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पुंसवादी मोदी का पापुलिज्म और मीडिया के खेल

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पुंसवादी मोदी का पापुलिज्म और मीडिया के खेल
पुंसवादी मोदी का पापुलिज्म और मीडिया के खेल
जगदीश्वर चतुर्वेदी

सब कह रहे हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पापुलर है. सवाल उठता है उनकी जनप्रियता का राज क्या है ? यह भी सवाल उठता है कि पापुलिज्म पर कितनी वैचारिक बहस हो रही है ? जनता में वैचारिक बहस के बिना क्या पापुलिज्म को परास्त करना संभव है ? मोदी को परास्त करने के मार्ग क्या हैं ?

मोदी पापुलिज्म की केन्द्रीय विशेषता है कि आप उसे किसी एक मसले या मुद्दे से नत्थी करके विश्लेषित नहीं कर सकते. मसलन, हिन्दुत्व, कांग्रेस विरोध, हिन्दू-मुसलिम विद्वेष, विकास आदि में से किसी एक मुद्दे तक केन्द्रित ढंग से विरोध नहीं कर सकते. उसकी लोकप्रियता के विभिन्न मसलों पर कारक एक नहीं हैं. कुछ लोग कांग्रेस विरोध, कुछ लोग करप्शन के खिलाफ चले अन्ना आंदोलन के कारण उसके साथ हैं, कुछ निजी फ़्रस्ट्रेशन के कारण उनके साथ गए हैं, कुछ हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए उनका समर्थन कररहे हैं.

यह सच है मोदी अच्छे भाषण देते हैं लेकिन उनकी जनप्रियता का प्रधान कारक भाषण नहीं है. उनकी जनप्रियता का प्रधान कारक तत्व है कारपोरेट समूह का एक स्वर से उनके पीछे गोलबंद होना. इसे वे देश के अपमान, देश की इज़्ज़त, हिन्दुओं के अपमान, हिन्दुओं के अहंकार, गरीब के इज़्ज़त, भारत का अपमान और हिन्दू राष्ट्रवाद के आवरण में रखकर पेश करते हैं. इसके लिए वे प्रभावी उपकरण के तौर पर आक्रामकता, अंधभक्ति और असभ्यता इन तीन का इस्तेमाल करते हैं. इस सब पर वे व्यवस्था विरोध की चाशनी में लपेट कर पेश करते हैं.

उनका कम्युनिकेशन डिजिटल तकनीक के जरिए आता है इसलिए सरल, सुबोध और सुगम लगता है. वे अपने कथन के पक्ष में मीडिया और साइबर समर्थन की आंधी पर टिके हैं, अत: वे जनप्रिय लगते हैं और स्वत: प्रमाण लगते हैं. उनका प्रचार इकतरफ़ा और प्रश्नाकुलता विरोधी भावों से भरा होता है इसलिए उनसे कोई सवाल नहीं करता. उनके कहे पर आम जनता सवाल नहीं करती क्योंकि जनता के कॉमनसेंस को वे अपने भाषण का मूलाधार बनाते हैं.

मसलन, करोडों लोगों की नौकरी चली गयी, बारह लाख करोड रूपये बैंकों के अमीरों के हाथ चले गए, चालीस लाख से अधिक उद्योग धंधे बंद हो गए लेकिन कोई सवाल नहीं कर रहा. किसी दल के द्वारा पूछे गए सवालों का मोदी उत्तर नहीं दे रहे. इस सबके बावजूद उनकी पॉज़िटिव इमेज बनी हुई है. उनकी 2014 के प्रचार अभियान में राष्ट्र रक्षक की इमेज बनायी गयी, जो कि अभी तक बनी हुई है. राष्ट्ररक्षक की इमेज के जो खिलाफ हैं, उनको प्रचारतंत्र और मोदी एंड कंपनी जनता और राष्ट्र के दुश्मन की केटेगरी में डाल देती है. सवाल यह है कि राष्ट्ररक्षक की इमेज कोर्स तरह चुनौती दी जाय ?

मोदी के पीछे गोलबंद जनता का एक वर्ग आंखें और कान बंद करके गोलबंद है. यह वह वर्ग है जो सहजजात भावबोध के आधार पर जुडा है. सहजजात भावबोध के आधार पर जुडे होने के कारण इनके विवेक, कथन और सामाजिक यथार्थ में कोई साम्य नहीं मिलेगा. ये लोग अपने से भिन्न लोगों की राय नहीं मानते. यह मूलत: गोसबल्सीय श्रोताबोध है. गोयबल्सीय श्रोताबोध को हम लोग टेली पापुलिज्म, साइबर पापुलिज्म, ह्वाटसएप विश्वविद्यालय आदि के नाम से पुकारते हैं.

मोदी रणनीतिकारों ने मोदी पापुलिज्म की जो केटेगरी बनायी हैं, वे अब तक के सभी वर्गीकरण से भिन्न हैं. मसलन् वाम-दक्षिण की केटेगरी, हिन्दुत्व और धर्मनिरपेक्षता की केटेगरी में वर्गीकृत करके सही ढंग से विश्लेषित नहीं कर सकते. मोदी ने एक केटेगरी बनायी है जनता की और दूसरी बनायी है सत्ता की. कांग्रेस, वाम, विपक्ष आदि को उसने सत्ता की केटेगरी में रखकर प्रचार किया है और स्वयं को, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को जनता की केटेगरी में रखा है.

इस आधार पर उसने अब तक छह सालों में समूचे सहमति तंत्र और नीतितंत्र को ध्वस्त कर दिया है. जबकि सच्चाई यह है कि मोदी-भाजपा सत्ता में हैं लेकिन इनका समूचा प्रचार इस तरह सजाया गया कि लगे वे जनता में हैं. विपक्ष का सत्ता के फ़ैसलों से कोई संबंध नहीं है लेकिन प्रचार यह है कि सब कुछ विपक्ष कर रहा है या उसने ही किया है जबकि सच्चाई यह है कि विगत छह साल में मोदी सरकार ने जितने फैसले लिए हैं, वे सब विपक्ष की असहमति से लिए हैं और उन तमाम नीतियों के खिलाफ लिए हैं, जो यूपीए सरकार ने दस साल में बनायी थीं.

और जिनको संसदीय नियमों के तहत संसद से पारित कराया गया. इनमें अनेक कानून तो सर्वसम्मत थे. मोदी ने व्यवस्थित ढंग से उन सब कानूनों और नीतियों को एक-एक करके असंवैधानिक ढंग से नष्ट किया. मसलन, 370 का प्रावधान खत्म करने का फैसला सबसे बुरे फैसले के रूप में गिना जाएगा. जम्मू कश्मीर अब राज्य नहीं रहा. ‘कांग्रेस का अंत’ करने के नाम पर जो मुहिम चलायी गयी वह असल में बहुसंख्यकवादी राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चलायी गयी. इसकी आड में लोकतंत्र के राजनैतिक बहुलतावाद, सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलतावाद को चुनौती देकर हिन्दुओं की आड में बहुसंख्यकवादी राजनीतिक ध्रुवीकरण किया गया.

हिन्दुत्व की अस्मिता के बहाने सभी रंगत की अस्मिताओं को निशाना बनाया गया. हिन्दुत्व को संघ की बजाय भीड की आवाज के रूप में पेश किया गया, इससे भीड की हिंसक राजनीति के नए राष्ट्रीय घटना ने जन्म लिया. भीड महान है, बाजार की शक्तियां महान हैं, मुक्त बाजार जिंदाबाद, सरकारीकरण करप्शन है, निजीकरण करप्शन से मुक्ति है. इनका विरोध करने वाले राष्ट्रद्रोही और लोकतंत्र के शत्रु हैं.

लोकतंत्र में सबसे बडी बाधा हैं लोकतांत्रिक परंपराएं, नियम और आदतें, इनका हर स्तर पर विरोध करो. ये पीएम की पापुलर स्वायत्तता और पापुलर नेतृत्व के काम में अवरोध हैं. पीएम पापुलर स्वायत्तता को लोकतंत्र से ऊपर पेश किया गया. जनता को कहा गया कि पीएम के साथ रहो लोकतंत्र का विरोध करो. पीएम को विकल्पहीन नेता के रूप में प्रचारित किया गया. पीएम जो कर रहे हैं वह राष्ट्रहित में रहे हैं.

राष्ट्रहितों को जनहितों और लोकतंत्र से ऊपर रखा गया. राष्ट्रहितों को बढ़ावा देने के नाम पर कारपोरेट हितों की रक्षा की गयी और राष्ट्रहित के दायरे से जनता को पूरी तरह बेदख़ल कर दिया गया. यह सब काम हुआ जनता के समर्थन और संविधान की उपेक्षा करके. मानवाधिकार हनन के मामलों को दलीय राजनीतिक प्रपंच कहकर मोदी विरोधी हरकतों के नाम से प्रचारित किया गया.

मोदी-भाजपा ने अपने को मध्यवर्ग और कारपोरेट जगत की एकमात्र हितरक्षक पार्टी के रूप में प्रचारित किया. मोदी के द्वारा बार-बार यह कहा गया कि लोकतंत्र और निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करो. मोदी जी इसी दिशा में काम कर रहे हैं, अत: उनको सहयोग करो. पीएम ने अपने भाषणों में जनता के जनप्रिय कष्टों को अभिव्यक्ति देकर छद्म राजनीतिक विमर्शों को जन्म दिया. ये विमर्श उनकी वास्तविक मुद्दे से ध्यान हटाने की रणनीति का अंग हैं. पीएम ने अपनी नैतिकता को श्रेष्ठतम नैतिकता के रूप में पेश किया जबकि असलियत में नरेन्द्र मोदी भारत के अब तक के सबसे भ्रष्ट और अनैतिक पीएम हैं.

इन दिनों पहली शर्त है कि मोदी पापुलिज्म की वैचारिक आलोचना विकसित की जाय. विभिन्न स्तरों पर उनकी डिजिटल चालाकियों को उद्घाटित किया जाए और किसी एक मुद्दे पर उनके खिलाफ जनांदोलन किया जाए. भारत में वैविध्य है, अत: उनके खिलाफ विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मसले संघर्ष के केन्द्र में होंगे. इसके लिए साइबर कम्युनिकेशन और परंपरागत कम्युनिकेशन और जनसंघर्ष के बीच में द्वंद्वात्मक संबंध विकसित किया जाय.

मोदी ने मर्दानगी या ‘मैं’ का नया फ्रेमवर्क रचा है. इसे देश की जनता के सामने खोलकर रखने की जरूरत है. अपने प्रचार अभियान के जरिए मोदी ने ‘मर्द के मैं’ को राजनीति में अहंकार के साथ प्रतिष्ठित किया है. मोदीजी को मर्दों और मर्दानगी की प्रेमी महिलाओं में दीवाना बना दिया है. मर्दानगी के दीवाने उनकी किन-किन बातों के दीवाने हैं, इसे देखें- मोदी की ड्रेस, मोदी की भाषणकला, मोदी का 56 इंच का सीना, मोदी का सारी दुनिया के सामने ललकार- ललकार के बोलना, मोदी का सभी विदेशी नेताओं से जोर-जबर्दस्ती गले मिलना.

दिलचस्प बात यह है कि मोदी ट्रंप से गले मिले, और भी विदेशी नेताओं से गले मिले, लेकिन भारत में मनमोहन सिंह-प्रणव मुखर्जी-चिदम्बरम्, चन्द्रबाबू नायडू, राष्ट्रपति कोविंद, वैंकेया नायडू, अमित शाह आदि से कभी गले नहीं मिलते. हम तो कहेंगे मर्दों से गले मिलने की आदत है तो भाजपा के मर्दों से भी गले मिला करो. क्या भारत के मर्दों के गले में कांटे हैं और विदेशी नेताओं के गले में फूल हैं !

असल में भारत के मर्दों को मोदी मातहत मानकर चलते हैं और भारत के लोगों के सामने अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए विदेशी नेताओं से जमकर गले मिलते हैं, जिससे भारत की जनता और मर्दों में यह संदेश जाए कि देखो मोदी कितना ताकतवर है कि अमेरिका के राष्ट्रपति से गले मिल रहा है ! असल में मर्दानगी का राजनीतिक प्रदर्शन हो या सांस्कृतिक प्रदर्शन या भाषणकला में भाषायी प्रदर्शन, यह सब स्वस्थ सांस्कृतिक लक्षण नहीं है.

भारत के दबे-कुचले-वंचित मर्द जिस तरह पर्दे पर अमिताभ बच्चन की वीरता को फिल्मी पर्दे पर देखकर गद-गद होते हैं, सिनेमा हॉल में तालियां बजाते हैं. अमिताभ जब अकेला पर्दे पर बीस-बीस को पीटता है तो मन को बड़ा चैन मिलता है, ठीक वही हाल मोदी के पुंसवाद का है. इसको टीवी पर्दे से लेकर राजनीति के अखाड़े तक हम जब देखते हैं तो गदगद होते हैं क्योंकि हम सब पराजित और वंचित लोग हैं, नायकत्व और मर्दानगी हमें राहत देते हैं, नकली उम्मीद जगाते हैं.

सच यह है अमिताभ बच्चन वास्तविक जिंदगी में कभी किसी हमलावर को नहीं पीट सकते, लेकिन वे हमारे दिलों पर नायक की तरह छाए हैं. यही वह बिंदु है जहां से मोदी के नायकत्व और मर्दानगी के नकलीपन को बेनकाब करने की जरूरत है. मोदी की कोई नीति जनहित में काम नहीं कर रही, लेकिन टीवी के पर्दे पर सफल दिख रही है, मोदी भी सफल नजर आ रहे हैं. सवाल यह है मोदी को हम टीवी में कब देखना बंद करेंगे ?

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