सुब्रतो चटर्जी
मनीष सिसोदिया को अपनी बीमार पत्नी से मिल कर रोते देख कर लाखों लोगों की आंखों में आंसू आ गए. कुछ दिनों पहले यही आंसू बरबरा राव और स्टेन स्वामी या अन्य एक्टिविस्ट लोगों के लिए भी निकले थे. आंसू निकलना सेहत के लिए अच्छा है. आंसू निकलने से आपके संवेदनशील होने का प्रमाण भी मिलता है.
न्याय पर अन्याय की जीत देख कर अगर आपके आंसू निकलते हैं तो इसका मतलब यह है कि चाहे अपनी मजबूरियों के बोझ तले आपकी आत्मा कितनी भी कुचली क्यों न गई हो, आपकी संवेदनाएं घास के उस बीज की तरह अभी तक जीवित हैं, जो पत्थर की कोख से भी उग आतीं हैं.
पाश याद आ गए ? याद आना भी चाहिए. अब इन संवेदनाओं की ज़रा और पड़ताल करते हैं. क्या संवेदनाओं का भी कोई वर्ग चरित्र होता है ? महादेवी वर्मा ने लिखा था – ‘महलों से ले कर झोपड़ी तक / हर आंसू के रंग उजले.’ बहुत साधारणीकरण है और मैं इस तरह के सामान्यीकरण और निरर्थक बातों से कभी भी इत्तफ़ाक़ नहीं रखता हूं.
आप महलों में रहने वाले खाए अघाए लोगों की भाववादी परिकल्पनाओं के द्वारा आयातित आंसुओं की तुलना झोपड़ी में भूख और भय के साए में निरंतर घनीभूत होते जीवन की क्षीण संभावनाओं और गभीर निराशा को आंसुओं के रूप में अभिव्यक्त होने के बीच कोई तुलना कैसे कर सकते हैं ?
मृत्यु और रोग का शोक एक अलग प्रश्न है, लेकिन महलों में मृत्यु पर रुदाली बुलाने की परंपरा ने उस पर भी एक प्रश्न चिह्न तो लगा ही दिया है. ऐसे में अगर आपकी संवेदनाएं सतह पर दिखने वाली सच्चाई के पार किसी और बात पर नहीं प्रकट होतीं हैं तो आपकी संवेदनाओं का संसार सीमित ही नहीं अवसरवादी भी है.
आपको मालूम है कि भारत जैसे पाशविक व्यवस्था में कितने लाख लोगों को बिना जुर्म सिद्ध हुए सारा जीवन जेल में बीताना पड़ता है, जिन्हें हम under trial prisoners कहते हैं ?
आपको मालूम है कि इनमें से 99% गरीब, बेसहारा, अकलियत और अपने जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ने के लिए मजबूरी में हथियार उठाए हुए तथाकथित नक्सली हैं ? फिर भी आपके आंसू उनके लिए नहीं निकलते हैं.
मालूम है क्यों ?.इसलिए कि आपकी संवेदनाओं का भी एक वर्ग चरित्र है.
चूंकि आप मध्यम वर्ग से आते हैं इसलिए आप क्रांतिकारी होने के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा बस एक सुधारवादी हैं. इसलिए आप एक्टिविस्ट लोगों को अपना नायक मानते हैं. इसलिए आप ‘India Against Corruption’ जैसे बुर्जुआ सुधारवादी आंदोलनों के पीछे भागते हैं. इसलिए हमारी पीढ़ी के लोग कभी जेपी आंदोलन के साथ जुड़े थे. यही कारण है कि आप व्यवस्था बदलने की लड़ाई में कभी शामिल नहीं हैं
आपकी लड़ाई तनख़्वाह बढ़ाने से लेकर ओपीएस की पुनर्बहाली के लिए हो सकती है, यूनिवर्सल एजुकेशन के लिए कभी नहीं हो सकती है. आपको डर है कि अगर यह व्यवस्था नहीं रहेगी तो आपकी सुख समृद्धि का क्या होगा ? इसलिए आप किसी शंकर गुहा नियोगी जैसे योद्धाओं के साथ नहीं खड़े होते हैं.
अगर आपके आंसू बरवरा राव के लिए निकलते भी हैं तो वे उनकी वृद्धावस्था के लिए निकलते हैं, न कि उनके संघर्ष के लिए. ऐसे में गौरी लंकेश को भुलाना आसान है. ऐसे में रोहित वेमुला को भुलाना आसान है. ऐसे में चारु मजूमदार और उन असंख्य योद्धाओं को भुलाना आसान है, जिन्होंने सच में मुक्ति का पथ दिखाया था.
इसलिए स्वतंत्रता संग्राम के उन हस्तियों को भुलाना आसान है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर भारत को न सिर्फ़ अंग्रेजों से आज़ादी दिलानी चाही वरन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए लड़ते हुए मारे गए.
अंत में –
इस दीवाली में
मैं बस उन घरों की
गिनती रखूंगा
जिन के दरवाज़ों पर
कभी नहीं दी
रोशनी ने दस्तक
मैं उन घरों में
रहने वाली आत्माओं को
नहीं दूंगा कोई भी
शुभकामनाएं
इससे पहले की ये
खोखली संवेदनाएं
बोझ बन जाए मुझ पर
मैं उतार दूंगा उन्हें
तुम्हारी जगमगाती हवेलियों के
ओसारा पर
ताकि तुम कल सुबह
पटाखों के ख़ाली खोखों को
गिन गिन कर
गिन सको
कितनी शुभकामनाएं मिलीं थीं तुम्हें
बिना दांत के पोपले मुंह से
पायोरिया के दुर्गंध समेटे हुए
मेरा ठिकाना कहीं और है मेरे दोस्त !
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