सुब्रतो चटर्जी
चुनावी बांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट का क्या फ़ैसला आएगा, यह तो कल ही चंद्रचूड़ ने साफ़ कर दिया है. उनके अनुसार अगर चंदा देने वालों का नाम ज़ाहिर हो जाए और अगर सरकार बदल गई तो नई सरकार उन पर बदले की कारवाई करेगी. मतलब, क्रिमिनल लोगों की सरकार को दूध पिलाकर ज़िंदा रखने वाले लोगों पर कोई सरकार कारवाई न करे, यह सुनिश्चित करना सुप्रीम कोर्ट का परम लक्ष्य है.
दूसरी तरफ़, सरकार का कहना है कि अब्बल तो जनता को जानने का हक़ ही नहीं है कि किस राजनीतिक दल को किसने कितना चंदा दिया है और दूसरे यह कि चूंकि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से चुनावी बांड बिके हैं इसलिए किसी सरकार को यह मालूम चल ही जाएगा कि किसने और किसके लिए ये बांड खरीदे. इन दोनों कथनों की अलग-अलग व्याख्या ज़रूरी है.
अगर किसी भी सरकार को वैसे भी मालूम चल जाएगा, तो मी लॉर्ड कोर्ट के सामने नाम आने से क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मी लॉर्ड जानते हैं कि क्रिमिनल येन तेन प्रकार से हिटलर की तर्ज़ पर 2024 का चुनाव जीत कर सत्ता हासिल कर लेंगे और इसलिए ज़्यादा पंगा लेना भारी पड़ सकता है ? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि मी लॉर्ड समझ रहे हैं कि जनता अब बदलाव के मूड में है और ऐसे में अपने वर्ग हित में अपने वर्ग के लोगों को यथासंभव बचाने की ज़िम्मेदारी उन पर आन पड़ी है ?
दूसरा सवाल इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है. सरकार कहती है कि जनता को यह अधिकार ही नहीं है कि किसने किस दल को और किस लाभ के लोभ में चंदा दिया है. मतलब सरकार किन उद्योगपति घरानों की दलाली करने के लिए चुनी गई है, यह जानने का अधिकार जनता को नहीं है. प्रकारांतर में संविधान नहीं अब सरकार यह तय करेगी कि जनता के क्या-क्या अधिकार हैं.
क्या आपने कभी सोचा है कि जनता के वोट से चुनी हुई सरकार को यह कहने की जुर्रत संविधान के रखवाले सुप्रीम कोर्ट के सामने कैसे हुई ? मैंने पहले अपने एक पोस्ट पर नागरिकता बोध पर रोशनी डाली थी. उसमें मैंने कहा था कि आप बस उतने ही नागरिक हैं, जितना कि आप अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सचेत हैं और इनके लिए लड़ सकते हैं.
नोटबंदी से लेकर तालाबंदी तक आपने सरकार के हरेक असांवैधानिक फ़ैसलों को कर्तव्य समझ कर निभाया. परिणामस्वरूप, आज वे आपके अधिकार तय कर रहे हैं. किसी दिन वे कह सकते हैं कि भोजन और रोज़गार आपका अधिकार नहीं है, आप क्या उखाड़ लेंगे ? परोक्ष तौर पर सरकार यह कह भी रही है, सिर्फ़ आपको सुनाई नहीं दे रहा है.
पूंजीवादी लोकतंत्र के लाश की रक्षा के लिए न्यायपालिका है, प्रेस है, संसद है और कार्यपालिका है. सड़क की लड़ाई संसद और न्यायपालिका में लड़ने वाले लाचार लोगों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है. भारत वाक़ई में मर चुका है, चाहे कोई माने या ना माने.
पिछले कुछ सालों की वैश्विक राजनीतिक घटनाक्रम पर अगर आप ग़ौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया के क़रीब-क़रीब सारे महत्वपूर्ण देशों में बहुमत से चुनी हुई सरकारें कैसे अलोकप्रिय हो गईं हैं. मोदी सरकार भी कोई अपवाद नहीं है. इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम इज्राइल की बेंजामिन नेतनयाहू की सरकार है. आज इसकी तह में जाने की ज़रूरत है. कुछ सवाल जो पहले ही मन में आते हैं, वे इस प्रकार हैं –
- क्या द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनपे चुनाव आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी मृत्यु की तरफ़ अग्रसर हो चला है ?
- क्या इसके पीछे सही मायने में लोकप्रिय नेतृत्व का अभाव है ? चुनावी लोकप्रियता अलग बात है.
- क्या पूंजीवादी लोकतंत्र में सरकारें सिर्फ़ पूंजीपतियों के लठैतों सा काम कर रहीं हैं ?
- क्या कम्युनिस्ट आंदोलन को रोकने के लिए जिस उदार लोकतंत्र की स्थापना रूसी क्रांति के बाद पूरी दुनिया में स्थापित की गई थी, उसकी मियाद अब पूरी हो गई है ?
ये सवाल बहुत जटिल हैं और इनका कोई भी जवाब सभी देशों पर एक रूप से लागू नहीं होता है. मसलन, अमरीका और पश्चिमी यूरोप के बहुत सारे देशों, ऑस्ट्रेलिया और गिने-चुने एशिया के देशों लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा अभी तक आंशिक रूप से बची हुई है.
अमरीका और ब्रिटेन घोर पूंजीवादी व्यवस्था हैं लेकिन वहां पर सूचना के अधिकार, सामाजिक सुरक्षा, विरोध का अधिकार इत्यादि अभी तक बरकरार है. जर्मनी और फ़्रांस में भी यही स्थिति है. इसके उलट, रूस, भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में ऐसा कुछ भी नहीं बचा है. चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, वियतनाम आदि कम्युनिस्ट ब्लॉक के देशों में लोकतंत्र ही नहीं है, उनकी बात करने की ज़रूरत नहीं है.
दूसरी तरफ़, इज्राइल और अधिकतर अरब देशों में एक विचित्र समानता है. पश्चिम एशिया दुनिया का वह हिस्सा है जहां पर हरेक देश धर्म के नाम पर बना है. परिणामस्वरूप, वहां पर हरेक देश में या तो राजतंत्र है या नहीं तो चुनावी अधिनायकवाद है. इसे हिटलरशाही कहते हैं, जिस तरफ़ मोदी के नेतृत्व में भारत निर्णायक रूप से बढ़ चला है.
मज़ेदार बात यह है कि जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के घोड़े पर आज इज्राइल सवार है, उसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर सवार हो कर कभी हिटलर ने होलोकॉस्ट को अंजाम दिया था. विडंबना यह है कि आज ईसाई देश यहूदियों के समर्थन में हैं और यहूदी उन्हीं मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई में हैं, जिन्होंने उनको बसाया था. सच कहा जाए तो यह विडंबना नहीं है, यह पूंजीवादी व्यवस्था का विद्रूप है.
अमरीकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से यहूदियों के द्वारा संचालित होती है, इसलिए वहां के ईसाई राष्ट्रपति की मजबूरी है कि वह उनके साथ खड़े रहें. इस विरोधाभास में मेरे पहले प्रश्न का उत्तर है.
अमरीकी जनता अमरीकी राष्ट्रपति के इस फ़ैसले के खिलाफ है. बाइडेन की लोकप्रियता ढलान पर है. ब्रिटेन की सरकार भी अमरीका का चमचा है, इसलिए वह भी इज्राइल के साथ खड़ा है. अब वहां की जनता भी अपने सरकार के खिलाफ है.
अब आते हैं भारत पर. 37% वोट लेकर 305 सीटों के साथ आई मोदी सरकार शायद आज तक की सबसे ज़्यादा अलोकप्रिय सरकार है. किसानों, बेरोज़गार जवानों से लेकर नौकरी पेशा लोगों में सबसे ज़्यादा अलोकप्रिय है. मोदी सरकार दुनिया के इतिहास का सबसे ज़्यादा भ्रष्ट है, फिर भी चल रही है. इसके पीछे पूंजी का खेल स्पष्ट है.
अब आते हैं कि क्या कारण है कि तीसरी दुनिया के देशों में लोक कल्याणकारी राज्य का अवसान पिछले तीस पैंतीस सालों में क्यों हो गया ? इसके पीछे वैश्विक गांव बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की भूमिका को समझने की ज़रूरत है.
पूंजी का सघन केंद्रीकरण जब अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में सोवियत संघ के पतन के बाद हुआ, तब तीसरी दुनिया के जनसंख्या बहुल देशों को बाज़ार के रूप में विकसित करने की ज़रूरत महसूस हुई. यह दो तरीक़ों से फ़ायदे का सौदा था.
एक तरफ़ जहां अपने कचरे को डंप करने के लिए तीसरी दुनिया के देश मुफ़ीद गंतव्य थे, वहीं दूसरी तरफ़ इन देशों के सस्ते लेबर मुनाफ़े में चार चांद लगाने को तैयार बैठे थे. इस समय वैश्विक बाज़ार को भारत जैसे देशों के अंदर दलाल पूंजीपति की ज़रूरत पड़ी जो राष्ट्रीय पूंजीपति को हटा सकें.
नतीजतन, अदानी जैसे धंधेबाज़ पैदा हुए जिन्होंने रोज़गार विहीन विकास के मॉडल स्थापित किये. मोदी सरकार ने एक क़दम आगे बढ़ कर कुलीनतंत्र स्थापित कर दिया. पुतिन और मोदी दोनों इसी कुलीनतंत्र के पाले हुए ग़ुलाम हैं, इसलिए रूस और भारत की सारी संपत्ति का केंद्रीकरण कुछेक सेठों के हाथों चला गया है. परिणामस्वरूप, भारत आज भयंकर बेरोज़गारी और आर्थिक असमानता के पंजे में है.
दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था की अवधारणा ही जनविरोधी है, इसलिए देर सबेर जनता ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध खड़ी हो ही जाती है. समूची दुनिया में लोकप्रिय चुनावी मुहर के पीछे अलोकप्रिय सरकारों की यही वजह है. पूंजीवादी लोकतंत्र अपनी आख़िरी सांसें गिन रही है. सामने अधिनायकवाद खड़ा है, किसी हिटलर का या जनता का यह तो समय ही बताएगा.
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