विनोद शंकर
देखिए, राम एक ही है और वो है ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रतिनिधि. आप राम की कितना भी सुन्दर, सौम्य, मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि बना कर पेश कीजिए और इसी तर्क पर राम मन्दिर का विरोध कीजिए, इस से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है.
आप भी वही गलती कर रहे हैं, जो गलती राहुल गांधी चुनाव के समय करता है – उदारवादी हिन्दू का कार्ड खेल कर, जो भाजपा के सामने आज तक कांग्रेस के काम नहीं आया है.
वही गलती हिन्दी के ज्यादातर लेखक और कवि कर रहे हैं और अपनी उदारता में ही ये भी राम के पक्ष में ही खड़े हो रहे हैं. भले ही इनका राम आरएसएस के राम से अलग है लेकिन है तो वो भी ब्राह्मणवादी संस्कृति का ही प्रतिनिधि.
राम का विरोध राम को खड़ा कर के नहीं किया जा सकता है. इसके लिए तो आपको आदिवासियों और दलितों के इतिहास और संस्कृति के पास ही जाना होगा और ब्राह्मणवाद विरोधी संस्कृति से जुड़ने से होगा. तभी आप फासीवाद को हारा पाएंगे. राम नाम का माला जपने से नहीं होगा.
आदिवासी सिर्फ़ अपने लिए नही पूरी दुनिया के लिए लड़ रहे हैं लेकिन पूरी दुनिया छोड़ दीजिए, अपने देश के ही सभी लोग आदिवासियों के साथ कहां खड़ा हो रहे हैं ? आदिवासियों के आंदोलन को न तो इस देश में ठीक से जनसमर्थन मिल रहा है और न ही मीडिया कवरेज़.
इसका कारण यही है आदिवासी सिर्फ़ सरकार से नहीं, इस पूंजीवादी व्यवस्था से ही लड़े रहे हैं. विपक्षी पार्टियों की लड़ाई भी सिर्फ़ भाजपा से है, शोषण पर टिकी इस व्यवस्था से नहीं क्योंकि सत्ता में आने के बाद इन्हें भी आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन लूटना ही है. इसलिए ये भी आदिवासियों के आन्दोलनों पर एक शब्द नहीं बोल रहे हैं.
हसदेव अरण्य का भारत के लिए वही महत्व है जो महत्व पूरी दुनिया के लिए अमेज़न के जंगल का है. इसलिए जो चिंता नागरिक समाज को हसदेव के लिए दिखानी चाहिए, वो कहीं नहीं दिख रहा है. एक साल से उपर हो गया है ‘हसदेव बचाओ आन्दोलन’ को, लेकिन इसके समर्थन में कहीं प्रोटेस्ट नहीं हो रहा है.
और अडानी कोयला निकालने के लिए रात-दिन पेड़ों को काट रहा है. राज्य और केंद्र की सरकार भी इस काम में उसका भरपूर सहयोग कर रही है. लेकिन रात-दिन सरकार के खिलाफ़ लिखने वाले लोग भी इस पर चुप है, जैसे हसदेव अरण्य इनके लिए कोई मायने ही नही रखता है और सब राम पर कविता या लेख लिखने में व्यस्त हैं, जैसे राम को बचा लेंगे तो सब कुछ बचा लेंगे. अरे यहां जीवन हसदेव जैसे जंगलों के कारण चल रहा है, किसी राम के कारण नहीं.
बांग्लादेश के विपक्षी पार्टियों की तरह क्या भारत के विपक्षी पार्टियां भी चुनाव का बहिष्कार करेगी ? क्योंकि भारत के हालात भी लगभग बांग्लादेश के जैसा ही है. यहां भी सबको पता है कि सत्ताधारी पार्टी सारे संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा कर चुकी है. यहां भी चुनाव सिर्फ़ दिखावे के लिए किया जा रहा है क्योंकि उसकी जीत तो पहले से ही तय है.
फिर इस फर्जी लोकतंत्र और चुनाव में भाग ले कर, इसे वैधता क्या प्रदान करना है ? जबकी जरूरत है, बांग्लादेश के विपक्षी पार्टियों की तरह इस नकली लोकतंत्र और चुनाव का पर्दाफास करने की. लेकिन हमारे देश की विपक्षी पार्टियां इस तरह की कोई साहसिक कदम नहीं उठायेगी. चुनाव में पहले से ही हार तय होने के बाद भी भाग लेगी. फिर हार जाने के बाद ईवीएम या कोई और बात पर दोष मढेगी, लेकिन खुद को दोषी नहीं मानेगी.
अरे जब पहले से ही पता है कि सारा सिस्टम कब्जा कर लिया गया है, फिर चुनाव में भाग ही क्यूं ले रहे हो ? फासीवादियों को वैधता क्यूं प्रदान कर रहे हो कि वे भी लोकतांत्रिक है ? क्या इन्हें हाराने का सिर्फ़ चुनाव ही एक माध्यम रह गया है ? क्या कोई और विकल्प नहीं है ? आज जरूरत ये सोचने की है, इस पर काम करने की है. जैसे अंग्रेजो को इस देश से बाहर किया गया, वैसे ही लड़ कर फासीवादियों को बाहर करने की है. लेकिन इस तरह कोई भी विपक्षी पार्टी नहीं सोच रही है इसलिए मैं इनसे कोई उम्मीद भी नहीं कर रहा हूं.
अब जो भी उम्मीद है, वो क्रांतिकारी पार्टियों से ही है. खासकर उनसे जो इस तथाकथित लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते हैं और न ही इसके चुनाव की प्रकिया में भाग लेते हैं क्योंकि फासीवाद से लड़ने की ताकत अब सिर्फ़ उन्हीं के पास बचा है. बाकी सबने फासीवाद के सामने घुटने टेक दिया है. अगर ऐसा नहीं होता तो ये सब चुनाव में भाग ही नहीं लेते और बांग्लादेश के विपक्षी पार्टियों की तरह चुनाव का बहिष्कार करते.
देश में आज कई जन आंदोलन चल रहे हैं, जिसके प्रति नागरिक समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वो इन जन आन्दोलनों को सहयोग और समर्थन दे. जन आन्दोलनों को मेरे नजर में नागरिक समाज द्वारा निम्नलिखित सहयोग किया जा सकता है –
- जन आंदोलन के समर्थन में आवाज़ उठाना. उसके लिए सभा करना, जुलूस निकालना.
- जन आंदोलन की वस्तु स्थिति जानने के लिए, वहां फैक्ट फाईडिंग टीम भेजना. आंदोलन की रिपोर्टिंग के लिए पत्रकारों को भेजना. खुद इस में भाग लेना.
- सोशल मीडिया पर उस आंदोलन के बारे में लगातर लिखना और उसका प्रचार-प्रसार करना.
- जन आन्दोलन के लिए अपने स्तर पर आर्थिक सहयोग जुटाना और उसे अपने नागरिक कमेटी के तरफ से सहयोग के रूप में आर्थिक मदद देना.
- जन आन्दोलन का दमन होने पर कानूनी सहायता प्रदान करना.
अगर नागरिक समाज ये सब नहीं करता है तो उसके लिखने-पढ़ने का कोई मतलब नहीं है, चाहे वो फेसबुक पर लिखे या किसी अखबार या पत्रिका में. ये सब मेरी नजर में निष्क्रिय प्रतिरोध है. हमें इस से आगे बढ़ कर सक्रिय प्रतिरोध करना चाहिए तभी नागरिक समाज या बुद्धिजीवी होने का कोई मतलब है.
बचा रहेगा जंगल
तो बचा रहेगा जीवन
बचे रहेंगे हमारे सपने
बची रहेगी करोड़ों साल
धरती पर फूलने-फलने
की हमारी उम्मीदें
जंगल कल भी हमारा घर था
जंगल आज भी हमारा घर है
जब हम नहीं जानते थे
कुछ भी बोना
कुछ भी उगाना
तब जंगल ने ही हमें पाला-पोसा
आज जंगल से निकल कर
जंगल को हम भूल गए
पर जंगल हमे कभी नहीं भुला
हमारी सांसें जंगल का ही उपहार है
जंगल को बचाना
खुद को बचाना है
क्योंकि जंगल है तो हम हैं !
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