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जन्तर-मंतर पर जनतंत्र : हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ रहे देश में जंतर-मंतर पर इकठ्ठा होना अपराध है ?

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वाह, क्या बात है ! कितने परिवर्तनकामी हैं हम ! बदलना चाहते हैं देश को और इस समाज को भी, लड़ना चाहते हैं लोगों के लिए, भला चाहते हैं आमजन का, मगर पुलिस-प्रशासन की मनमानी पर कुछ नहीं बोलते. एकदम चुप्पी साध लेते हैं. हां वर्दी की ज्यादतियों पर, जो कि सत्ता के इशारों पर आमजन की आवाज बंद करना चाहती है. क्या यह हम सबकी बुजदिली नहीं ?

जी हां, क्या यह सत्ता का कायरपन नहीं, जो कि जंतर-मंतर पहुंचे आमजनों को अपनी व्यथा भी नहीं कहने देती ! रद्द कर देती है उनके कार्यक्रम, जिसे रद्द करने से कुछ दिन पहले उसने ही अनुमति दी थी ! वह इस ज्यादती के लिए अवाम को विरोध भी नहीं जताने देती ! क्या हमें ऐसे तानाशाही पूर्ण रवैये का विरोध नहीं करना चाहिए, करना चाहिए न ! पर कितना कर रहे हैं ?

नहीं कर रहे न ! हां, तभी तो तानाशाही को शह मिलती है ! पुलिस आमजन के साथ मनमानी पर उतारू हो जाती है. वैसे भी वह डरा कर रखना चाहती है जनता को. मनोबल गिरा कर रखना चाहती है आमजन का– मजदूरों, किसानों का. छोटे व्यापारियों का भी, रेहड़ी, खोखा-पटरी वालों का भी, जो कि रात-दिन शोषण के शिकार होते हैं.

व्यवस्था में बैठे लोगों की कोशिश होती है कि वे एकजुट न हो पायें. वे आपस में गम सांझा न कर पायें, जिसका ताजा उदाहरण 10 दिसंबर, 2023 है. मानव अधिकार दिवस. दिल्ली का जंतर-मंतर, जहां पुलिस के सामने न मालूम कौन सी मजबूरी थी कि उसने एक जन संगठन को जन-सभा करने के लिए दी गयी अपनी ही अनुमति रद्द करनी पड़ी !

हां हां, मगर मत पूछना कि क्यों भाई ? ऐसी क्या आफत आ गयी दिल्ली पुलिस के सामने ? पुलिस-प्रशासन को यकायक क्यों रद्द करना पड़ा अपना ही आदेश ? उसे क्यों रद्द करनी पड़ी जन-संगठनों की मीटिंग, जिसमें छात्र, मजदूर और नौजवानों को अपनी व्यथा कहने आना था, वह भी अपनी दिहाड़़ी छोड़ कर, दिल्ली व उससे सटे दूर-दराज के इलाकों से ? और मौका था मानवाधिकार दिवस का !

चूंकि हम जनतान्त्रिक देश हैं. अभिव्यक्ति की आजादी है हमें. अपनी व्यथा सरकार तक पहुंचाने का देश के हर नागरिक को हक है और दिल्ली के जंतर-मंतर को तो सरकार ने धरना-प्रदर्शन, मीटिंग के लिए निश्चित ही कर दिया है, जहां देश भर से आकर लोग अपनी बात कहते हैं !

10 दिसंबर, 2023 को भी अन्य लोगों, संगठनों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, ग्रेटर नोएडा के फ्लैट धारकों ने भी तख्तियों पर लिखे नारों व अपने वक्तव्यों के जरिये अपनी व्यथा व्यक्त की, जिसे अखबारों में भी जगह दी गयी फिर आमजनों को ही क्यों जन-सभा करने से रोक दिया गया ? सरकार को सी.ए.एस.आर. से ही क्या चिढ़ थी कि उसकी जन-सभा करने की मिली हुई अनुमति रद्द कर दी गयी ?

भइया जी, क्या इसी मुल्क में लोकतंत्र की अम्मा रहती हैं ? क्या इसी देश में है ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ ? यदि हां, तो वेचारी लोकतंत्र की अम्मा यहां कैसे रहती होगी ? कैसी देखती होगी वह अपनी संतानों पर जुल्म ? गैर सरकारी ही नहीं, सरकारी भी. सरकार द्वारा आमजन पर दर्ज होते झूठे मुकद्दमे, जो कि देश में हजारों की संख्या में हैं.

देखिये न, राजधानी की गरीब अल्प-संख्यक बस्तियां, दिल्ली के गांव-देहात और उत्तर प्रदेश के गांव-देहात भी. दिल्ली से सटी वे अनियमित कालोनियां भी, जहां पुलिस अपना टारगेट पूरा करने के लिए किसी भी बेबस को भी धर लेती है. आदिवासी इलाकों की तो कुछ पूछिये ही मत.

अब तो शहरों में सवाल उठाने वालों को नक्सलवादी, देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है और देश-द्रोही के साथ तो कुछ भी किया जा सकता है !  हां, तभी तो विश्वविद्यालयों के कितने ही छात्र, प्रोफेसर आज जेलों में हैं. उन्हें जमानत तक नहीं मिल रही. परिजन न्याय को तरस रहे हैं, पर है कोई देखने वाला ?

फिर कोई क्यों देखे ? किसे जरूरत है देखने की ? जबकि हम खुद ही नहीं देख रहे. हां, क्या हमें कचोट रही है सरकार की मनमानी ? उत्तेजित करती है हमें पुलिस-प्रशासन की तानाशाही ? अपनी व्यथा को सांझा करने हेतु एकजुट होते आमजनों पर ज्यादतियां !

याद है, मोदी काल का कोई ऐसा अवसर जब भगवा संगठनों के साथ पुलिस ने ज्यादती की हो ? अड़चन डाली हो उनके कार्यक्रमों में ? जबकि उन्होंने गौ-रक्षा की आड़ में मजहब विशेष के लोगों पर कितनी ज्यादती की ! कितने नौजवानों को शिकार बनाया !

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की अहमदाबाद यात्रा के समय तो दिल्ली में भाजपा विधायक कपिल मिश्रा ने समाज विशेष के धरना-प्रदर्शन को हटवाने के लिए किस तरह आंय-बांय बका था. सरेआम किस तरह हिदायत दे रहा था पुलिस को, भला किसने नहीं देखा ! क्या वह कानून-सम्मत था ? अगर नहीं तो क्या उसके खिलाफ कोई कार्यवाही हुई ?

अब आप कहेंगे कि वह तो सत्ता में है और सत्ताधारियों के तो सौ खून भी माफ हो सकते हैं और वर्तमान समय तो उनके लिए स्वर्ण-काल है ! याद नहीं, जे.एन.यू. में भगवा गुण्डों ने किस तरह छात्र-छात्राओं के सिर फोड़े, विश्वविद्यालय परिसर में आतंक फैलाया, क्या किसी से छिपा था ? क्या कोई कार्यवाही हुई ? किसी पर यू.ए.पी.ए. लगा ?

आप यह भी कह सकते हैं कि जब संस्कारी पार्टी का मुखिया आतंकियों की पहचान टोपी से करने की बात कहे, प्रधानमंत्री पद पर बैठ कर जब वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को मूर्खों का सरदार कह दे तो उसके चेलों के हौसले बुलंद क्यों नहीं होंगे ? चेतन चौहानों के दिमाग क्यों खराब नहीं होंगे ? क्यों नहीं बढ़ेगी पुलिस की मनमानी ?

हां, वह आमजन के साथ कुछ भी कर सकती है. कर रही है. न्यायालय भी उनके साथ कदम-ताल करते नजर आ रहे हैं. हां, आज कितने मजदूर जेलों में हैं, जिन्होंने बस अपने हकों की बात की. विश्वविद्यालयों के कितने ही छात्र-प्रोफेसर जेलों में बंद हैं. वे सब विचाराधीन कैदी हैं, जिनमें एक प्रोफेसर तो 90 प्रतिशत विकलांग हैं. अकेले शौच भी नहीं जा सकते. सालें बीत गयीं, पर जमानत नहीं मिल रही.

अब तो आपने 10 दिसंबर, 2023 की झांकी भी देख ली होगी कि पुलिस किस कदर मानवाधिकारों की रक्षा करने पर तुली थी. 50 नौजवानों पर सैकड़ों की संख्या में पुलिस ! प्रदर्शनकारियों को वह सामान की तरह बसों में फैंक रही थी. बक रही थी गालियां.

लड़कियों तक को नहीं बख्शा गया. उन पर भद्देे-भद्दे कमेंट किये गये. पीटा गया, जिसे वीडियो के माध्यम से समझा जा सकता है. और हां, सुरक्षा-बलों पर तो आंदोलनकारी छात्रों, मजदूरों ने गोली मारने की धमकी देने का भी आरोप लगाया है. हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ रहे देश में जंतर-मंतर पर इकठ्ठा होना क्या इतना बड़ा अपराध है ?
अगर नहीं तो पुलिस ने ऐसा क्यों किया ? धरना-प्रदर्शन करना क्या गुनाह है ? अपराध है आमजन का जंतर-मंतर पर इकठ्ठा होना ?

यदि अवाम का जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने आना अपराध है तो पुलिस ने पहले उन्हें जन-सभा करने की अनुमति क्यों दी ? और फिर ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश के फ्लैट धारक तो उसी दिन अपनी छातियों पर तख्तियां लटकाये प्रदर्शन कर रहे थे, वे भी तो नारों-वक्तव्यों के जरिये सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे, क्या उन्हें रोका गया ? फिर छात्रों, मजदूरों, बेरोजगारों को ही क्यों मीटिंग करने से रोका गया ?

सवाल है, क्या अब जंतर-मंतर कीर्तन मंडली के लिए ही आरक्षित कर दिया गया है ? क्या जंतर-मंतर पर खास विचारधारा के लोगों को ही अपनी बात कहने की आजादी होगी ? क्या अब देश में अभिव्यक्ति की आजादी प्रतिबंधित है ? आमजन को अपनी व्यथा जाहिर करने का भी हक नहीं ? यदि हां, तो पुलिस ने सी.ए.एस.आर के कार्यक्रम को प्रदान करने की अनुमति क्यों दी ?

खैर, बहुत हो गया. आखिर हम सब कब चुप्पी तोडेंगे ? अगर अब नहीं मुंह खोला तो फिर बहुत देर हो जायेगी.

  • कमलेश ‘कमल’

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