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हमारी भाग्यवादी मानसिकता, पलायनवादी प्रवृत्ति और अकर्मण्यता का ही परिचायक है

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हमारी भाग्यवादी मानसिकता, पलायनवादी प्रवृत्ति और अकर्मण्यता का ही परिचायक है
हमारी भाग्यवादी मानसिकता, पलायनवादी प्रवृत्ति और अकर्मण्यता का ही परिचायक है
राम अयोध्या सिंह

समाज में हमारे आसपास एक से एक विचित्र लोग भरे पड़े होते हैं. अपनी शक्लो-सूरत, अपनी बुद्धि, अपने शौक, अपनी पसंद, अपनी बातचीत के ढंग, अपनी चाहतों, अपने स्वाभाव, अपने चरित्र, अपनी आदतें और आपनी महत्वाकांक्षी मनोवृत्तियों के कारण सभी अपनी अलग-अलग पहचान लिये होते हैं. सबके प्रति हमारी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है. सभी हमें अलग-अलग तरह से प्रभावित करते हैं, सभी अलग-अलग मनोभाव पैदा करते हैं, और सबकी अलग-अलग वैयक्तिक, राजनीतिक और सामाजिक मान्यताएं होती हैं. कोई प्यारा लगता है, कोई भला लगता है, कोई घृणा पैदा करता है, कोई विकर्षण पैदा करता है, किसी को गले लगाने का मन करता है, तो किसी को लात मारने का मन करता है.

कितना अजीब लगता है कि हम प्रतिदिन कितने अजीब-अजीब लोगों के साथ मिलते हैं. ऐसे लोगों में से ही एक अजूबा ऐसा भी होता है, जो अपनी पूरी जिंदगी कभी सच नहीं बोला, कभी मेहनत का कोई काम नहीं किया, हरामखोरी उनका स्वाभाव रहा, और अपने को दुनिया का शहंशाह समझता रहा हो. जी हां, इस अजीबोगरीब दुनिया में ऐसे लोग बहुतायत में मिल जायेंगे, जिनके मुखारविंद से आप कभी चाहकर भी सच सुनने के लिए तरस जायेंगे.

एक आदमी है, जिसे मैं बचपन से जानता हूं. आजतक की जिंदगी में उसने कभी सच नहीं बोला. सच से उसकी पैदाइशी दुश्मनी है. दोनों के बीच छत्तीस का रिश्ता है. दोनों पृथ्वी के दो ध्रुवों – उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के समान हैं. सच तो उससे पनाह मांगता है. सच की क्या हिम्मत जो उसको देखकर एक पल भी खड़ा रह जाये. जैसे कर्ण को जन्म के साथ ही कवच और कुण्डल मिले थे, उसी तरह इसे भी जन्म से ही झूठ का कवच-कुण्डल मिला हुआ है. सच का कोई भी वार उस पर काम नहीं कर सकता.

उसके झूठ के तरकश में झूठ के इतने वाण हैं कि वे कभी खत्म ही नहीं होते. जिस तरह से उसके तरकश से झूठ के तीर चलते हैं, उसके आगे तो परशुराम, भीष्म पितामह, भार्गव, द्रोणाचार्य, अर्जुन और कर्ण भी पानी भरते नजर आयेंगे. आपसी बातचीत में एक साथ वह इतने झूठ की चालें चलता है कि आप जबतक एक को पकड़ने की कोशिश करते हैं, वह चार चाल आगे की चल देता है. हां, जब कभी कोई उसके झूठ को पकड़ने की स्थिति में होता है, तब वह जानबूझकर झगड़ा कर लेता है, और चिल्ला चिल्लाकर आपके सच को ही झूठ साबित करने का प्रयास करता है. झूठ उसके लिए प्राणवायु है. बिना झूठ के वह जी ही नहीं सकता.

झूठ बोलने की उसकी इस आदत के पीछे सबसे बड़ा कारण है कि वह मूलतः हरामखोर है. काम करना वह अपनी तौहीन समझता है. हर चीज के लिए वह दूसरों पर आश्रित रहा है. उसने बचपन में ही यह मान लिया था कि वह राजकुमार है, और वह किसी राजा का बेटा है. यह बात दीगर है कि न तो वह कभी राजकुमार हो सका, और न ही उसके पिता ही कभी राजा थे. उसके पिता पुलिस विभाग में एक चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी यानी सिपाही थे. उसके पिता भी खुद को राजा ही समझते रहे, और वो भी मूलतः हरामखोर ही थे.

वह एक साथ ही अपने को सबसे सुंदर, सबसे सुयोग्य, सबसे धनवान, सबसे बलवान और सबसे महान समझता रहा है. वास्तव में वह क्या है, या कब क्या रहा और क्या किया, किसी को भी ठीकठाक से पता नहीं है. हां, फेंकता है बड़ी दूर की, जहां तक सब कोई सोच भी नहीं सकता. पढ़ाई-लिखाई में कामचलाऊ था. आजतक किसी ने उसकी डिग्री या प्राप्तांक नहीं देखा है. किसी को उसने कभी दिखाया ही नहीं.

गांव के अनपढों के बीच अंग्रेजी की कोई किताब लेकर बैठ जायेगा, और झूठमूठ कुछ न कुछ सुनाता रहता है. कभी हिन्दी की कोई किताब नहीं लेकर जाता था. अब गांव में कौन जानता है कि अंग्रेजी की किताब में क्या लिखा है ? गांव के जितने भी शोहदें, गंदे और गलत लोग, जिसे आप आवारा और लंपट कह सकते हैं, उन्हीं लोगों के साथ उसकी पटरी बैठती थी. विशिष्ट लोगों से जान पहचान करके स्वयं को भी विशिष्ट समझने की उसकी पुरानी बीमारी रही है.

पढ़ाई तो पटना विश्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक किया, पर जेएनयू से कोई डिग्री नहीं मिल सकी, क्योंकि एम. ए. की परीक्षा उसने दिया ही नहीं. लेकिन, भांजता ऐसा है मानो जेएनयू में वही अकेला पढ़ने वाला था. वैसे कहने के लिए वह अपने को एम. ए., एम. फिल. और रिसर्च स्कॉलर भी कहता है. प्रमाणपत्र के संबंध में कहता है कि सब चोरी चले गये. अरे भाई, चोरी चले जाने के बाद भी तो विश्वविद्यालय से डूप्लीकेट प्रमाणपत्र और प्राप्तांक मिल ही जाते हैं. अब जब डिग्री है ही नहीं, तो दिखाये कहां से ? अब कोई लड़ाई करने के डर से ज्यादा पूछताछ करता नहीं.

पर, सच्चाई यही है कि वह बीए पास है, और जेएनयू से कोई भी डिग्री उसके पास नहीं है. दिल्ली में रहना ही उसने इसलिए पसंद किया कि वहां रहने पर गांव वाले उसकी हकीकत को नहीं जान पायेंगे. नेताओं या कोई और भी बड़े लोगों के साथ अपनी निकटता दिखाकर और साबित कर गांव वालों पर रौब जमाना उसकी फितरत है. कभी भीष्म नारायण सिंह, कभी दिग्विजय सिंह, कभी मोतीलाल बोरा, कभी अर्जुन सिंह, कभी डीपी त्रिपाठी और कभी किसी और के नाम का सहारा लेकर स्वयं को भी वैसा ही समझने का भ्रम पाले रखता है. गांव के अनपढों पर इसका रौब गालिब कर अपने को गौरवान्वित समझता है.

कोई भी काम करने के लिए उससे कहिए, वह बोल पड़ेगा, यह तो चुटकी बजाते हो जायेगा. पर, सच्चाई यह है कि वह काम कभी भी नहीं होगा। कभी अमेरिका, कभी इंग्लैंड, कभी जर्मनी और कभी फ्रांस का नाम लेकर कहेगा कि अब तो कुछ ही दिनों की बात है, वह भारत छोड़कर इन्हीं देशों में से किसी देश में बसने वाला है. अपने, अपनी बीबी, अपना बेटा और अपनी बेटी के बाद उसकी दुनिया खत्म हो जाती है. बेटी सिर्फ अंग्रेजी में ही बात करती है, और शीघ्र ही अमेरिका लाखों डालर के पैकेज पर जाने वाली है.

अपनी पूरी जिंदगी में अपने परिवार में एक धेला भी कभी खर्च नहीं किया है, पर भांजेगा ऐसा कि परिवार की सारी जिम्मेदारी का वहन वही किया है. यहां तक कि अपनी मां का फैमिली पेंशन भी आठ साल तक खाता रहा. आजतक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिस पर इसका एक भी पैसा कभी खर्च हुआ है. पर, ऐसे अनेकों लोग मिल जायेंगे, जिन्होंने इसे आर्थिक लाभ पहुंचाया, पर नाम किसी का भी नहीं लेगा.

झूठ के कवच से स्वयं को संरक्षित कर स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान और ज्ञानी समझना तथा दुनिया के संचालन की सारी जिम्मेदारी उसी की है, यह आज भी साबित कर देगा. वह नहीं होता, तो भारत न जाने कहां पहुंचे जाता. अगर वह पूरब से आ रहा है, और आप पूछिए कि कहां से आ रहे हैं, तो छुटते ही कहेगा कि पश्चिम से आ रहे हैं. सपने में भी सच के साथ उसकी सहभागिता कभी नहीं होती. एक बात की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी कि पूरी जिंदगी झूठ बोलकर बीता देना भी कोई मामूली बात नहीं है. धन्य हैं ऐसे लोग, जिनसे सच भी पनाह मांगता है. लेकिन, क्या कीजिएगा, दुनिया में ऐसे विरले लोग भरे-पड़े हैं. ये लोग नहीं हों, तो दुनिया नीरस हो जायेगी. ऐसे लोगों को सामुहिक रूप से भारतरत्न देना चाहिए.

पहले गांव में हर सप्ताह रामायण के नाम पर भजन, कीर्तन और गीत-गवनई होते थे, जिसमें यह भजन जरूर लोग गाते थे — ‘क्या मांगने में लाज है भगवान के आगे.’ ऊपर वाले भगवान का तो कोई पता-ठिकाना नहीं चला, पर दुनियादारी ने यह सिखलाया कि दुनिया में जो भी शक्तिशाली है, धनी है, प्रभावशाली और प्रतिष्ठित है, वही भगवान है, और इसी भगवान के आगे गिड़गिड़ाते मैंने लोगों को देखा भी है. इसी भगवान के हाथ में बनाने और बिगाड़ने की ताकत होती है.

हाथ पसारने या भीख मांगने की परंपरा भारत में बहुत प्राचीन है, और शास्त्रों में इसे गौरवान्वित भी किया गया है. प्राचीन गुरुकुल में भी शिक्षार्थियों को अपनी जीविका के लिए प्रतिदिन भिक्षाटन करना जरूरी था. पाण्डवों को भी वनवास के क्रम में भीख मांगकर जीना पड़ा था. आज गांवों में पहले की तरह तो भीखमंगे नहीं दिखाई देते, पर अब धर्म के नाम पर कभी यज्ञ तो कभी मंदिर के लिए चंदा मांगते नजर आते हैं. यह भीख मांगने की मानसिकता और प्रवृत्ति ही भारतीयों की अकर्मण्यता का सबसे बड़ा कारण है.

अपने पूरे छात्र जीवन में किसी भी स्तर पर मैंने किसी शिक्षक को किसी भी सामाजिक समास्या के संबंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करते नहीं देखा. आम जीवन के संबंध में आम लोगों की मानसिकता का ही प्रमाण वे शिक्षक भी देते थे. यही नहीं, कालेज और विश्वविद्यालयों के अधिकतम प्रोफेसरों को भी देखा है कि जीवन और समाज की समस्या के संबंध में उनके विचारों और सामान्य अनपढ़ लोगों के विचारों में कोई अंतर न होकर साम्य है. आखिर इतना पढ़ने और पढ़ाने का क्या मतलब, जब सोच, विचार, मान्यता और मानसिकता में कोई अंतर ही नहीं है ?

सचमुच ही हम भारतीय सिर्फ नौकरी करने के लिए ही पढ़ते हैं. पढ़ने के साथ ही विचारों, मान्यताओं, सोच और मानसिकता में अंतर बहुत कम ही लोगों में मैंने देखा है, और ऐसे लोग सामान्यतया समाज द्वारा अस्वीकृत होते हैं, या बहिष्कृत होते हैं. नयी सोच, नये चिंतन, नये विचार, नया दर्शन और नये दृष्टिकोण पर हर जगह पहरे लगे हुए हैं. धर्म, ईश्वर, परंपरा, रीति-रिवाज और पूर्वजों के नाम पर लीक का फकीर बने रहना ही भारतीयों की नियति बन गई है.

यूरोपियन लोगों ने ईसाई धर्म से लड़ न सिर्फ धर्म को, स्वयं को और समाज को बदला, बल्कि मानव सभ्यता और मानव इतिहास को बदलने और मानवता की रक्षा के लिए धर्मसुधार, प्रबोधन और पुनर्जागरण के माध्यम से सार्वभौमिक मानवतावाद की स्थापना के लिए आधुनिकता, बौद्धिकता, विज्ञान, अनुसंधान, आविष्कार और तर्क को समाज में स्थापित किया, और हम आजतक भी धर्म और धार्मिक पाखंडों, कर्मकांडों और अंधविश्वासों के जाल में जकड़े हुए हैं. प्रभु, हे प्रभु की टेर लगा रहे हैं.

यह हमारी भाग्यवादी मानसिकता, पलायनवादी प्रवृत्ति और अकर्मण्यता का ही परिचायक है. आधुनिक भौतिक सुविधाओं को अगर छोड़ दिया जाये तो हम बौद्धिक और मानसिक स्तर पर आज भी पांच सौ साल पीछे की जिंदगी जी रहे हैं, और आश्चर्य इस बात का है कि हम उस पर शर्म करने के बजाय गर्व करते हैं.

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