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सच और झूठ के संघी खेल को उजागर करना आज की जरूरत

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सच और झूठ के संघी खेल को उजागर करना आज की जरूरत
सच और झूठ के संघी खेल को उजागर करना आज की जरूरत

प्रोपगैंडा से सच को झूठ और झूठ को सच बनाया जा सकता है. यह मौजूदा संचार माध्यमों के के दौर में ही नहीं, बल्कि हर समय के लिए यह सच है. इसलिए एक सतर्क पाठक को सदैव संदेहवादी होना चाहिए. प्रोपगैंडा का इस्तेमाल कर सच को झूठ और झूठ को सच बनाने का कार्य सदैव ही पतनशील ताकत करती है. चूंकि भारत के पतनशील इतिहास को महिमामंडित करना और गौरवशाली इतिहास को गायब कर देने के ‘महती’ कार्य में आरएसएस को महारत हासिल है, इसलिए संघियों द्वारा प्रस्तुत धुआंधार प्रोपगैंडा का पर्दाफाश कर सच को स्थापित करना आज एक बेहद जरूरी काम है.

संघी प्रोपगैंडा का माध्यम केवल सोशल मीडिया, गोदी मीडिया के दलाल ‘पत्रकार’ ही नहीं हैं, अपितु कई फर्जी इतिहासकार भी इसका माध्यम बने हुए हैं. वे अपनी कपोलकल्पना, सतही जानकारी और झूठे तथ्यों की मिलावट से ऐसे ऐसे फर्जी इतिहास गढ़ रहे हैं कि आश्चर्य होता है कि ये लोग आम लोगों को कितने मूर्ख समझते हैं. इसी कड़ी में हम यहां दो पुस्तकों का उल्लेख कर रहे हैं. पहली पुस्तक जहां सच को उजागर करता है, वहीं दूसरी किताब झूठ को इतिहास बनाने की कवायद करता है. सच और झूठ के इस संघी खेल को उजागर किया है मि. नसीर अहमद और विनोद कोचर ने.

‘बहादुर शाह ज़फर के शासनकाल में धर्मपरिवर्तन पर रोक थी. बादशाह से इजाज़त लेनी पड़ती थी. एक हिंदू ने मुसलमान होने के लिए अर्जी दी. बादशाह के सामने उसकी पेशी हुई. बादशाह ने पाया कि उक्त शख्स फायदा उठाने के लिए मुस्लिम होना चाहता है. इजाज़त नहीं दी गई. बकरईद पर मुस्लिम धार्मिक धड़े की तरफ से मांग उठी कि ‘हम गाय की कुर्बानी करेंगे.’ बादशाह ने इसकी अनुमति नहीं दी…’.

यह सब कपोल कल्पना या वाट्सएप ज्ञान नहीं है; विलियम डेलरिंपल की किताब ‘The Last Mughal’ में छपे हुए ऐतिहासिक तथ्य हैं. इस किताब को डेलरिंपल ने एतिहासिक प्रमाणों के आधार पर लिखा है. उन दिनों भी अखबार छपते थे और आज भी अभिलेखागार में वो सुरक्षित हैं, जिनसे ये जानकारी ली गई है. साथ ही जानकारी का स्रोत वो खत हैं जो अंग्रेज अफसरों ने अपने परिजनों को यहां से लिखे और वहां से जवाब आए. किताब बहुत ही रोचक है.

1857 की क्रांति में मेरठ से आई हथियारबंद विद्रोही सेना ने अचानक दिल्ली पहुंचकर अंग्रेजों का कत्ले आम किया और बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह घोषित कर दिया. बादशाह की कोई भूमिका इस विद्रोह में नहीं थी; मगर खामियाजा पूरा भुगतना पड़ा. अंग्रेजों ने उनके बेटे का सिर काटकर उन्हें भेजा और अंत में काले पानी की सजा हुई. उसी जगह वे कैद रहे जहां बाद में सावरकर को जाना पड़ा था. ज़फर ने माफी नहीं मांगी.

अगर मुगल बादशाह हिंदुओं पर अत्याचार किया करते थे, तो विद्रोही सेना ने क्यों ज़फर को अपना बादशाह बनाया था ? अकबर ने जोधा बाई से विवाह किया मगर जोधा बाई को मुस्लिम नहीं बनाया. उल्टे खुद इस्लाम छोड़ दिया और शाकाहारी भी हो गए. उनके धर्म का नाम ‘दीने इलाही’ था, जो सभी धर्मों की अच्छी-अच्छी बातों को जोड़ कर बनाया गया था.

अकबर को सभी धर्मों के लोगों को बुलाकर उनकी परिचर्चा कराने में मज़ा आता था. शाकाहार की प्रेरणा उसे जैन संतों से मिली. जैन पर्वों पर तब वधशालाएं बंद रखी जाती थीं और मांसाहार की अनुमति नहीं होती थी, जो आज भी हिंदू जैन पर्वों पर जारी है. अंधभक्तों को जो इतिहास वाट्सएप पर पढ़ाया जाता है, वो केवल नफरत उपजाने वाला होता है. असल इतिहास बहुत ही ज्यादा दिलचस्प और चौंकाने वाला है.

झूठ को इतिहास बनाने की कवायद करने वाली एक दूसरी पुस्तक ‘Veer Sawarkar : The Man Who Could Have Prevented Partition’ या ‘वीर सावरकर: वह शख्स जो बंटवारे को रोक सकते थे’– को उदय माहुरकर और चिरायु पंडित ने लिखा है. उदय माहुरकर पत्रकार रह चुके हैं और फ़िलहाल भारत सरकार में सूचना आयुक्त के पद पर आसीन हैं. इस किताब का विमोचन 12अक्टूबर 2021 को RSS प्रमुख मोहन भागवत, रक्षामंत्री राजनाथसिंह और लेखक उदय माहुरकरकी उपस्थिति में किया गया था.

सावरकर के चरित्र पर लगे 3 प्रमुख दाग इस प्रकार हैं –

  1. अंग्रेज सरकार से बार-बार माफी मांगकर उन्हें यह यकीन दिलाने का दाग कि अब वे अपने देश की बजाय देश को गुलाम बनाने वाली अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार रहेंगे.
  2. गांधीजी के हत्यारे गोडसे के प्रेरक होने का दाग और
  3. भारत के हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के वैचारिक बीज बोने का दाग.

इनमें से तीसरे दाग को धोने के लिए किए जाने वाले RSS के प्रयासों को गति देने की दुर्भावना से ही यह किताब लिखी गई है, जिसे आरएसएस/भाजपा का खुला समर्थन है. जबकि सच तो ये है कि ‘भारत के विभाजन में भयावह हिंदू-मुस्लिम दंगों की बड़ी भूमिका थी.’ भारत का बंटवारा हिंदू-मुस्लिम एकता से ही रुक सकता था, जिसकी कोशिश गांधी कर रहे थे, लेकिन हिन्दुओं और मुसलमानों को बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग साबित करने में सावरकर ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

RSS के दोगलेपन और पाखंड की पोल तो 2021 में इस किताब के विमोचन के बाद से भी लेकर अबतक देश में घटी मुस्लिमद्रोही साम्प्रदायिकता की अनेक घटनाएं ही खोल रही हैं. याद कीजिये दिल्ली के दंगे, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की ‘देश के गद्दारों को (संघी मंतव्य के मुताबिक- मुसलमानों को–गोली मारो… को), जैसी नफरत उपजाऊ ललकार, नूह के दंगे और चुनचुनकर सिर्फ मुसलमानों के घरों को बुल्डोज़री न्याय से नेस्तनाबूद करने वाली घटनाएं.

भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी द्वारा लोकसभा में बसपा के मुस्लिम सांसद को गालीनुमा शैली में मजहबी और नस्लीय संबोधन से अपमानित करने के बाद रमेश विधूड़ी को राजस्थान के एक जिले का चुनाव प्रभारी बनाकर पुरस्कृत किये जाने की शर्मनाक घटना जैसी ही और भी न जाने कितनी ही घटनाएं !

देश के साथ गद्दारी और भारत में अंग्रेजी राज से वफादारी तथा भारत में हिंदुओं के दिलोदिमाग में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के बीज बोने वाले जो दाग सावरकर के दामन पर लगे हैं, उन दागों को धोने का नाटक करना एक बात है और तहेदिल से अपने जघन्य अपराधों के लिए देशवासियों से क्षमा मांगते हुए न्यायोचित प्रायश्चित करना एक अलग बात है, जिस पर अमल करने के लिए जिस चरित्र और जमीर की जरूरत है, उसका आरएसएस के नेताओं में नितांत अभाव है. बकौल दुष्यंत –

तन तन के बहुत चलते हो मगर
कदमों पे यकीं है भी कि नहीं ?
कदमों के तले सरकार जरा,
देखो तो जमीं है भी कि नहीं ?

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