मुग़ल सम्राट अकबर की श्रीराम निष्ठा आज तक के भारतीय इतिहास के सभी शासकों और राष्ट्र प्रमुखों से विशेष रही है. यह दावा राम पर अकेले दावा करने वालों को अखर सकती है. भला बाबर के पौत्र और हुमायूं-हमीदा बानो के पुत्र की राम निष्ठा कैसी ? वह सम्राट परधर्मी है ! जिस लोगों की दृष्टि में अकबर के लिये राम काफिरों के देवता हैं, उसके मन में राम प्रीति कैसी ? राम निष्ठा कैसी ?
प्रश्न उठता है इतिहास प्रमाण से निर्धारित हो या अफ़वाह से ?
अफ़वाह से राजनीति की जा सकती है, इतिहास नहीं लिखा जा सकता. अकबर का इतिहास बोलता है. उसकी सर्व धर्म निष्ठा उसे सम्राट अशोक के बाद का सर्वोच्च शासक बनाती है जहां वह अपने निजी धर्म से बाहर निकल कर प्रजा के धर्म-समुदायों को मान महत्त्व देकर उसने वास्तविक सम्राट की गरिमा हासिल की.
अपने जीवन के लगभग अंतिम वर्षों में अकबर ने तीन ऐसे सिक्के जारी किए जिसने भारत के इतिहास में उसे अव्वल मुकाम पर पहुंचा दिया. ये सिक्के थे ‘सीयराम’ सिक्के. इनके जारी किए जाने के पीछे संभव है अकबर के जीवन पर उसकी हिंदू रानियों का प्रभाव भी रहा हो. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
राम कथा के विद्वान स्वर्गीय भगवती प्रसाद सिंह ने अपने ग्रंथ ‘राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन’ में अकबर की राम निष्ठा पर कुछ रोचक निष्कर्ष निकाले हैं. उनका कहना है कि ‘राजपूताने में रसिकसाधकों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा और अवध में तुलसी साहित्य के व्यापक प्रचार का प्रभाव उदारमना अकबर पर भी पड़ा. उसके द्वारा प्रचारित ‘रामसीय’ भांति की स्वर्ण एवं रजत मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है.’
काशी वासी विद्वान राय आनंद कृष्ण के हवाले से वे बताते हैं कि ‘अब तक इस भांति के तीन सिक्कों का पता चला है- दो सोने की अर्धमोहरें और एक चांदी की अठन्नी. इनमें एक सोने की अर्धमोहर कैबिनेट डे फ्रांस में है, दूसरी ब्रिटिश म्युजियम में और तीसरी चांदी की अठन्नी भारत कलाभवन, काशी में संग्रहीत है.
भारत कला भवन वाली यह (तीसरी मुद्रा) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी को लखनऊ के किसी व्यापारी से प्राप्त हुई थी. दोनों सांचों में एक ओर राम-सीता की आकृति अंकित है और दूसरी ओर उनका प्रचलन काल दिया हुआ है, जिससे पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों भांति की मुद्रायें भिन्न काल में और दो भिन्न सांचों में ढाली गयी थीं.
बाबू भगवती प्रसाद सिंह और श्रीयुत राय आनन्दकृष्णजी के लेख के आधार पर अकबर द्वारा जारी किए गये सीय-राम सिक्के का विवरण यहां दे रहा हूं. इस विवरण का आधार ‘राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन’ में अकबर की राम निष्ठा नामक आलेख है –
- सोने की दो अर्धमुहरें (ब्रिटिश म्यूजियम और कैबिनेट डे फ्रांस) : इनमें राम प्राचीन वेश में उत्तरीय तथा धोती धारण किये हुए और सीता लहंगा, ओढ़नी और चोली पहने, अवगुंठन यानी घूंघट को सम्हालती हुई अंकित की गई हैं. इस सिक्के के जारी करने का काल 50 इलाही, परवरदीन उत्कीर्ण है. ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित अर्धमोहर में चित ओर ‘रामसीय’ नागरी अभिलेख मिट गया है किंतु ‘कैबिनेट डे फ्रांस की अर्धमुहर में वह ज्यों का त्यों बना हुआ है.
- चांदी की अठन्नी (भारत कलाभवन, काशी) का विवरण : इसमें सीताराम अकबरकालीन वेश में दिखाये गये हैं. राम सिर पर तीन कंगूरे वाला मुकुट, (जैसा अकबर के समय के ब्राह्मण देवताओं के चित्रों में भी प्राप्त, होता है) घुटने तक जामा, दुपट्टा, जिसके दोनों छोर इधर-उधर लटक रहे हैं. बायें हाथ में धनुष की कमानी की मध्य, जिसकी प्रत्यंचा भीतर की ओर है, पीठ पर तूणीर और दाहिने हाथ में धनुष पर चढ़ा हुआ बाण धारण किया है.
राम की अनुगामिनी सीता चोली या अंगिया, लहंगा, ओढ़नी और हाथों में चूड़ियां पहने हैं. सीता का बायां हाथ सामने उठा हुआ है और दाहिना पीछे लटकता हुआ अंकित है. उनके दोनों हाथों में फूल का गुच्छा है. ‘रामसीता’ के ऊपर बीच में नागरी अक्षरों में ‘रामसीय’ अंकित है इसके पट की ओर 50 इलाही अमरदाद लिखा हुआ है.
इससे यह बात पता चलती है कि ये दोनों मुद्रायें, अकबर की मृत्यु के पहले एक वर्ष के भीतर, उनके द्वारा प्रचलित इलाही सम्वत् के 50वें वर्ष के दो भिन्न महीनों में प्रचलित की गई थी.
भगवती बाबू के अनुसार यह प्रश्न उठता है कि ‘रामसीय’ भांति की ये दो भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्रायें उनके जीवन की किस स्थिति की परिचायक हैं. मोटे तौर से सीताराम का दांपत्य जीवन तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –
- पहला- विवाह के पश्चात् और वनगमन के पूर्व अयोध्या में व्यतीत होने वाला उनका गार्हस्थ्य जीवन.
- दूसरा- चौदहवर्षीय वनवास में सीताहरण से पूर्व का जीवन और
- तीसरा- लंका विजय के पश्चात् उनके पुनर्मिलन के समय से लेकर सीता के द्वितीय वनवास के पहले तक उनका अयोध्या का राजैश्वर्यपूर्ण जीवन ।
इन तीनों के अन्तर्गत ही किसी अवस्था में उनकी स्थिति का अंकन उपर्युक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं में सम्राट अकबर द्वारा अंकित और जारी करवाया हुआ है. यह स्पष्ट ही है कि इन तीनों समयों में में प्रथम तथा तृतीय दाम्पत्य की अवधि या क्रीड़ाभूमि अयोध्या रही है और दूसरी अवस्था राम-सीता की ‘वनलीला’ की है.
राय आनंद कृष्ण जी कहते हैं कि सोने की मुहरों में दंपति की जिस मुद्रा का चित्रण हुआ है वह उनके गार्हस्थ्य जीवन के अधिक मेल में है. पति के पीछे चलती हुई सीता का दाहिना हाथ कमर पर रखना और बायें हाथ से घूंघट संभालना, उनके दांपत्य जीवन के आारंभिक काल की मुद्रा प्रतीत होती है. सीता में नव दाम्पत्य का भाव प्रबलता से परिलक्षित होता है.
लज्जा का जो भाव इससे व्यक्त होता है, उसकी व्याप्ति इसी नव दाम्पत्य की अवस्था में अधिक संगत जान पड़ती है. यह भी असंभव नहीं कि यह उनके चित्रकूट के वन-विहार की किसी स्थिति का द्योतक हो. अतः इसे प्रथम तथा द्वितीय अवस्था के अन्तर्गत मानना उचित होगा यानी वनवास के पूर्व या वनवास की अवधि को अंकित किया गया है.
भारत कलाभवन काशी की अठन्नी में अंकित सीताराम की मुद्रा के विषय में भगवती प्रसाद सिंह जी का विचार है कि इसमें उनके चित्रकूट अथवा पंचवटीवास के समय किये आखेट एवं वन-विहार का दृश्य अंकित है. यह स्मरणीय है कि पंचवटी वास के समय यह उस स्थिति का द्योतक नहीं माना जा सकता, जब सीता ने राम को सुवर्णमृग दिखाया था और उनकी प्रेरणा से वे उसके आखेट में प्रवृत्त हुए थे. यदि उस स्थिति से इसका सम्बन्ध होता तो सीता मृग को इंगित करती हुई दिखाई जातीं, किन्तु प्रस्तुत चित्र में ऐसा कुछ लक्षित नहीं होता. सीता का, निःसंकोच भाव से दोनों हाथों में फूल के गुच्छे लिये हुए पत्ति का अनुगमन वन-विहार का द्योतक हो सकता है.
भगवती बाबू का अनुमान है कि इस लीला का क्षेत्र माने जाने की संभावना पंचवटी से चित्रकूट की अधिक है. कारण यह है कि राम- भक्ति साहित्य में ‘अहेरी’ राम की मुख्य क्रीड़ा-भूमि तथा सीताराम की बिहार स्थली के रूप में इसी स्थल की सर्वाधिक प्रतिष्ठा है.
रसिक-साहित्य में चित्रकूट-वासी राम तापस नहीं, राजैश्वर्यपूर्ण और नित्यरासलीलारत चित्रित किये गये हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस, गीतावली और विनयपत्रिका में चित्रकूट का स्मरण दम्पति की विहार भूमि के रूप में किया है.
उनके परवर्ती राम चरित रसिकों ने भी उसे इसी रूप में देखा है. भगवती प्रसाद सिंह जी के शब्दों में ‘इस प्रकार दोनों भांति की मुद्राओं में सीताराम की श्रृंगारी भावना प्रकट होती है. उदार अकबर को इन माधुर्यव्यंजक दृश्यों के सिक्कों पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा रामभक्ति में बढ़ती हुई रसिक भावना से प्राप्त हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं.’
राय आनन्दकृष्ण जी ने इन सिक्कों के प्रचलित करने का कारण, जीवन के अंतिम दिनों में उद्बुद्ध, अकबर की रामभक्ति बताया है. इनका प्रचलन उसने जिस किसी भाव से भी प्रेरित होकर कराया हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि उसकी ‘रामसीय’ में निष्ठा थी और उनके ‘स्वरूप-प्रचार’ में वह प्रजा और राजा दोनों का हित देखता था. अकबर के मन में राम-प्रीति या राम निष्ठा न रही होती तो वह ‘रामसीय’ जारी करने पर विचार ही नहीं करता !
शताब्दियों पहले से भारतीय शासकों द्वारा शिलालेखों और मूतियों में प्रतिष्ठित विष्णु और कृष्ण को छोड़कर अन्य धर्मी अकबर का ‘रामसीय’ के नाम पर सिक्का चलाना इस देश के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी. भगवती बाबू दावे से कहते हैं कि ‘जहां तक उनको याद है किसी हिन्दू सम्राट ने भी शासन अवधि में सीताराम को इतना महत्त्व नहीं दिया था. इससे तत्कालीन समाज पर रामभक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है.
मुगल शासकों के बारे में भ्रम फैलाने का लाभ किसे मिलना है और हानि किसे होनी है, इस चक्कर में बिना पड़े यदि बात की जाये तो अकबर और अशोक द्वारा स्थापित शासन के नियम शासक की उदारता और प्रजा को बराबर मानने की पैरवी करते हैं. चार सौ इक्कीस से अधिक वर्ष बीत गये अकबर की राम भक्ति पर मुख्य धारा के इतिहासकार चुप रहे. उस पर चर्चा की तो साहित्य और संस्कृति के दो धुरन्धरों ने. एक राम कथा के बेजोड़ मर्मज्ञ बाबू भगवती प्रसाद सिंह जी और दूसरे संस्कृति और कला मर्मज्ञ राय आनंद कृष्ण जी ने.
पूर्व में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के श्रीराम भक्ति अंक में ‘रामसीय’ सिक्के का एक विवरण प्रकाशित किया गया था, जिसमें विद्वान लेखक श्री ठाकुर प्रसाद वर्मा जी ने ‘रामसीय’ सिक्कों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है. श्री ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में इन सिक्कों पर लिखते हुए अकबर की मानसिक आध्यात्मिक स्थिति पर एक महत्व की टिप्पणी की है. वे लिखते हैं –
‘यह राम सीय मुद्रा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि राम और सीता की आकृतियों को पुरोभाग पर अंकित किया गया है, जो सदैव केवल कलमा के लिए ही सुरक्षित समझा जाता है. यह बात इस तथ्य को उजागर करती है कि अकबर ने राम की आकृति को पूरोभाग में स्थान देकर उनकी ईश्वरीय महत्ता को स्वीकार किया था.’
इसी बात के आकलन में मैं इस बात को अलग से कहना चाहूंगा कि अकबर ने श्रीराम प्रेम और निष्ठा में कलमा त्याग कर राम रूप को स्वीकार किया. श्रीराम अंक का वह आलेख पूरा पढ़ा जाना चाहिए. ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने सिक्कों की बनावट और राम सीता के परिधान पर अलग ढंग से प्रकाश डाला है. (कल्याण श्रीराम भक्ति अंक, पृष्ठ 400)
कुछ अन्य लेखकों ने भी अकबर की राम भक्ति को रेखांकित किया है. अपनी पुस्तक ‘हमारे देश के सिक्के’ में डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त ने भी बादशाह अकबर के ‘रामसीय’ सिक्कों को एक महत्त्व की घटना माना है. (हमारे देश के सिक्के, पृष्ठ 36)
लेकिन अकबर की उदारता को प्रचारित करने के पक्ष में बहुधा इतिवृत्त और इतिहास लेखक लोग मौन रहे. उस मौन से अकबर की सर्व धर्म उदारता वाले उसके महान चरित्र पर तो आंच नहीं आई लेकिन इतिहास लेखकों का चरित्र अवश्य लांछित होता दिखा.
अंत में एक बात फिर कहूंगा. श्रीराम पर मुद्रा या सिक्का जारी करने वाला अकबर अब तक का अकेला बादशाह या सम्राट है. समय बिता लेकिन उसकी राम निष्ठा अछूती और बेजोड़ बनी रही.
संदर्भ पुस्तक :
- राम काव्यधारा, अनुसंधान और अनुचिंतन, लेखक: भगवती प्रसाद सिंह, प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष: 1976
- श्रीरामभक्ति अंक, कल्याण कार्यालय, गीता प्रेस, गोरखपुर
- हमारे देश के सिक्के, लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त, प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- बोधिसत्व
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