैं.
विशेष खबरों के मुताबिक चीन ने मैगलेव ट्रेन बनाने की उपलब्धि हासिल कर ली है. चाइना समाचार एजेंसी ‘सिन्हुआ’ के अनुसार एक हफ्ते पहले मैगलेव ट्रेन का ट्रायल अपेक्षा से भी अधिक सफल रहा. यह ट्रेन 630 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से चली. बीजिंग में 320 किमी की दूरी को इस ट्रेन ने महज 29 मिनट में तय कर लिया.
भारतीय संदर्भ में कहें तो लखनऊ से मुंबई की दूरी 1400 किमी को यह ट्रेन महज ढाई घंटे में तय कर लेगी, जिसे भारतीय रेलवे की सुपरफास्ट ट्रेन ‘पुष्पक एक्सप्रेस’ 24 घंटे में तय करती है.
CASIC प्रोजेक्ट के एक अधिकारी ने बताया कि इस स्पीड को 1000 किमी प्रति घंटा करने का लक्ष्य है यानि कि अगले एक दशक के गुजरते गुजरते चाइना की ट्रेनें जेट विमान की गति से गंतव्य तक पहुंचेंगी.
इस ट्रेन की कल्पना वर्ष 1998 बीजिंग यूनिवर्सिटी (चाइना) में आयोजित एक संयुक्त सेमीनार ‘बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लक्ष्य व पर्यावरण संरक्षण’ में की गई थी. वर्ष 2014 में एक ट्रायल से इस कल्पना के सफल होने की संभावना जताई गई थी, जो अब साकार हुआ है.
परियोजना प्रबंधन के अनुसार- ‘इसमें बहुत सारी चुनौतियां व जटिलताएं तो हैं लेकिन सब कुछ जल्दी से हल कर लिया जायेगा, मसलन मैग्नेटिक पटरी बिछाने से लेकर इसकी एक साफ सुथरी अभियांत्रिकी पर बहुत बारीकी से काम करना होगा. हमें इसे ऐसे करना होगा जैसे हम अपने घर परिवार के लिए कोई जरूरी संसाधन जुटा रहे हैं. हमारे देश का संपूर्ण नागरिक जीवन इससे आश्चर्यजनक रूप में समय की बचत कर सकेगा.’
चीन के मैगलेव ट्रेन की इंजीनियरिंग पर दबदबा देखते हुए अमरीका, स्पेन, जापान जैसे देशों को डर सताने लगा है कि युद्ध और मंदी से बर्बाद हो रहा ‘वैश्विक वर्चस्ववादी गठजोड़’ को कहीं चाइना टेक्नोलॉजी तबाह न कर दे. अत्याधुनिक रेलवे कलपुर्जों का खिताब फिलहाल चाइना के नाम ही है और जिस तरह से चीन, रूस, उत्तर कोरिया अपने संसाधनों को मानव कल्याण के लिए समर्पित कर रहे हैं, ऐसे में इस खिताब को कोई क्रूरतम युद्धोन्मादी देश हथिया ले, इसमें संदेह है.
दूसरी सबसे बड़ी खबर ये है कि रूस ने पहली बार एक चलता फिरता परमाणु संयंत्र बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है. रूसी अनुसंधान संस्थान ‘रोसोटाम’ के सामाजिक संबंध विभाग के एडिशनल डायरेक्टर ने कहा कि इस परमाणु संयंत्र को समुद्र के रास्ते ले जाकर हम बिजली व ऊर्जा की अन्य जरूरतों को पूरा कर सकेंगे, जहां की विषम भौगोलिक व विपरीत जलवायु परिस्थितियां जनजीवन को प्रभावित करती हैं.
स्वास्थ्य, अनुसंधान व खनन क्षेत्र में हम इससे ऊर्जा की पूर्ति कर सकते हैं. हालांकि रूस के इस मोबाइल पावर प्लांट को पूंजीवादी कल्याण में जिंदगी झोंक रहे वैज्ञानिकों ने तरह तरह के तर्क दिए लेकिन पुतिन ने सबकी अनसुनी करते हुए इस मोबाइल पावर प्लांट को आर्कटिक महासागर में तैनात कर दिया है या यूं कहिए ये पावर प्लांट आर्कटिक महासागर में पुतिन के वर्चस्व का प्रतीक भी है.
बहरहाल, दुनिया के फलसफे पर भारत की वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी कहां पर ठहरती है ये सोचने वाली बात है. यहां का शिक्षित युवा बहुप्रतिभा रखते हुए भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में युद्धरत इस्राएल जैसे देश में नौकरी करने के लिए अपना मकान, जमीन सब गिरवी पर रखने के लिए तैयार है.
भारत को रूस चाइना के बराबर खड़ा होने के लिए एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ अभी 50 साल की न्यूनतम जरूरत है. भाजपाई मुस्टंडों का ही शासन रहा तो फिर 50 साल क्या, 500 साल भी कम पड़ेंगे. हवन यज्ञों के धुआं में भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभाओं को भी धुआं किया जा रहा है. भारत में जबरन ‘तालिबानी हिंसावादी धार्मिक कल्चर’ को लागू किया जा रहा है.
आज तालिबान, मध्ययुगीन सभ्यता के साथ पछाड़ खाते हुए 22वीं सदी के 6ठी जेनरेशन हाइपरसोनिक मिसाइल जैसी आत्मसुरक्षा कवच बनाने से कोसों दूर है. गरीबी, शोषण, हिंसा, लूटपाट, महिला शोषण धार्मिक देशों की श्वसन नलियां होती हैं और भारत में चल रही ‘विश्वगुरु राजनीति’ भी ऐसे ही तालिबानी संस्कृति के अपशकुन दर्शा रही है.
- ऐ. के. ब्राईट
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