कनक तिवारी
कांग्रेस देश की राजनीति में घूमती हुई नहीं आई. इतिहास मंथन की प्रक्रिया से करोड़ों भारतीयों को आज़ादी के अणु से सम्पृक्त करने ऐतिहासिक ज़रूरत के रूप में वक़्त के बियाबान में कांग्रेस सेनानायक हुई. वह पार्टी इन दिनों संकटग्रस्त, संघर्षोन्मुख और असमंजस के दौर में है.
हालिया हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों ने पार्टी के सामने ज्यादा सवाल खड़े किए हैं. 3 दिसंबर को घोषित नतीजों में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय मिली है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह सत्ता से बेदखल हुई. मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार को बेदखल नहीं कर सकी. क्या यह अपेक्षित नहीं था ? क्या मतदाताओं को कोई आश्चर्य नहीं हुआ ?
ऐसा नहीं हैं कि कांग्रेस को इन चुनावों में पहले भी पराजय नहीं झेलनी पड़ी हो. 1962 के चुनावों में कई सूबों में कांग्रेस का राज्य दरक गया था. 1977 के राजनीतिक झंझावत ने पूरे देश में कांग्रेस की चूलें ढीली कर दी थी लेकिन इंदिरा गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व था कि अपने दमखम पर 1979-80 1980 में कांग्रेस को जीता कर ले आई. 1989 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में हारने के बावजूद भी कांग्रेस लोकसभा में 1991 के चुनावों में फिर किसी तरह उठकर खड़ी हो गईं.
अब भी पार्टी में ज्ञान, अनुभव और चिन्तन समेटे कुछ हस्ताक्षर कहीं न कहीं पड़े होंगे. कांग्रेस चाहे तो असफलता के बावजूद ऐसे तत्वों को उनकी वांछित भूमिका से लैस कर सकती है. कांग्रेस खत्म नहीं हुई है. चोट लग जाने के कारण खेल से फिलहाल रिटायर दीख रही है. देश या पार्टी के जीवन में पांच बरसों का समय बहुत बड़ा नहीं होता. चुनाव तो फिर होंगे. कांग्रेस को विरोधियों की गलती की जूठन चाटने के बदले अपनी रसोई तैयार करनी होगी, जिससे कार्यकर्ताओं की पूरी टीम का पेट भरे.
ऐसा नहीं कि कांग्रेस में संस्कारशील पीढ़ी का पूरी तौर पर खात्मा हो गया लेकिन जनता से जुड़े और बौद्धिक रूप से सजग लोग कांग्रेस के सियासी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनाए गये. वाक्योद्धाओं के मुकाबले कांग्रेस ने केवल हुल्लड़ करते या ताली बजाते बौनों की फौज खड़ी की. लगातार चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए एक और ऐलान है. क्या कांग्रेस इस सम्भावित चुनौती के प्रति बेखबर रह सकती है कि हालिया चुनाव परिणाम कांग्रेस की यात्रा का अर्द्ध विराम हैं, पूर्ण विराम नहीं ?
कांग्रेस ने पहले भी निराशा को कफन की तरह नहीं ओढ़ा है. कांग्रेस को विरोधियों से उतना खतरा नहीं रहा, जितना अपने कुछ बेटों से रहा है. क्या कांग्रेस के वफादार कार्यकर्ता अब भी गुटबाज नेताओं का कंधा बनने पर ही मजबूर हैं ? कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए यह कितना आत्मघाती है कि जिस उत्तरप्रदेश ने कांग्रेस के तेवर में संघर्ष के सबसे ज्यादा बीजाणु गूंथे, वहां उसकी हालत चौथे नंबर पर है.
नेतृत्व को लेकर सोनिया गांधी निस्सन्देह वह ’फेवीकोल’ अब भी हैं जिससे पार्टी के टूटते हाथ पांव जुड़ जाते हैं. लेकिन कांग्रेस की आत्मा कहां है ? स्वदेशी का विरोध, विचारों की सफाई, वंशवाद की अभिवृद्धि, समाजवाद का खात्मा, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का समर्थन और पश्चिमी अपसंस्कृति के सामने समर्पण करने के बाद कांग्रेस और अन्य पार्टियों में क्या फर्क रह गया है ?
सड़क पर कांग्रेस और भाजपा के दो कार्यकर्ता चलें, तो उन्हें देखकर कोई नहीं अलग-अलग पहचान पाता, जबकि चार दशक पहले तक बात ऐसी नहीं थी. देहाती गंध की गमक लिए लाखों कांग्रेसी कार्यकर्ता दरी बिछाने वालों की जमात तक में शामिल नहीं हैं. उनके बदले शामियाना भंडार वाले कांग्रेस नगर रचने के शिल्पकार हो गये हैं.
राहुल गांधी में भी सोनिया गांधी का गुण है कि उनकी भाषा असभ्य, अभद्र, असंयत और अनावश्यक नहीं होती. वे शरीफ आदमी की तरह चेहरे पर मुस्कराहट तिरती मुद्रा लिए फिरते हैं. कहा होगा राजीव गांधी ने ‘कि सत्ता के दलालों को दूर किया जाए’, लेकिन देश जानता है कि कांग्रेस में उनकी संख्या और शक्ति का कितना इजाफा हो गया है. इक्कीसवीं सदी की राजनीति में कड़ियल और खब्बू राजनेता ही सफल हो सकते हैं. पता नहीं राहुल को आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मामलों की कितनी समझ आ गई होगी ? कांग्रेस में ऐसा वर्ग भी है जो अंदर ही अंदर चाहता है कि नेहरू गांधी परिवार का वर्चस्व खत्म हो.
सवाल यह भी है कि राहुल गांधी का सोच क्या है ? विदेशी बीमा कंपनियां, बैंक, वकील, पूंजी-निवेशक, मीडिया-मुगल, हथियारों के स्मगलर, जहरीली दवाइयां सब हिन्दुस्तान चले आ रहे हैं. देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए जा रहे हैं. किसानों और आदिवासियों की ज़मीनों पर डकैती की जा रही है. नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है. खेती की धरती सिकुड़ रही है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं. नक्सलवाद (नक्सलवाद-माओवाद समस्या नहीं, बल्कि सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान है – सं.) और आतंकवाद से पूरे देश में ज़हर फैल रहा है.
अंबानी अदाणी की अट्टालिका के मुकाबले ज़मीदोज़ किसानों के शव हैं. राहुल गांधी राजनीति को किसी भूचाल या जन आंदोलन की तरह नहीं चला सकते. उनके पास कुछ सूत्रबद्ध शिक्षाएं हैं. उन्हें वे बतकहियों में अपने समर्थकों और सहयोगियों को परोसते चलते हैं. बीच-बीच में आदिवासियों को उड़ीसा में भरोसा दिला देते हैं कि उनकी जमीनेंं छीनकर उन पर बड़े उद्योग नहीं लगेंगे.
कांग्रेस की समस्या
1885 में जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सामने कई आंतरिक संकट खड़े हैं. सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क की यह बूढ़ी पार्टी लांछनों का आश्रयस्थल बनती जा रही है. कांग्रेस को उस पर लगी कीचड़ सुखाने का वक्त ही नहीं मिल रहा है. विडम्बना है जिस कांग्रेस की अगुआई में देश ने 62 वर्षों तक आज़ादी का महासमर लड़ा, वह स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर खड़ी थी. अपमानजनक यह भी कि दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद की जिस विचारधारा ने आज़ादी की लड़ाई में अवाम के साथ खड़े होकर शिरकत नहीं की थी, उसी पार्टी की ताजपोशी हो गई.
पार्टी संगठन वर्षों से लुंजपुंज है. चिकने चुपड़े चेहरों को टीवी चैनलों पर प्रवक्ता बना दिया गया है. पार्टी खादी के वस्त्रों में नहीं है. उसे केवल सेवादल के कार्यकर्ता और भृत्य पहनते हैं. मद्यनिषेध की पार्टी के कई प्रसिद्ध नेता सार्वजनिक जगहों पर प्रतिष्ठित पियक्कड़ों की पहचान रखते हैं. भ्रष्टाचार पार्टी के कई नेताओं का आधार-कार्ड हो गया है. बीसियों घोटालों में कांग्रेस नेतृत्व की फजीहत होती रहती है. इतना होने पर कांग्रेस को सत्तानशीन बने रहने का अधिकार जनता क्यों देती !
कांग्रेस को शायद आत्मसंतोष हो गया कि वह काफी जी चुकी. आततायी अंगरेज़ हुक्मरान तक जिस निहत्थी पार्टी की हत्या नहीं कर सके, वह आत्महत्या करने पर आमादा क्यों लगती है ? कांग्रेस का पतन फीनिक्स पक्षी की दंत-कथाओं की तरह उन तंतुओं से नहीं बना है, जिनमें पांच सौ बरस बाद भी शरीर के भस्म हो जाने पर राख से जी उठने की कालजयी क्षमता होती है.
बौद्धिक धरातल पर बेखबर और कुंठित तथा सत्ताभिमुख, आत्महंता और अहंकारी तथा अधकचरे कांग्रेसियों के हुजूम को किसी अनुशासित सेना में बदलने की शक्ति क्या कांग्रेस के नेतृत्व में बची है ? वक्त एक निर्मम हथियार है, उसे कांग्रेसियों की भी गरदनों से कोई परहेज़ नहीं है. कांग्रेस आत्म प्रशंसा में गाफिल रहेगी अथवा निराशा के महासमुद्र में विलीन होने को बेताब है ?
वैश्विक जीवन में इतने बदलाव हो गए हैं कि कांग्रेस अपनी नई सोच के चलते पुराने मूल्यों की गाड़ी पर बैठकर गंतव्य तक नहीं पहुंचने का खतरा नहीं उठा सकती. सरकार चलाने के लिए उसे धन चाहिए. नशाबंदी नहीं करे तो उसे हर वर्ष हजारों करोड़ रुपयों की आमदनी हो सकती है. घाटे के खादी और कुटीर उद्योग नहीं चलाए तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार से उसे सस्ती कीमतों पर नित नए फैशन के परिधान विशेषकर नई पीढ़ी के लिए उपलब्ध हो सकते हैं. हिन्दी को राजभाषा बनाने की पूर्वज-जिद मुल्तवी करती रहे तो उसे सभी प्रदेशों के मंत्रालयों तक पैर पसारने का अवसर मिलने की उम्मीद होती है. यदि वह शहरों का विकास चुंबकत्व की थ्योरी के आधार पर करे तो गांव तो लोहे के कणों की तरह आकर्षित होते रहेंगे, ये नये विचार हैं.
कांग्रेस के विरोधी उस पर सही गलत तरह तरह के आरोप लगाते हैं. कांग्रेसी नेता भी बुनियादी मुद्दों से जी चुराकर बगले झांकने की शक्ल में इतिहास के तर्कों का उत्तर देने की गैरजिम्मेदाराना कोशिश करते हैं. कांग्रेस इतिहास की बड़ी पार्टी जरूर है लेकिन अखण्डित भूगोल की अब नहीं. कांग्रेस की हार के कारणों में धर्म और राजनीति की जुगलबन्दी, गुटबाजी, अदूरदर्शी टिकिट वितरण, भीतरघात, बगावत जैसे कारण भी गिनाये जा सकते हैं.
पिछले बरसों में कांग्रेस ने केन्द्र तथा प्रदेश सरकारों में जिस तरह का नेतृत्व दिया, उससे जनमानस पूरी तौर पर संतुष्ट नहीं रहा है. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हालात के आइने में अपनी बदरंग होती शक्ल को मुग्ध होकर देखने के बदले प्रायश्चित की अग्नि परीक्षा की तारीखें कब तय करेगा ?
कांग्रेस आंतरिक मूल्य युद्ध में संलग्न है. ऐसे विचारक हैं जो कह रहे हैं कि चुनाव विकास कार्यक्रमों और जनसंपर्क से नहीं बल्कि प्रबंधन से जीते जाते हैं. इनका विश्वास है कि जनता ने यह मान लिया है कि भ्रष्टाचार राष्ट्रीय जीवन का लक्षण है. यदि मतदाता को मतदान के पहले आर्थिक प्रलोभन दे दिए जाएं तो उसका चरित्र खरीदा जा सकता है, ऐसा केवल कांग्रेस का विश्वास नहीं है, सभी पार्टियों का है.
कांग्रेस के नेता जमीन पर चलना भूलते जा रहे हैं. उन्हें हवाई जहाजों और हेलीकाॅप्टरों में मरना तक रास आ रहा है. डीज़ल, पेट्रोल की किल्लत के देश में वे बीसियों गाड़ियों का जुलूस बनाकर ही निकलते हैं. उनमें से गांव में कोई नहीं जाता. अपने संसदीय क्षेत्र में भी नहीं. दुर्घटनाएं होने पर वे तस्वीर खिंचवाने अलबत्ता जल्दी पहुंच जाते हैं.
ग्रामीण और पिछले तबके की महिलाएं शराबबंदी के समर्थन में लामबंद हो रही हैं. ज़मीनें बचाने के लिए आदिवासी नक्सली हो रहे हैं. देश की आर्थिक नीतियां बल्कि विदेश नीति भी गुलाम हो रही है. कांग्रेस के पतन का पुरानी नीति-कथाओं का पुस्तकालय भी नहीं बचा. ऐसे में एकाध प्रदेश में आंदोलन, धरना, भूख हड़ताल, जुलूस या आंदोलन के जरिए इतिहास की कोई नई डगर पगडंडी की तरह भी कैसे बनाई जा सकती है ?
कांग्रेस कभी दाखिलदफ्तर नहीं हो सकती. कांग्रेस बड़े जतन से रखा हुआ नीबू का पुराना अचार है. खराब सेहत के लिए वह दवा की तरह गुणकारी होता है. अचार पर लापरवाही की फफूंद पड़ जाए, तो भी उसे फेंका नहीं जाता. उसे साफ करने से अचार की गुणवत्ता उजागर हो उठती है. फफूंद परत दर परत जमती चली जाए, उसे साफ करने में लगातार लापरवाही हो तो मर्तबान में रखा अचार उपयोग करने के लिए संदिग्ध हो जाता है.
कांग्रेस की ताकत
कांग्रेस की अंदरूनी ताकत उसकी परस्पर असहमति रही है. तिलक और गोखले में कितनी पटी ? गांधी और सुभाष कहां एक थे ? नेहरू से सरदार पटेल के कितने मतभेद नहीं थे ? नरमदल और गरमदल यहां तक कि बाप बेटे मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू या पति-पत्नी आचार्य कृपलानी और सुचेता कुपलानी में राजनीतिक दृष्टि से कहां पटीं है ? गांधी ने तो पूरी कांग्रेस के खिलाफ अनशन करके कई बार जेहाद बोला. उस समय तकरारें कांग्रेस की बेहतर सेवा के उद्देश्य से होती थी. फिर कांग्रेस के नाम पर बेहतर मेवा खाने के लिए संघर्ष का नाटक किया जाने लगा. असहमति का मतलब एक दूसरे की पीठ पर छुरा मारना नहीं होता.
कांग्रेसी नेतृत्व की गमलों में बोनसाइ की खेती होती है. कांग्रेस भी गरीबों और आदिवासियों की भूमियां छीनकर अरबपति उद्योगपतियों को खरबपति बनाती रही है. कांग्रेसी नेता आपस में भारत और पाकिस्तान से भी ज़्यादा लड़ते हैं. पार्टी में मिडिल फेल जी-हुजूरियों की भी बहार होती है. वे उच्च कमान के सलाहकार तक हो जाते हैं. कांग्रेस की कमजोरी का एक कारण समाजवाद, राष्ट्रीयकरण के स्वप्न और मानवीय दृष्टिकोण को भोथरा करने से भी है.
कांग्रेस की पुश्तैनी अस्मिता, कर्मठता और चरित्र पर खुशामदखोरी, चाटुकारिता, भ्रष्टाचार और अदूरदर्शिता की फफूंद लगी है. कांग्रेस को बीन बीन कर सत्ता के दलालों ने संगठन से कान पकड़ कर निकाल दिया, जिन दलालों का सफाए का संकल्प उसने 1985 के चुनाव घोषणा-पत्र में किया था. चंडाल चौकड़ियां अमरबेल की तरह उसके जिस्म से लिपटी उसे आज भी चूस रही हैं.
केन्द्र से लेकर जिला स्तर तक कांग्रेस के विचार विभाग खामोश हैं. कांग्रेस परिवार की पत्रिकाएं भी ठीक से प्रकाशित प्रचारित नहीं होतीं. कांग्रेस के विभिन्न मंचों पर अर्थशास्त्रियों, राजनीतिवेत्ताओं, समाजशास्त्रियों, कानूनविदों ओर अध्यापकों को आमंत्रित नहीं किया जाता. स्कूल के जलसों में कांग्रेस नेता घण्टों बैठे छात्रों को प्रोत्साहित करते थे. कांग्रेस के विभिन्न सांगठनिक कार्यालयों में जन-समस्याओं को लेकर तर्कपूर्ण, प्रामाणिक और आंकड़ों सहित बहस होती थी कि प्रशासन खौफ खाता था.
कांग्रेस के बड़े नेताओं के पत्रों में तो समकालीन इतिहास बोलता रहा है. सोच की यह पार्टी नागरिकों के जेहन में विचारों को तेजाब की तरह भरती थी. आज बदजुबानी का तेजाब कानों में उड़ेला जाता है. पहले कांग्रेस टिकिट बैंक के खुले चेक की तरह होती थी, उस पर लोकसभा या विधानसभा की सीट का नाम लिख देने से जनता के बैंक में भुनाया जा सकता था ?
नव धनाड्य तथा अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े साहबजादों ने राजनीति को सेवा के बदले रोमांटिक फ्लर्टिंग की वस्तु समझा और पुरानी पार्टी से छेड़खानी करने लगे. कुर्बानी की रही पार्टी सफेदपोश अय्याश नेताओं का चारागाह बन गई. नेतागिरी जनता के बीच जाने के बदले अखबार के विज्ञापनों में सिमट गई. पार्टी किसान के खेतों और कारखानों से निकलकर मंत्रियों के बंगलों के सामने सहमी खड़ी रही. ‘भ्रष्टाचार’ शब्द कांग्रेसी शब्दकोश में अप्रासंगिक बनाया जाने लगा.
कांग्रेस नहीं हारी है. उसके उम्मीदवार हारे हैं. इन उम्मीदवारों के राजनीतिक आका हारे हैं. उनका चयन-विवेक हारा है. इतिहास की इन दुर्घटनाओं से कांग्रेसी नेतृत्व सबक सीखे तो होने वाले किसी अगले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ किए गए नकारात्मक वोट उसकी झोली में लौट भी सकते हैं. देश आतंकवादी पार्टियों, धर्मान्ध कठमुल्लाओं और संकीर्ण सम्प्रदायवादियों की बलि नहीं चढ़ना चाहता. कांग्रेस देश में सर्वोच्च ज्ञान का बहता, चलता फिरता पुस्तकालय रही है. वह वर्षों से ताला बन्द पड़ी किताबों की दूकान नहीं थी.
संगठन के चुनाव से वर्षों तक कांग्रेस का सरोकार ही नहीं रहा. कांग्रेस का संविधान पुरानी संदूकों में दीमक खाता रहा. आसमान से टपके मनोनीत पदाधिकारी नौकरशाही और संस्था के बीच सत्ता की ताश फेंटते रहे. कायर सेना भीतरघात करती है और पीठ पर खंजर भी मारती है. कांग्रेस श्रेष्ठि वर्ग ने पूरे मतदाताओं को ही धकेलकर ऐसी जगह ला खड़ा किया कि उन्हें विकल्प तक ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी. पराजय की चोट उनके माथे है, जिन्होंने अपनी तिकड़मों से ऐसे उम्मीदवारों को टिकिट दिलाई जिनमें चुनाव जीतने की कूबत ही नहीं थी अथवा जो राजनीतिक सूबेदारों के मुंहलगे सिपहसलार मात्र थे.
कांग्रेस नहीं हारी है, उसके उम्मीदवार हारे हैं, इन उम्मीदवारों के राजनीतिक आका हारे हैं, उनका चयन-विवेक हारा है. इतिहास की इन दुर्घटनाओं से कांग्रेसी नेतृत्व सबक सीखे तो होने वाले किसी अगले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ किए गए नकारात्मक वोट उसकी झोली में लौट भी सकते हैं. देश आतंकवादी पार्टियों, धर्मान्ध कठमुल्लाओं और संकीर्ण सम्प्रदायवादियों की बलि नहीं चढ़ना चाहता.
कांग्रेस को सबक
देश को आज़ादी दिलाने पार्टी इन दिनों संकटग्रस्त, संघर्षोन्मुख और असमंजस के दौर में है. कांग्रेस 138 वर्ष की उम्र में आलोचकों की बूढ़ी, थकी और हांफती हुई शक्ल में तब्दील नज़र आ रही है. राजनीति के केन्द्र में रहते रहते कांग्रेस को धीरे धीरे उन विचारधाराओं को भी केन्द्र में बिठाने की जुगत बिठानी पड़ रही है, जिनका इतिहास बहुत अधिक उज्जवल नहीं है.
विश्व इतिहास में हर दशक में सैकड़ों बुद्धिजीवी सेनापति पैदा करने वाली उर्वर-गर्भा पार्टी के पास करिश्माई नेतृत्व का संकट है. आज़ादी के सूरमाओं ने एक के बाद एक कांग्रेस का बुनियादी विचारधारा के विश्वविद्यालय के रूप में संस्कार रचा. लेकिन अब उनका ही कोई महत्व कांग्रेसियों के लिए नहीं रहा. 138 साल पुरानी पार्टी पूर्वजों के इतिहास, कर्म, संघर्ष और सीख की अदृश्य पोथी की गठरी सिर पर लादे है, लेकिन खोलकर नहीं पढ़ती.
लोकसभा में 1989, 1991, 1996, 1998 और 1999 के चुनावों के भी लगातार त्रिशंकु होने पर कांग्रेसी भले ही गाल बजाते रहे कि किसी पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत नहीं दिया. प्रकारान्तर से यही अर्थ हुआ कि जनता ने 1989 के बाद अकेली रहती कांग्रेस को केन्द्र की सत्ता से बेदखल कर दिया. अलग है कि सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के कारण उसे पांच वर्ष सत्ता में रहने का राजनीतिक परिस्थितियों के कारण 1991 में अवसर मिल गया था, और 2003 तथा 2008 में भी.
अगला चुनाव जब भी हो, कोई कारण मौजूद नहीं है कि कांग्रेस सहित किसी भी सहयोगी विचार की एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत लोकसभा में मिल जाए. कांग्रेस के सन्दर्भ में तो इसका अर्थ उसकी हार से ही होगा. लोकतंत्र में सत्तासीन होना ही सफल होना है. लोक समर्थन का थर्मामीटर चुनाव के मौके पर ही लोकप्रियता का बुखार नापता है. कांग्रेस का साम्राज्य पूरे देश में इसी तरह दरकता चला जा रहा है तो वह आत्मसन्तुष्टि नहीं बल्कि चिन्ता, शोध और परिष्कार का विषय होना चाहिए.
भविष्य कांग्रेस से पूछ रहा है कि क्या चुनावों में मुंह की खाने के बाद इस ऐतिहासिक संगठन में संघर्ष के वे जीवाणु अब भी कहीं कुलबुला रहे हैं, जिन्होंने बासठ गौरवशाली बरसों में देश की तीन पीढ़ियों का अंग्रेज की तोपों के मुकाबले प्रेरक नेतृत्व किया ? लाल किले की प्राचीर पर ब्रिटिश यूनियन जैक उतारने के बाद तिरंगे को जवाहरलाल नेहरू के हाथों फहराकर जिन मूल्यों का परचम लोकतंत्र की राजनीति में कांग्रेस ने आसमान की छाती पर उछाला था.
क्या वे मूल्य मौजूदा कांग्रेसजनों के लिए धीरे-धीरे इतिहास की गुम होकर ही धरोहर नहीं बनते जा रहे हैं ? क्या अब भी कांग्रेस के कर्णधार पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को ढोने लेकिन नहीं बांचने का दंभ लिए मतदाताओं को घर की मुर्गी समझते रहेंगे ? कोई डंके की चोट पर नहीं कहता कि अगले लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को बहुमत तो क्या सबसे बड़ी पार्टी होने का गौरव भी हासिल होगा.
कोई सौ वर्ष तक कांग्रेस हिन्दुस्तानी राजनीतिक जमीन पर वट वृक्ष की तरह फलती-फूलती रही है. शायद उसे दंभ हो गया था कि इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र का इतिहास इस वट वृक्ष के नीचे ही पनप सकता है. लोकतंत्र ने मतदाताओं के विवेक के बलबूते पर यह तिलिस्म भी तोड़ा. कांग्रेस इतिहास के शाश्वत मूल्यों के म्यूजियम के रूप में तो जीवित रहेगी लेकिन समकालीन मूल्यों और भविष्य की चुनौतियों के लिए जनमानस के विश्वास की जमानतदार क्या बन पाएगी ?
1977 की हार को लेकर कांग्रेस ने समझ लिया था कि मतदाताओं ने आपातकाल लगाना मंजूर नहीं किया था. नसबन्दी जैसे कई सरकारी कार्यक्रमों को निजी जीवन में हस्तक्षेप माना था. व्यक्ति स्वातंत्र्य को नष्ट करने की शासकीय हरकतें चाहे विरोधी नेताओं की गिरफ्तारी हो या प्रेस सेंसरशिप को भी जनता ने कबूल नहीं किया था. लेकिन उस समय कांग्रेस के पास करिश्माई इंदिरा गांधी उपलब्ध थी. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर सघन चारित्रिक भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे थे.
कांग्रेस की पराजय के लिए दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक कारण मौजूद हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. मानसिक चिन्ताओं का यह बिन्दु है जिस पर कांग्रेस को विचार करना है. विधायिका की बहसों में कांग्रेस सदस्यों के भाषण जनता में उस उत्साह और चुनौती का संचार नहीं करते जो उनके पूर्वज किया करते थे. जनसभाओं में लोग भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी पार्टियों के नेताओं के भाषण सुनने आज भी जाते हैं. कांग्रेस ने भाषण कला को ही तिरोहित कर दिया है.
इस पार्टी में श्रीनिवास शास्त्री, मौलाना आज़ाद, सुभाष बोस, सरोजिनी नायडू और जगजीवनराम जैसे अद्भुत वक्ता रहे हैं. उसे वाक् कौशल से इतनी जल्दी परहेज नहीं करना चाहिए था. वक्तृत्व कला नेता का आभूषण नहीं बल्कि जनता से संवाद का समीकरण है. यह सीधा माध्यम पारस्परिक होने से सदैव महत्वपूर्ण होता है. संसद की कार्यवाही की सीधी रपट दूरदर्शन पर दिखाये जाने के दिनों में इस कला की बारीकी परवान चढ़ती जा रही है.
लिखने, पढ़ने और बोलने की त्रैराशिक से लैस होकर ही कांग्रेस अंग्रेजी हुकूमत का हिसाब तमाम करती रही. आज भी उसे विचारों की उतनी ही जरूरत है. मीलों फैले वैचारिक मरुस्थल में जब कभी कोई इक्का-दुक्का नेता अपनी बौद्धिकता का प्रदर्शन करता है, तो कांग्रेस बेंचों में उत्साह का संचार होता रहा है. हाल के वर्षों में पी.वी. नरसिंहराव, अर्जुन सिंह, पी. चिदम्बरम आदि इस कला के उदाहरण रहे हैं.
विधानचंद्र राय, राजगोपालाचार्य, रविशंकर शुक्ल, डाॅ. सम्पूर्णानन्द आदि मुख्यमंत्रियों की नस्ल के मुख्यमंत्री भी बाद में दिखाई नहीं पड़े. अब भी ऐसे लोग हैं जो तर्क करेंगे कि बुद्धि कौशल के बदले कांग्रेस को कर्म के जमीनी नेताओं की आवश्यकता है. बुद्धि और कर्म का आपस में छत्तीस का आंकड़ा नहीं है. यही बात तो कांग्रेस ने एक एक देश सेवक को सिखाई थी.
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