हिमांशु कुमार
दलित व आदिवासी युवाओं द्वारा ब्राह्मणवादी मिथकों को चुनौती दी जा रही है. दुर्गा और राम के मिथक और ब्राह्मणधर्म की उदारता और महानता को चुनौती दे दी गई है. इससे काफी बेचैनी फ़ैल गई है लेकिन अब तो यह चुनौती बढ़ती ही जायेगी क्योंकि आदिवासी, दलित जो अब तक शिक्षा से वंचित थे, अब आजादी के सत्तर साल के बाद वे गूगल और सोशल मीडिया की ताकत से लैस हैं. वे इतिहास खोज रहे हैं. आपस में बैठ कर अपने बूढों से कहानियां सुन रहे हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर एक दुसरे से साझा करके उसे व्यापक समझ के रूप में विकसित कर रहे हैं.
आदिवासियों और दलितों के द्वारा उनके नायकों को खलनायक दिखाकर उनके वध करने और उनके पुतले जलाने के आयोजनों के खिलाफ पुलिस रिपोर्टें कराई जा रही हैं. यह एक नए युग की शुरुआत है. अब तक एक ही तरफ की कहानियां सारे देश को सुनाई जाती रही हैं. स्कूल की किताबों में, रेडियो में, अखबारों में, टीवी पर एक ही तरफ की कहानियां सुनाई गईं हैं. इनमें आदिवासियों को राक्षस, दैत्य, पिशाच, बन्दर भालू दिखाया गया है, लेकिन अब आदिवासी और दलितों द्वारा इन एकतरफा कहानियों को चुनौती दी जा रही हैं, यह स्वाभाविक भी है.
पहले हज़ारों सालों तक दलितों, आदिवासियों को ज्ञान से दूर रखा गया लेकिन अब लोकतंत्र के लागू होने के बाद हालत बदल रही है. इसलिए अब तक इन मिथकों के आधार पर खुद को देवता साबित करने वाले लोग बहुत घबराए हुए हैं. वे कह रहे हैं कि यह नकली कहानियां हैं, आपको कुछ नहीं पता है वगैरह वगैरह.
यह भी कहा जा रहा है कि आप लोग गड़े मुरदे उखाड़ रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि अरे यह रामायण वगैरह तो कहानियां हैं, आप इन्हें सच सिद्ध क्यों करना चाहते हैं ? लेकिन हमें एक बात पर ध्यान देना चाहिए कि आज तक इन्हीं कहानियों के आधार पर इस देश में एक समुदाय खुद को महान, उदार और अच्छा साबित करता रहा. इन वर्णनों के आधार पर खुद को देश पर शासन करने के लिए सबसे महान साबित किया गया.
इसी श्रेष्ठता के दावे के आधार पर इस देश की राजनैतिक सत्ता, फिर सामाजिक रुतबा और फिर संसाधनों पर कब्ज़ा करा गया. असल में घबराहट की असली वजह यही है कि एक बार यह सिद्ध हो गया कि आप ना तो अतीत में सभ्य और उदार थे, ना ही आप आज सभ्य और उदार हैं. आपका अतीत और वर्तमान हत्याओं, दमन, भेदभाव से भरा हुआ है तो इस देश के राजनैतिक आदर्श भी बदल जायेंगे. अगर आप राममन्दिर के नाम पर सत्ता पर कब्ज़ा कर सकते हैं तो राम के चरित्र के खंडन से आपका राजनैतिक वर्चस्व भी टूट जाएगा, आप इसे ठीक से समझिये.
दलितों, आदिवासियों की दिलचस्पी अतीत की कहानियों में सुधार के लिए लिए दावेदारी करने की नहीं है. दलित और आदिवासी युवा आपके राम और दुर्गा के मिथकों के विरुद्ध नहीं है, वह आपके विरुद्ध हैं. दलित, आदिवासी युवा आपके सवर्ण, शहरी अमीर वर्चस्व के विरुद्ध हैं. आपके द्वारा लगातार दलितों और आदिवासियों को नीच समझने, उनके साथ अपमानजनक भाषा में बात करने, उनके संसाधनों को दादागिरी से छीनने के खिलाफ दलित, आदिवासी, युवा का यह बिलकुल जायज़ विद्रोह है.
उन्हें तो आपसे वर्तमान में ही दो-दो हाथ करने हैं और आपको पटखनी देकर सत्ता में बराबरी करनी है. आप उनका लगातार अपमान करते हैं, लगातार उनकी ज़मीनें छीनते हैं, सुरक्षा बल भेज कर उनकी महिलाओं से बलात्कार करवाते हैं ताकि आदिवासी डर जाएं और आपका विरोध ना करें और फिर आप मूंछ मरोड़ कर कहते हैं कि हमें तो जनता ने सत्ता में बैठाया है !
आप दावा करते हैं कि आप गोभक्त राष्ट्रभक्त महान धर्म के उदारवादी और महान सभ्यता के वंशज हैं लेकिन आपके काम लूटने, बलात्कार करने और हत्या करने के हैं तो आदिवासी और दलित आपकी मक्कारी को चुनौती दे रहे हैं. आप मीडिया को डरा सकते हैं, खरीद सकते हैं, आदिवासियों और दलितों के खिलाफ आपके अत्याचारों की खबरों को शहरी समाज तक आने से रोक सकते हैं लेकिन आदिवासी और दलित अपने आपस में जो सोशल मीडिया के मार्फ़त खबरों का आदान प्रदान कर रहा है, वह आपकी नज़रों से दूर है.
एक क्रान्ति खदक रही है. मैं इंतज़ार में हूं कि यह ज्वालामुखी कब फूटता है. आप कह सकते हैं कि मैं शान्ति के पक्ष में नहीं हूं, आपने बिलकुल ठीक समझा. मुझे अगर न्याय और शांति में से एक चीज़ चुननी हो तो मैं न्याय को चुनूंगा क्योंकि अन्याय के मौजूद रहते हुए जो शान्ति होगी, वह श्मशान की शान्ति होगी. मैं इस समाज के शमशान बनने के विरुद्ध हूं. मुझे एक जिंदा समाज पसंद है, जो कभी भी, कहीं भी, किसी के साथ भी अन्याय को बर्दाश्त ना करे. साफ़-साफ़ समझ लीजिये मैं बगावत की तरफ हूं. दलितों और आदिवासियों द्वारा इस विरोध का मैं पूरी तरह समर्थन करता हूं.
जिस मुल्क में सफाई करने वाले छोटी जाति के और गंदगी करने वाले बड़ी जाति के माने जाते हों, जिस समाज में जूते बनाने वाले, कपड़े बनाने वाले, कपड़े धोने वाले, सब्ज़ी बेचने वाले और इस तरह के सारे मेहनतकश लोग नीच जात के माने जाते हों, जहां दलित उत्पीडन की पीड़ा के गीत गाने भर के अपराध के कारण अनेकों दलित कार्यकर्ताओं को नक्सली कह कर जेल में डाल दिया गया हो, वहां सबसे पहला राजनैतिक फैसला फर्ज़ी सफाई का ढोंग करना नहीं बल्कि जेलों से दमन के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले राजनैतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई होने चाहिए थी.
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