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मुक्ति में ही प्रेम है

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मुक्ति में ही प्रेम है
मुक्ति में ही प्रेम है

वह कलकल बहती नदी थी
निष्छल प्रेम से भरी, उन्मुक्त
प्रेम में उसने अपनी मुक्ति देखी
और छककर प्रेम किया

लेकिन प्रेम में वह ठहर गयी
या यों कहें कि प्रेम बांध बनकर
उसके सामने खड़ा हो गया

शुरू में उसे अच्छा ही लगा
थोड़ा रुककर जीते हैं
थोड़ा ठहरकर जीते हैं

लेकिन जल्द ही पानी सड़ने लगा
नदी अब बेचैन होने लगी
उमड़ने घुमड़ने लगी
बांध पर अपना सर पटकने लगी

आखिर बहना ही तो उसकी प्रकृति थी

लेकिन बांध तो बांध था
भले ही नदी का प्रेम था

नदी ने रास्ता बदला
उसने अब प्रेम में नहीं
ममता में अपनी मुक्ति देखी
वह फिर कलकल छलछल बहने लगी
उसे लगा वह मुक्त हो गयी

लेकिन कुछ समय बाद
बच्चा बड़ा हो गया
मां के सामने बांध बनकर खड़ा हो गया
नदी का पानी फिर सड़ने लगा
नदी फिर उमड़ने धुमड़ने लगी
बांध पर अपना सर पटकने लगी

लेकिन बांध तो बांध था
भले ही नदी का ममत्व था
नदी मायूस हो गयी, नदी उदास हो गयी
नदी सिकुड़ गयी
नदी कैद हो गयी

क्या यह कैद टूटेगी ?
क्या नदी बांध तोड़ेगी ?
लेकिन अब कलकल छलछल बहने से बांध नहीं टूटेगा
अब तो सैलाब ही बांध तोड़ेगा
क्या नदी सैलाब बनेगी ?

लेकिन सच तो यह है कि
सैलाब बनने के लिए
नदी में पानी बहुत कम है
दोनों बांधों ने नदी का काफी पानी सोख लिया है

लेकिन नदी की सैलाब बनने की इच्छा बहुत प्रबल है
बांध पर वह अब भी पछाड़ खा रही है
सैलाब बनने की अपनी इच्छा बादलों को बता रही है
बादलों ने उसकी इच्छा सुनी

एक रोज गहरी काली रात
घनघोर बारिश हुई
एलान हुआ कि
नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है

नदी के जबरदस्त थपेड़े बांध की चूले हिला रहे थे
और वह समय भी आया
नदी सैलाब बन गयी
बांध को तो अब टूटना ही था
वह टूट गया

नदी मुक्त हो गयी

कुछ के लिए यह भयावह दृश्य था
तो कुछ के लिए अब तक का सबसे सुंदर दृश्य
नदी अब फिर कलकल छलछल बहने लगी
सुंदर लय में गाने लगी

‘मुक्ति प्रेम में नहीं
बल्कि मुक्ति में ही प्रेम है’

  • मनीष आजाद

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