लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल
कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर,
बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर
है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर !
– सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
जगदीश्वर चतुर्वेदी
प्रेम आज भी सबसे बड़ा जनप्रिय विषय है, इसकी रेटिंग आज भी अन्य विषयों से ज्यादा है. तमाम तबाही के बावजूद प्रेम महान है तो कोई न कोई कारण जरूर रहा होगा. प्रेम खास लोगों के साथ खास संबंध का नाम नहीं है. यह एटीट्यूट है. व्यक्ति के चरित्र की प्रकृति निर्धारित करती है कि उसका विश्व के साथ कैसा संबंध होगा. यदि कोई व्यक्ति किसी एक से प्रेम करता है और दूसरे व्यक्ति से प्रेम नहीं कर पाता या उसकी उपेक्षा करता है तो इसे प्रतीकात्मक लगाव कहेंगे अथवा अहंकार का विस्तार कहेंगे.
बुनियादी किस्म का प्रेम भातृप्रेम के रूप में व्यक्त होता है. इसका अर्थ है जिम्मेदारी, देखभाल,सम्मान, अन्य मनुष्य का ज्ञान, उसके भविष्य के लिए शुभकामनाएं देना. इस तरह के प्रेम के बारे में बाइबिल में कहा गया है. भातृप्रेम सभी मनुष्यों के बीच प्रेम का आधार है. इसमें एक्सक्लुसिवनेस का अभाव है.
इन दिनों होना ही व्यक्ति के लिए महत्व का हो गया है, कोई चीज है तो महत्व है. होने के कारण ही व्यक्ति जिंदा होता है. यदि जिंदा रहना है तो अपने होने के अस्तित्व को चुनौती देने का जोखिम भी होना चाहिए, जिससे अपने अस्तित्व को ही चुनौती दी जा सके. ऐसे व्यक्ति का जिंदा रहना अन्य को प्रदूषित करता है. उनके प्रदूषण से ही अन्य लोग अपना अतिक्रमण कर पाते हैं. ऐसे लोगों का संवाद करना, बातचीत करना ज्यादा उपयोगी होता है, क्योंकि इसमें आप वस्तुओं का विनिमय नहीं करते. जब आप संवाद करते हैं तो उसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन सही है.
एरिक फ्रॉम ने ‘दि आर्ट ऑफ लविंग’ में लिखा ‘भावना प्रेम नहीं है, जो किसी के भी साथ शामिल हो जाए.’ प्रेम के अधिकांश प्रयास असफल होते हैं, चाहे कितने ही परिपक्व ढ़ंग से क्यों न किए गए हों. इसके बावजूद हमें प्रेम आशान्वित करता है, प्रेम की ओर बढ़ावा देता है. प्रेम को सेंटिमेंट के रूप में नहीं देखना चाहिए.
प्रेम कला है. प्रेम का कोई निर्देशात्मक शास्त्र नहीं बनाया जा सकता. कोई मेनुअल नहीं बना सकते. प्रेम का अर्थ चांस नहीं है. यह चांस की चीज नहीं है. जैसाकि अमूमन लोग बोलते हैं मैं बड़ा लकी हूं कि मुझे तुम मिली या मिले अथवा तुमसे प्यार हो गया.
प्रेम चांस नहीं है. प्रेम भाग्य भी नहीं है. प्रेम में व्यापक असफलता के बावजूद प्रेम के प्रति आज भी आकर्षण बना हुआ है, प्रेम की मांग बनी हुई है. आज भी प्रेम कहानी सबसे ज्यादा बिकती है. प्रेम एक ऐसी चीज है जिसके बारे में शायद ही कभी कोई यह कहे कि उसके लिए शिक्षा की जरूरत है. ये सारी बातें एरिक फ्रॉम ने उठायी हैं और उनसे असहमत होना असंभव है.
आधुनिक मीडिया बता रहा है कि प्रेम दो के बीच का रसात्मक आकर्षण है, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है. प्रेमकथाएं अमूमन दो व्यक्तियों की प्रेम कहानी के रूप में ही होती हैं और अंत में प्रेम के बाद खत्म हो जाती हैं. इन कहानियों में दिखाया जाता है कि किस तरह प्रेमी युगल तमाम मुसीबतों का सामना करके अंत में प्रेम करते हैं. अंत में सुखी जीवन जीते हैं. हमें सोचना चाहिए कि इस तरह की प्रस्तुतियां हमें अंत में कहां ले जाती हैं ? क्या इस तरह की प्रस्तुतियां हमें बाकी संसार से काट देती हैं ?
हमारे रेडियो स्टेशनों से रूढ़िबद्ध प्रेमगीत लगातार बजते रहते हैं. ये गीत भी रोमांस उपन्यासों और प्रेम फिल्मों से बेहतर नहीं होते. इन सबमें एक ही बात होती है कि दो व्यक्तियों के बीच के संबंध का नाम है प्रेम. आप ज्योंही मिलते हैं और मैच मिल जाता है तो बस एक-दूसरे में घुल-मिल जाना चाहते हैं.
किंतु एरिक फ्रॉम जिस प्रेम को पेश कर रहे हैं उसका इससे साम्य नहीं है. एरिक ने जीजस की प्रेम की धारणा को आधार बनाया है. जीजस ने कहा था – ‘अन्य से प्रेम करो, पड़ोसी से प्रेम करो.’ हमारी फिल्मों में जिस तरह दो व्यक्तियों के बीच में सेंटीमेंटल लव दिखाया जाता है उससे इसका कोई संबंध नहीं है.
प्रेम का अर्थ घर बनाना अथवा घर में कैद हो जाना नहीं है बल्कि प्रेम का अर्थ है घर के बाहर निकलकर प्रेम करना. उस जगह से बाहर निकलना जहां आप रह रहे हैं. उन आदतों से बाहर निकलना जिनमें कैद हैं. आप उनसे प्यार करें जो आपसे अलग हैं, व्यक्तिगत संबंधों के परे जाकर प्रेम करें.
मौजूदा उपभोक्ता समाज में मीडिया लगातार हमें अन्य के प्रति हमारी जिम्मेदारी के भाव से दूर ले जा रहा है. अन्य के प्रति जिम्मेदारी के भाव से दूर जाने के कारण ही आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं. ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि स्वयं ज्यादा से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं. हम नहीं सोचते कि इससे किसे क्षति पहुंच रही है. कौन इस प्रक्रिया से पीड़ित है.
हम सिर्फ एक ही विचार में कैद होकर रह गए हैं कि हमें कोई एक व्यक्ति चाहिए जो हमें प्यार करे, उसके साथ जी सकें. इसके लिए सिर्फ एक काम और करना है ज्यादा से ज्यादा धन कमाना है, एक साथ काम करना है. हम जिस व्यक्ति को प्यार करते हैं उसके लिए ज्यादा से ज्यादा चीजें खरीदनी हैं.
हमारी हिन्दी फिल्मों के गाने कितना ही प्रेम का राग अलापें, दुनिया से प्रेम का कोलाहल करें, सच्चाई यह है प्रेम के इस कोलाहल में हमने अपने अंदर के दरवाजे बंद कर लिए हैं. हमने अपने पड़ोसी की जिंदगी से आंखें बंद कर ली हैं बल्कि इन दिनों उलटा हो रहा है. हम पड़ोसी से प्रेम की बजाय उस पर संदेह करने लगे हैं. पड़ोसी को जानने की बजाय उसके प्रति अनजानापन ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति हो गया है.
प्रेम का मीडिया ने ऐसा वातावरण बनाया है कि हम अपनी ही दुनिया में कैद होकर रह गए हैं. घर की चारदीवारी में ही अपने जीवन के यथार्थ को कैद करके रख दिया है. घर में ही हमारे सबसे घनिष्ठ आंतरिक संबंध कैद होकर रह गए हैं. विश्व के साथ पैदा हुए इस अलगाव को हम ‘प्रेम’ कहते हैं ! इस कैद से निकलने की जरूरत है.
प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है
सवाल यह है प्रेमीयुगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है. प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो. प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं. प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है.
प्रेम में जिसका सामाजिक उत्पादन ज्यादा होगा उसका ही वर्चस्व होगा. प्रेम करने वालों को सामाजिक तौर पर सक्षम, सक्रिय, उत्पादक होना चाहिए. सक्षम का प्रेम सामाजिक तौर पर उत्पादक होता है. ऐसा प्रेम परंपरागत दायरों को तोड़कर आगे चला जाता है.
पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी.
प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं. व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं. प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास.
प्रेम पैदा करता है. पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है. आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे. प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे. सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है. संवेदना और भावों के स्तर पर प्रेम में निवेश तब ही गाढ़ा बनता है, जब आप सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से उत्पादक की भूमिका अदा करें.
प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है. यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है. प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है. प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है. समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है. इसमें शोषण का भाव है. यह प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है. इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है.
प्रेम का मतलब कैरियर बना देना, रोजगार दिला देना, व्यापार करा देना नहीं है बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं, प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं. प्रेम गहना, कैरियर, आत्मनिर्भरता आदि नहीं है.
प्रेम सहयोग भी नहीं है. प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए. प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है. प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व प्रमुख है. इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है. एकाकी नहीं होता, सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता.
प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है. प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है. प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराईयों में जाकर ही शांति मिलती है.
प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य-व्यापार टिका है. प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें. प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता. प्रेम में स्टैंड लेना जरूरी है.
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