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निराला की जनेऊ वाली फोटो किसी भी पल की हो, वह एक लेखक की नहीं हो सकती !

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निराला की जनेऊ वाली फोटो किसी भी पल की हो, वह एक लेखक की नहीं हो सकती !
निराला की जनेऊ वाली फोटो किसी भी पल की हो, वह एक लेखक की नहीं हो सकती !
बुद्धिलाल पाल

ब्राम्हणवादी साहित्यकार हो या ब्राम्हण साहित्यकार, उन्हें इस तरह की बात की अनुसंशा नहीं करनी चाहिए. कविता कहानी उपन्यास तो लिखे जाते रहेंगे पर लिखने वालों के हाथ में उतना कुछ नहीं होता, वह तो वपरने वाले समाज पर होता है कि वह लेखक को किस तरह वपर रहा है. वैसे लेखक का लिखा समाज में अदृश्य जैसा ही रहता है.

लेखक के मरने के बाद उसकी मूर्ति का फोटो रूप समाज में साहित्य के जैसे ज्यादा समादृत्त दृश्यमान होता है. उसी से लेखक के साथ समाज का रिश्ता जुड़ता है. इसी में हम निराला वाली जनेऊ की तस्वीर ही उसके समग्र स्वरूप में प्रतीक में रहेगी तो समाज का रिश्ता इस फोटो के साथ निराला के साहित्य से वर्णव्यवस्था की मान्यता एवम उसकी स्वीकारोक्ति के रूप में ही बनेगा.

वैसे सूर्यकांत त्रिपाठी ब्राम्हण था. वह जनेऊ पहनता रहा होगा, इसमें आश्चर्य वाली कोई बात भी नहीं है. वह जन्मना ब्राम्हण था तो पहनता रहा होगा, इसमें कोई नुक्ता चीनी वाली बात भी नहीं है. इस रूप में यह एक सामान्य सी बात है. उसकी जनेऊ वाली वह फोटो किसी भी पल की हो, वह एक लेखक की नहीं है क्योंकि लेखक इन सबसे परे होता है. वह उनकी नंगे बदन जनेऊ वाली फोटो एक ब्राम्हण की है. इस फोटो से एक लेखक का प्रतिमान नहीं बनता है.

तो यहां पर यहां तक भी इस फोटो पर कहने लायक कोई बात नहीं बनती है. कहते हैं बाद में उन्होंने अपनी जनेऊ को खुद तोड़कर फेंक दिया था. सच या झूठ या कोई क्षेपक पर ऐसा हुआ तो इस पर भी कोई विशेष बात करने लायक कोई बात नहीं है. इसे एक लेखक के आत्मसंघर्ष के रूप में लेखक होते जाने के रूप में देखने वाली बात है. वास्तव में लेखक होने का मायना भी वही होता है कि वह लेखन में दुनिया की मुक्ति की कामना ही नहीं करता है, खुद भी लेखक होते हुए बहुत सी बातों और दुराग्रहों से खुद भी मुक्त होता है, नहीं तो काहे का लेखक वेवक !

इसमें मेरे द्वारा निराला को कुछ भी ठहराने वाली बात नहीं है. मेरी मूल मुद्दे की बात है तो इस फोटो को कोई दक्षिणपंथी लेखक आगे लाते हुए इस फोटो को निराला की प्रतिमात्मकता बनाए तो कोई बात नहीं है क्योंकि उनका उद्देश्य ही ब्राम्हणी तंत्र व्यवस्था को बनाना है. तो इस फोटो को ब्राम्हणी तंत्र की चिरंजीविता के लिए उनको यह फोटो शूट करती है. अब भले ही निराला इसमें कितने ऐसे थे, नहीं थे वह अलग बात है.

इस फोटो का सिंबालिक होना पाठ यही बनता है कि इस फोटो को परोसने वाले, इस फोटो का प्रचार प्रसार करने वाले जाने अनजाने वर्णव्यवस्था, जाति व्यवस्था, ब्राम्हणी तंत्र का प्रचार प्रसार कर रहे होते हैं. उसकी पुनर्स्थापना कर रहे होते है. इस फोटो को जानबूझकर परोसने वाले लोग तो और भी बहुत ही शातिर बहुत धूर्त लोग होते हैं. वे वर्णव्यवस्था, मनुवादी व्यवस्था, ब्राम्हणी तंत्र को ऐसी फोटो के माध्यम से उसकी जड़ें और गहरी करते हैं. अंधेरा को और गहरा करते हैं.

इन शातिर लोगों का मतलब निराला के साहित्य से नहीं होता है. इस फोटो के माध्यम से उनका मतलब ब्राम्हणी तंत्र से ब्राम्हणी तंत्र की मजबूती से होता है. ऐसे महाशातिर में ब्राम्हणी मार्क्सवादी लोग ज्यादा होते है. भारतीय प्रगतिशील, मार्क्सवादियों की यही धूर्तता भारत में प्रगतिशीलता की स्थापना में यह सबसे बड़े अवरोधक बनते हैं.

खैर यह सब है तो वह तो इसी तरह है, इसी तरह होता है पर यह काम दक्षिणपंथी करते दिखाई नहीं देते हैं. यह काम बढ़चढकर भारतीय प्रगतिशील एवम भारतीय मार्क्सवादी करते हैं, कह सकते हैं इस फोटो का प्रचार प्रसार, इस फोटो की स्थापना भारत के मार्क्सवादी लोग ही किए हैं, तो भाई भारत के मार्क्सवाद में यह फोटो लोकशाही वाली हुई या ब्राम्हणशाही वाली हुई.

तो निश्चित तौर से कहा जा सकता है भारत के मार्क्सवादी इस फोटो के माध्यम से ब्राम्हणशाही के लिए ही काम करते हैं. यह क्रांतिकारी लोगों का यह काम ब्राम्हणशाही के एजेंट के रूप में है. भारतीय ब्राम्हणी मार्क्सवादी बात करेंगे क्रांति की और स्थापना करेंगे ब्राम्हणशाही ब्राम्हणी तंत्र की.

वैसे यह बात साफ है कोई भी लेखक अपनी इस तरह की कोई निजी फोटो को अपने स्वरूप की पहचान की फोटो नहीं बनाएगा. वह अपनी कोई ऐसी फोटो को ही बाहर देगा जिससे मैसेज जाए कि उसकी चिंता वृहद सम्पूर्ण समाज के लिए है. वैसे निराला जीवित होते तो उनकी इस फोटो के उपयोग से बहुत विचलित होते, शर्मिंदा होते और कहते कि मेरी यह फोटो अपने किसी निजी क्षण की है जो साहित्य में साहित्य की दुनिया में प्रयुक्त लायक नहीं है, कह कर हाथ जोड़ लेते. और साहित्य में इस फोटो के उपयोग को साफ-साफ मना कर देते.

पर वाह रे हिंदुस्तान के मार्क्सवादी लोग, इस फोटो को खोजा तो खोजा पर इस फोटो को निराला की पहचान का लगभग अंतिम स्वरूप भी बना दिए. चंद्रशेखर आजाद की जनेऊ वाली फोटो ऐसी ही चिरंजीवी भारतीय मार्क्सवादियों की टपकती ब्राम्हणी लार से ही बनी होगी. चंद्रशेखर आजाद यानी, मूंछ पर ताव, खुला बदन, जनेऊ, पिस्टल ब्राम्हणशाही ऐसी ही लार से बनी होगी. साहित्य का मतलब भी खुला बदन जनेऊ ब्राम्हणशाही भी यह मार्क्सवादियों की जनेऊ ब्राम्हणशाही लार से ही अब इस रूप में है.

अजीब मजाक है ब्राम्हणी प्रगतिशील मार्क्सवादी जानबूझकर यह सब करते हैं. अपनी फर्जी क्रांतिकारिता के प्रलोभन में लोगों को फंसाते हैं, उलझाते हैं. अंतिम कृत्य अंतिम मूर्ति ऐसे ही गढ़ते हैं. पुनः यह कहना चुहूंगा निराला की इस फोटो पर मेरा कोई कमेंट नहीं है. मेरा वक्तव्य उसके भीतर के तथ्यों को लेकर है.

जोर बाजुओं में
दुश्मनों के
इतना कहां था
कि वे कुछ कर पाते
कातिल तो हमारे
हमारे ही बीच
हम बनकर बैठे थे
संशोधनवादी
तुलसी चोला
मार्क्स दुशाला में
दुश्मनों पर तो
नाहक ही तोहमत थी

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