सुब्रतो चटर्जी
आज मैं जो आपको बताने जा रहा हूं उसे सोने के फ़्रेम में मढ़ कर रख लीजिए भविष्य के लिए. हालिया सम्पन्न गोबरपट्टी के चुनावों में भाजपा की इवीएम जीत के कई निहितार्थ हैं.
पहला यह कि अदानी के लिए छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों की अबाध लूट का रास्ता हमेशा के लिए खोल देना और अगर ज़रूरत पड़ी तो छत्तीसगढ़ को दूसरा मणिपुर बना देना.
मध्य प्रदेश की हार का अर्थ मोदी की हार नहीं थी. दरअसल यह हार हिंदुत्व के गुजरात से भी पुरानी प्रयोगशाला का मटियामेट हो जाना था, जिसे संघ को किसी भी क़ीमत पर मंज़ूर नहीं था. इसलिए हरेक फ़ासिस्ट षड्यंत्रकारी तरीक़े को अपना कर भाजपा ने मध्य प्रदेश जीता.
राजस्थान की जीत के मायने को कई लोग हिंदुत्व की जीत बता रहे हैं, जो कि गोबरपट्टी के छिछले तथाकथित बौद्धिक पत्रकारों के दिमाग़ की उपज है. दरअसल राजस्थान में हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बनाना है, इसलिए चुनाव को हैक कर लिया गया.
मूलतः, मैं इस बहस से इत्तेफाक नहीं रखता कि कांग्रेस को क्या करना चाहिए था या जनता ने क्या ग़लती कर दी, क्योंकि फासीवाद में न विपक्ष के हाथों कुछ होता है और न ही जनता के हाथों कुछ बचता है, विशेष कर चुनावी राजनीति में. इसलिए कहा जाता है कि फ़ासिस्ट चुनाव के ज़रिए सत्ता पर क़ाबिज़ तो होते हैं, लेकिन चुनाव के ज़रिए हटाए नहीं जा सकते हैं.
इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो चाहे नीतीश कुमार बनारस से लड़ जाएं या चाहे एकीकृत विपक्ष 62% वोटों को अपने पाले में खींच लाए, जीतेगा तो मोदी ही. इवीएम के रहते आप शत प्रतिशत वोट पाकर भी मोदी को नहीं हरा सकते हैं, यह नोट कर रख लीजिए.
अब आते हैं बड़े सवाल पर. मोदी और संघ को पता है कि गोबरपट्टी और गुजरात के बाहर उनको कोई घास नहीं डाल रहा है. सैद्धांतिक रूप से महाराष्ट्र, बंगाल और दक्षिण भारत में उनका रास्ता बंद हो चुका है.
जिनको बिहार के बारे ग़लतफ़हमियां हैं उनको बता दूं कि भूराबाल भाजपा के साथ पूरी तरह से खड़ा है, चाहे वह किसी कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर ही क्यों न हो. सामाजिक जीवन का जब आप द्वंद्वात्मक विश्लेषण करेंगे तब आपको समझ आएगा कि यह सिर्फ़ एक अंकगणित नहीं है.
बात सिर्फ़ इतनी नहीं है कि भूराबाल की संख्या कितनी है, बात यह है कि बौद्धिक और आर्थिक संपदाओं पर इनके पारंपरिक क़ब्ज़े के परिणामस्वरूप इनका कितना प्रभाव समाज की अन्य जातियों पर है. यक़ीन मानिए कि यह प्रभाव बहुत बड़ा है और इसका बहुत बड़ा असर चुनाव पर पड़ता है. इसलिए मंडल वाद के चुके हुए जिस कारतूस के सहारे नीतीश या अखिलेश लड़ाई में बने रहने की कोशिश में हैं, वह किसी भी हाल में उनको चुनावी जीत नहीं दिला सकती है.
बेवक़ूफ़ी की दुनिया में रहने का अलग ही मज़ा है और कांग्रेस इस मुग़ालते में है कि गोबरपट्टी के लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार कोई मायने रखता है, नहीं रखता है. मंहगाई, ओपीएस और अग्नीवीर जैसे मुद्दे भी नहीं रखते हैं. भिखारियों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
अब आते हैं तीसरे बड़े सवाल पर. भाजपा और संघ का असल खेल क्या है ? दरअसल 2025 तक भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है और संघ की शतवार्षिकी में इससे बड़ा उपहार मोदी उसे नहीं दे सकते हैं. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मोदी को कुछ बातों पर ध्यान देना होगा –
पहला, गोबरपट्टी के सभी राज्यों को येन तेन प्रकारेण जीतकर राज्यसभा में ज़रूरी बहुमत प्राप्त करना होगा, क्योंकि के सी आर की अनुपस्थिति में सिर्फ़ गे पटनायक के भरोसे नहीं रहा जा सकता है. संविधान को बदलने के लिए यह ज़रूरी है.
दूसरा, लोक सभा निर्वाचन को इवीएम से हैक कर 2024 के चुनाव को कम से कम दो तिहाई बहुमत से जीतना होगा, जो वे इज्राइल के चिप की मदद और ग़ायब हुए 19 लाख इवीएम मशीन के सहारे आसानी से कर लेंगे.
तीसरा, 2024 का चुनाव जीतने के बाद संविधान बदल देंगे और भारत को 2025 में हिंदू राष्ट्र आधिकारिक तौर पर घोषित कर देंगे. देश में बहुदलीय लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा.
मोदी देश के आजीवन राष्ट्रपति घोषित होंगे और देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो जाएगी. भारत को नया पुतिन या जी शिन पिंग मिल जाएगा और न्यू वर्ल्ड ऑर्डर की स्थापना हो जाएगी. कांग्रेस या किसी भी चुनावी राजनीति में यक़ीन रखने वाले राजनीतिक दलों में इस षड्यंत्र का कोई जवाब नहीं है.
कोठा (सुप्रीम कोर्ट) पर आस्था रखने वाले मूर्खों को बता दूँ कि बाबरी मस्जिद फ़ैसले को देने वाले चार जजों में एक व्यक्ति आज के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ भी थे, बाक़ी आप समझ जाइए. अब आप स्थिति को इसकी संपूर्णता में समझिए. चुनाव आप इवीएम के रहते जीत नहीं सकते.
न्यायपालिका किसी भी देश में फासीवाद लाने के लिए एक अहम हथियार होता है तो भारत में कैसे अपवाद हो, इसलिए उससे कोई उम्मीद करना गधत्व की पराकाष्ठा है.
प्रेस आपके साथ है नहीं और इक्का दुक्का अर्द्ध विकसित राजनीतिक सोच वाले यू-ट्यूबरों के सहारे आपकी बात ज़मीनी स्तर तो पहुंचने से रही. हां, उनकी दुकानदारी के लिए तो फ़ासिस्ट भी स्पेस बनाए रखेंगे ताकि लोकतंत्र का स्वांग बना रहे.
जन आंदोलन आपके बूते की बात नहीं है और आप सोचते हैं कि आरक्षण जैसे फ़ालतू मुद्दों के नैरेटिव के सहारे आप फासीवाद का मुक़ाबला करेंगे तो आपके संपूर्ण गधत्व को शत शत नमन. फिर रास्ता क्या बचा है ? सोचिए, दुबारा आऊंगा इसके समाधान पर.
फ़िलहाल बता दूं कि 1950 के दशक में मेडिकल कॉलेज में एक प्रोफ़ेसर ने तीस दिनों तक कैंसर का चैप्टर पढ़ाने के बाद मेरे पिताजी के क्लास के लड़कों को पूछा था – ‘And students, do you know what is the answer to cancer ? ‘An ounce of bullet in the patient’s head is the answer.’
अब ये गोली को हिटलर की पिस्तौल से निकलने से रही, क्योंकि यहां कोई लाल फ़ौज नहीं है, फिर कहां से आएगी ? सोचिए.
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