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प्राचीन भारत के आधुनिक प्रारंभिक भारतीय इतिहासकार

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हिंदुत्ववादी लोग आरोप लगाते हैं कि भारत का इतिहास वामपंथियों ने लिखा है इसलिए भारत का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए. क्योंकि वामपंथियों ने भारत के हिन्दू शासकों का उपेक्षा किया है, उन्हें इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया है. लेकिन हिंदुत्ववादियों के इस बात में कोई सच्चाई नही है. अगर हम प्राचीन भारत के इतिहास लेखन को देखते है तो पाते हैं कि जितने भी हमारे प्रारंभिक भारतीय इतिहासकार हुए है, उन में से कोई भी वामपंथी नहीं था.

जैसे, राजेन्द्र लाल मित्र (1822-1891), रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (1837-1925), विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे (1869-1926), पांडुरंग वामन काणे (1880-1972), देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर (1875-1950), हेमचंद्र राय चौधरी(1892-1957), आर.सी. मजूमदार (1888-1980), नीलकंठ शास्त्री (1892-1975), काशी प्रसाद जायसवाल (1881-1937), ए.एस.अलेतकर (1898-1959), यू.एन.घोषाल (1886-1969).

ये सब राष्ट्रवादी इतिहासकार माने जाते हैं. इन्होंने साम्राज्यवादी इतिहासकारों के विरोध में इतिहास लेखन शुरू किया. साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर कई बड़े हमले किए थे, जो निम्नलिखित है –

  1. भारतीयों को इतिहास बोध नहीं था (विशेषकर काल और तिथिक्रम का).
  2. भारतीय हमेशा निरंकुश शासन के अधीन रहने के आदी हैं.
  3. भारत में हमेशा आक्रमणकारी ही शासक रहे हैं.
  4. भारतीय आध्यात्म और परलोक के चिंता में ही खोय रहते हैं. इसलिए वे इस लायक नहीं है कि अपने भौतिक जगत की देखभाल कर सके. इसलिए अंग्रेजों का भारत में रहना जरूरी है.
  5. अंग्रेजों से पहले भारत ने कभी राजनीतिक एकता का अनुभव नहीं किया था और वे स्वशासन के योग्य नहीं है.

इन सारी बातो को विन्सेन्ट आर्थर स्मिथ (1843-1920) ने अपनी पुस्तक ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ में स्थापित किया, जो प्राचीन भारत पर इतिहास की पहली सुव्यवस्थित पुस्तक माना जाता है, जिसे स्मिथ ने उस समय के उपलब्ध स्रोतों के आधार पर 1904 में लिखा था. इसके बाद यही किताब 50 सालों तक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढाया जाता रहा.

यही वो किताब है जिस में पहली बार भारतीय इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई (अंग्रेज) शासन के आधार पर तीन कालों में बांटा गया. वैदिक युग से लेकर हर्षवर्धन तक के काल के भारत को हिन्दू शासकों का काल कहा गया. इसके बाद दिल्ली सल्तनत से ले कर मुगलों के शासन तक के भारत को मुस्लिम शासकों का काल कहा गया. और इसके बाद के भारत को अंग्रेज शासकों का काल कहा गया. बाद के साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भी इसी मार्ग का अनुसरण किया. इन सब बातों के पीछे अंग्रेज़ों का उद्देश्य अपने शासन को वैध और न्यायसंगत ठहराना था. हिंदुत्ववादी आज भी भारतीय इतिहास के इस साम्प्रदायिक काल विभाजन को ही मानते हैं.

इन सवालों के जवाब में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अपना इतिहास लेखन शुरू किया, जिस में से यहां कुछ का जिक्र करना जरूरी है. ये वो दौर था जब भारत में हिन्दू नवजागरण की हवा भी बह रहा था, जिसके प्रभाव में कई इतिहासकार भी बह गए.

लेकिन कुछ ऐसे भी इतिहासकार थे, जिन्होंने तथ्यों से समझौता नहीं किया, उनमें प्रमुख नाम है राजेन्द्र लाल मित्र का, जिन्होंने डी. एन. झा से बहुत पहले ही अपनी किताब ‘इंडो आर्यन’ में बता दिया कि प्राचीन भारत के लोग गाय का मांस खाते थे. वैसे राजेन्द लाल मित्र खुद प्राचीन परम्परा के प्रेमी थे और उन्होंने खुद कई मूल वैदिक ग्रंथों को प्रकाशित कराया था.

इसमें हम महाराष्ट्र के विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे का नाम भी ले सकते हैं, जो इस देश के सबसे बड़े शोधार्थी माने जाते हैं. वे संस्कृत की पांडुलिपियों और मराठा इतिहास के स्त्रोतों के खोज में महाराष्ट्र के गांव-गांव में घुमे. उपलब्ध स्रोतों को उन्होनें 22 खण्डों में प्रकाशित कराया.

उन्होनें मराठी में ‘भारतीय विवाह संस्था’ नामक किताब 1926 में लिखा, जो एक क्लासिक रचना मानी जाती है. इसे पढ़ते हुए एंगेल्स के पुस्तक परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पति की याद आने लगती है. उन्होंने इस पुस्तक को हिन्दू धर्म के नैतिकता के दबाव में आए बिना पूरा किया, जिसे प्रकाशित होने के बाद हिन्दुवादी संगठनों का विरोध झेलना पड़ा था.

इसी कड़ी में हम के.पी. जायसवाल को ले सकते हैं, जिन्होंने गहन शोध करके बताया कि प्राचीन भारत में गणराज्यों का अस्तित्व था, जो एक चुनी हुई परिषद द्वारा अपना शासन चलाते थे. अपनी इन सब बातों को उन्होंने 1924 में लिखी पुस्तक ‘हिन्दू पॉलिटी’ में स्थापित किया और भारतीय तानाशाही की अवधारणा का हमेशा के लिए खंडन कर दिया.

इसमें हम रामकृष्ण गोपाल भंडारकर का नाम भी ले सकते हैं, जो इतिहासकार के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे, जिन्होंने जाति प्रथा और बाल विवाह का विरोध किया और सातवाहनों के इतिहास का पुनर्निर्माण किया. ऐसे ही पांडुरंग वामन काणे ने पांच खण्डों में हिस्ट्री ऑफ़ धर्मशास्र का संपादन किया, जिससे हम प्राचीन भारत के रीति-रिवाजों को जान सकते हैं.

हेमचंद्र राय चौधरी ने दसवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर छठवी शताब्दी ईसवी तक का भारत का राजनीतिक इतिहास लिखा. नीलकंठ शास्त्री ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों का राजनीतिक इतिहास लिखा.

इन सब राष्ट्रवादी इतिहासकारों के लेखन के केंद्र में भारत का राजनीतिक इतिहास और राज्यव्यवस्था था इसलिए इनके इतिहास लेखन की अपनी सीमाएं और कई सारी कमियां है. फिर भी इन्होंने भारतीय इतिहास का पुनर्निर्माण करके ये बता दिया कि भारतीय के पास इतिहास बोध था और वे स्वशासन चलाने में दक्ष थे.

अंग्रेजी शासन से पहले भी कम से कम दो बार भारत राजनीतिक रूप से एक रहा था. पहले मौर्य शासनकाल के समय में, फिर गुप्तों के शासनकाल में. लेकिन हिन्दुत्ववादियों को तो इनके इतिहास लेखन से भी कोई मतलब नही हैं क्योंकि उन्हें इतिहास नहीं पुराण लिखना है, जो तथ्य पर नही कल्पना पर आधारित होगा. इसलिए वो फिर से इतिहास लेखन की बात कर रहे हैं.

वैसे इतिहास तो हमेशा लिखा जाता रहेगा और इस में कुछ गलत नहीं हैं लेकिन इतिहास को बिना तथ्यों के लिखना और उसमें अपने राजनीतिक फायदे के लिए काल्पनिक बाते जोड़ देना गलत है और हिंदुत्ववादी इतिहास लेखन के नाम पर यही कर रहे हैं.

  • विनोद शंकर

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