मेरी पुरानी डायरी के
आख़िरी पन्ने पर दर्ज़
आख़िरी गीत
तुम्हें ऑनलाइन नहीं भेजना चाहता था
इसलिए उसे फाड़ कर
अपनी पुरानी कोट की जेब में डाल दिया
और निकल पड़ा उस तरफ़
जहाँ कभी तुम्हारा घर हुआ करता था
वैसे तो मेरे पास कभी भी
तुम्हारे घर का पता नहीं था लेकिन
मैं उन रास्तों पर निकल पड़ा
जिन रास्तों पर तुम
अक्सर दिख जाते थे
मेरी पुरानी कोट के नीचे
एक बूढ़े अश्वत्थ की खाल के वस्त्र थे
जिसमें जेब नहीं होती है
छ: फुट का आदमी
बीस फुट का हरक्यूलिस बनाते हुए
सीढ़ियों का सहारा लेता है
उन रास्तों पर तुम्हें सूंघते हुए ढूंढना
अजीब लगा
तपते हुए रास्तों पर
जहां कहीं भी
एक आद्र टुकड़ा मिला
जेठ के आसमान में
भटका हुआ एक
बादल के टुकड़े सा लगा
रास्तों के अंदर कई रास्ते होते हैं
और सबकी कहानियां अलग-अलग होती हैं
जैज़ की धुन में मालकोष की मिलावट की तरह
मुझे इस मिलावट से कोई शिकायत नहीं है
क्यों कि जो कुछ भी मैं देख रहा हूं
महसूस कर रहा हूं
जी रहा हूं
संपृक्त या असंपृक्त अवस्था में
एक घोल ही है
कोई भी तरल संपूर्ण रूप से
स्वाधीन नहीं होता है
तुम्हें ढूंढने के क्रम में
मैंने हज़ारों मौसमों को लपेटे हुए
और हज़ारों योजन पार की दुनिया के
हज़ारों रोशनी अंधेरे
और आधी रोशनी में डूबे
रास्तों के टुकड़ों को
अपनी पुरानी कोट की दूसरी जेब में
इकट्ठा करता हूं
मेरी जेब अब भारी हो चुकी है
और भार पैरों में पड़ी बेड़ियां हैं
वे तुम्हें आसानी से
चलने नहीं देतीं
अब मेरी गति श्लथ है
और मैं देख रहा हूं
समय के कछुए को
रेस में मुझे पीछे छोड़ते हुए
अचानक
मुझे सरीसृप बन जाने की इच्छा होती है
लेकिन डरता हूं कि
अगर तुम कहीं मिल भी गए तो
पहचानोगे कैसे
अरे धत तेरे की
तुमने मुझे पहले ही कब पहचाना था
जब मेरे हाथ पैर साबूत थे
और आदमी नुमा दिखने की कोशिश में
मुझे सफल व्यक्तियों की श्रेणी में
रखा जाता था
आज तो कोट की जेब में
आख़िरी गीत को गर्भाधान किये हुए
मेरी पुरानी डायरी के आख़िरी पन्ने को
भींची हुई मेरी उंगलियां भी
बाढ़ के कटाव से ढीली हुई मिट्टी को
आप्राण चेष्टा से जकड़े हुए
किसी विशाल पेड़ की
जड़ो सा दिखतीं हैं
भद्दा और रुखड़ा
नंगा
अस्तित्व की आख़िरी लड़ाई
लड़ते हुए किसी जानवर के
निपोरे हुए दांतों और आदमी के
भींचे हुए दांतों के बीच
सिर्फ़ दृष्टि बोध का असंतुलन है
बूढ़े अश्वत्थ की देह से
उसकी खाल खींचते हुए
यह सब नहीं सोचा था मैंने
उस समय सिर्फ़ तुमसे मिलने की ज़िद में
मैं अपने आदिम को अपने अंदर से बाहर लाकर
उर्वर भूमि के सामने
बस एक बीज भंडार सा पेश होना चाहता था
इसी कोशिश में और तुम्हारी तलाश में
सदियों के मौसम के रंग
पिघल पिघल कर घुलते रहे
एक दूसरे से
जब तक न सब कुछ काला हो गया
ठीक उन रास्तों की तरह
जो यात्रा के प्रारब्ध थे
काले बच्चों के नाम कृष्ण रखने का रिवाज
जब भी शुरू हुआ हो
इतना तो तय है कि
काले बच्चों की मांओं को
नियति का आभास कुछ ज़्यादा ही होता है !
- सुब्रतो चटर्जी
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