हल्कू भैया!
अब हो कैसे ?
मुन्नी कैसी ?
जबरा कैसा ?
और खेत पर
पहरा कैसा ?
हल्कू भैया!
हाल बताओ
कैसे बीता
साल बताओ,
चरे खेत का
दुख तो बोलो
पीर घनेरी
मुख तो खोलो,
नीलगाय ने
क्या कुछ छोड़ा ?
घर ला पाए
कितना थोड़ा ?
मालगुजारी
भर आए क्या ?
खेत तुम्हारे
रह पाए क्या ?
वही किसानी
या कि मजूरी ?
जिनगी जीने
की मजबूरी
माह-दिवस फिर
ऐसे-वैसे
बात बताओ
काटे कैसे ?
सहना के सब
लौटा पैसे,
उऋण हुए तुम
जैसे-तैसे ?
या फिर कर्जा
नया चढ़ा है ?
सूद मूल से
अलग बढ़ा है ?
इसकी चिंता
में रह पल-पल
नही ले सके
फिर से कंबल ?
रात पूस की
फिर आई है
फसल तुम्हारी
लहराई है ?
वही ठंड है
वही कनकनी
पहरेदारी
वही अनमनी ?
जबरा को अँक-
बार भरे हो ?
उस अलाव के
पास पड़े हो ?
सुना-सुबह को
शहर जा रहे
लेबर पथ पर
खड़े खा रहे-
धूल-धुआँ औ’
झिड़की गाली
किंतु पहुँचना
हाली-हाली,
लौट शहर से
कब आ पाते
कितना खोते
कितना पाते,
जोड़-घटा कर
देखा है क्या
पास तुम्हारे
लेखा है क्या,
रात सुबह का
मंजर क्या है
तब में,अब में
अंतर क्या है,
अँधियारे औ
रौशन क्षण में
फर्क भला क्या
सोचो मन में,
क्या कहते हो-
घना कुहासा,
रस्ता सूझे
नहीं जरा-सा।
- अस्मुरारी नंदन मिश्र
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