मनीष आजाद
बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी. एक अजन्मी बिटिया अपनी मां से कहती है कि मैं तुम्हारी क्रूर दुनिया में नहीं आना चाहती. लखनऊ सेंट्रल जेल में बंद अनिता आज़ाद का 9 दिसंबर को जेल में रहते हुए ही गर्भपात हो गया. पिछले दिनों 18 अक्टूबर को जब उसे गिरफ्तार किया गया तो उसके अंदर 4 माह का बच्चा/बच्ची अपना आकार ले रहा था. मेडिकल साइंस के अनुसार 5 माह बाद भ्रूण अपना आकार ले लेता है, उसमें जीवन आ जाता है.
पिछले माह जब एनआईए/एटीएस कोर्ट में अनिता की बेल पर सुनवाई हुई तो अनिता के वकील ने तमाम मेडिकल रिपोर्ट लगाते हुए जज साहब को बताया कि उसकी स्थिति बहुत गंभीर है और अजन्मे बच्चे के लिए गंभीर खतरा है, लिहाजा उसे मेडिकल आधार पर बेल दिया जाय. वकील ने सफूरा जरगर का हवाला भी दिया, जिन्हें ठीक ऐसी ही परिस्थिति में कोर्ट ने बेल दी थी.
जज साहब ने बेल रिजेक्ट कर दी और फिर वही हुआ जिसका डर था. 8 दिसंबर को उसे दर्द उठा. उसने तत्काल हॉस्पिटल भेजने की मांग की लेकिन उसे हॉस्पिटल अगले दिन रात को तब भेजा गया, जब उसे ब्लीडिंग शुरू हो गई. डॉक्टर ने अनिता को सख्त हिदायद दी थी कि वह जमीन पर न सोए. लेकिन जेल में उसे जमीन पर ही सोना पड़ता था.
जज ने बेल रिजेक्ट करते हुए अपने ऑर्डर में यह भी लिखा था कि बेल देने पर वह जंगल भाग सकती है. जाहिर है एटीएस ने ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया था कि अनिता को बेल न मिले और इस क्रूर ‘न्यायिक’ प्रक्रिया में उस अजन्मे बच्चे की मौत हो गई, जिस पर कोई भी आरोप नहीं था. बच्चे की मां यानी अनिता आज़ाद पर भी जो आरोप है, वह कोर्ट में अभी साबित नहीं हुए हैं.
इस अन्यायी व्यवस्था ने अभी कुछ समय पहले ही सबसे बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता ‘स्टेन स्वामी’ की ‘सांस्थानिक हत्या’ की थी, उन्हें एक सिपर के लिए तड़पा डाला था और अब एक 5 माह के अजन्मे बच्चे का ‘कत्ल.’
अनिता आज़ाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में ‘सावित्री बाई फुले संघर्ष समिति’ के बैनर से गरीब/दलित महिलाओं को सावित्री बाई की ही तर्ज पर रात में अक्षर ज्ञान कराती थी. उसके प्रयासों से न जाने कितनी महिलाओं ने पढ़ना-लिखना सीखा. इन्हीं रात्रि-कालीन कक्षाओं में दूसरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मसलों पर बातें भी होती थीं और ‘8 मार्च’, ‘सावित्री बाई जन्मदिन’ जैसे आयोजन भी किए जाते थे.
ऐसे ही कुछ आयोजनों में मैं भी शरीक रहा हूं. हां, पिछले दिनों हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन में भी अनिता और उनके पति बृजेश सक्रिय रहे थे. लेकिन यह सब अपराध कब से हो गया और वह भी इतना बड़ा कि आपने अनिता/बृजेश पर ‘यूएपीए’ और देशद्रोह जैसा संगीन आरोप मढ़ दिया !
एटीएस का तर्क है कि उनके पास से जो कंप्यूटर बरामद हुआ है उसमें प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) का साहित्य बरामद हुआ है. महत्वपूर्ण बात यह है कि बृजेश/अनिता का कंप्यूटर जुलाई 2019 में एटीएस ने जब्त किया था और उसकी यह रिपोर्ट अक्टूबर 2023 में आई. यानी पूरे 4 साल बाद. ‘भीमा कोरेगांव केस’ में जिस तरह से कंप्यूटर को टेंपर किया गया है, उसके बाद इस बात की क्या गारंटी है कि इस मामले में भी ऐसा नहीं हुआ होगा ?
लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर लैपटॉप की जांच करने में आपने 4 साल लगा दिए तो क्या आप कुछ दिन और इंतजार नहीं कर सकते थे ? आप मुकदमा दर्ज करके अनिता को बिना गिरफ्तार किए भी मुकदमा चला सकते थे, जैसा कि आप ब्रजभूषण के मामले में कर रहे हैं या कम से कम बेल तो दे ही सकते थे.
मजेदार बात यह है कि उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ सालों ही नहीं बल्कि कई दशकों में भी नक्सलवाद/माओवाद की एक भी घटना नहीं घटी है, फिर नक्सलवाद/माओवाद का इतना हौवा क्यों ? और परिणामस्वरूप एक अजन्मे बच्चे की ‘हत्या’ क्यों ?
माओवाद/नक्सलवाद अन्य कम्युनिस्ट ग्रुपों की तरह कोई पंथ नहीं है. यह एक राजनीतिक आंदोलन है. इससे जुड़ी आदिवासी महिला संगठन की सदस्य संख्या लाखों में है. नक्सलवादी/माओवादी प्रतिरोध आंदोलन के कारण छत्तीसगढ़/झारखंड में जल-जंगल-जमीन की लूट के कई ‘एमओयू’ अटके पड़े हैं. सरकार की बेचैनी और बदहवासी का असली कारण यही है.
किसी भी सामाजिक/राजनीतिक रूप से जागरूक व्यक्ति का नक्सलवादी/माओवादी आंदोलन से प्रभावित होना सामान्य बात है. और वह अपने कंप्यूटर में उनके साहित्य का अध्ययन भी कर सकता है. नक्सलवादी/माओवादी साहित्य नेट पर आसानी से उपलब्ध भी है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी ‘बलवंत सिंह’ के केस में साफ कहा है कि जब तक कोई घटना घटित नहीं होती या उसके घटित कराने का कोई साक्ष्य नहीं है, तब तक महज साहित्य रखने या लिखने बोलने से कोई अपराध नहीं बनता.
इस केस में बलवंत नाम के एक खालिस्तान समर्थक ने ‘कनाट प्लेस’ में सार्वजनिक रूप से ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाया था. इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपराध नहीं माना.
विनायक सेन को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायधीश मार्कण्डेय काटजू ने कहा था कि जिस तरह गांधी का साहित्य रखने और पढ़ने भर से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता, ठीक उसी तरह माओवादी साहित्य रखने और पढ़ने से कोई माओवादी नहीं हो जाता. लेकिन पिछले 10 सालों में जिस तरह से सभी संस्थाओं का ‘म्यूटेशन’ हुआ है, उसमें इन संस्थाओं ने अपना लोकतांत्रिक आवरण खुद ही फाड़ डाला है.
फ्रांस में जब सात्र ने फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के खिलाफ अल्जीरिया में चल रहे मुक्ति युद्ध का पुरजोर समर्थन किया तो प्रतिक्रियावादी हलकों की तरफ से उनकी गिरफ्तारी की मांग की जाने लगी. फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘दी गाल’ ने इसका जवाब देते हुए कहा था कि – ‘सात्र फ्रांस की चेतना हैं, उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.’
अपने देश में भी सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, अनिता आज़ाद जैसे लोग इस देश की चेतना हैं, इस देश का भविष्य हैं, इन्हें न ही गिरफ्तार किया जा सकता और न ही इनकी ‘भ्रूण हत्या’ की जा सकती है.
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