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पैलियो जिनॉमिक्स और स्वांटे पाबो : विलुप्त सजातीय जीवों का क्या कुछ हममें बचा है ?

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पैलियो जिनॉमिक्स और स्वांटे पाबो : विलुप्त सजातीय जीवों का क्या कुछ हममें बचा है ?
पैलियो जिनॉमिक्स और स्वांटे पाबो : विलुप्त सजातीय जीवों का क्या कुछ हममें बचा है ?
चन्द्र भूषण

स्वीडिश जीवविज्ञानी स्वांटे पाबो बिल्कुल बुनियादी जगह पर खड़े होकर इंसानों का इतिहास लिख रहे हैं. यह बुनियादी जगह है इंसान का आनुवांशिक ढांचा, जहां से उसका रंग-रूप, सोचना-बोलना, चलना-फिरना और काफी हद तक जीना-मरना भी निर्धारित होता है. विज्ञान के नोबेल अब अकेले व्यक्ति को कम ही मिलते हैं. चिकित्सा शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान (फिजियॉलजी) के क्षेत्र में 2022 का नोबेल पुरस्कार स्वांटे पाबो को देकर इस क्षेत्र में एक जरूरी रेखा खींचने जैसा काम हुआ है.

इस बिंदु से आगे मेडिकल साइंस का आधार जिनॉमिक्स को ही बनाया जाना चाहिए, जिस पर बातें तो इस सदी की शुरुआत से ही हो रही हैं लेकिन काम बिल्कुल नहीं हो रहा. याद रहे, 13 साल और तीन अरब डॉलर लगाकर ह्यूमन जिनोम प्रॉजेक्ट अप्रैल सन 2003 में पूरा हुआ था, और तब कहा गया था कि मानव जीवन का पूरा सॉफ्टवेयर हमारे हाथ लग गया है. आगे बढ़ने से पहले यहां हमारी तरफ से थोड़ी सफाई जीन-जेनेटिक्स और जिनोम-जिनॉमिक्स को लेकर भी हो जानी चाहिए.

जीवन की मूल इकाई कोशिका में मौजूद जीन्स को हम जीवों के गुण निर्धारक तत्व की तरह देखते आए हैं. किसी परिवार में ज्यादातर लोगों की आंखें हरी होती हैं तो इसका कारण उनमें चले आ रहे किसी खास जीन में खोजा जाता है. इस तरह के कार्य-कारण संबंध का अध्ययन जेनेटिक्स के दायरे में आता है. लेकिन जिनोम एक जीव का पूरा का पूरा आनुवांशिक ढांचा है. इसमें उसके सारे जीन शामिल होते हैं. इसी के मुताबिक जिनॉमिक्स वह शास्त्र है, जिसमें न सिर्फ एक जीव के सारे जीन्स और उनसे जुड़े सभी गुणों का अध्ययन किया जाता है, बल्कि ये जीन्स एक-दूसरे के साथ मिलकर क्या गुल खिलाते हैं, अन्य जीवाणुओं के साथ उनका कैसा खेल चलता है, यह भी समझा जाता है.

पैलियो जिनॉमिक्स

स्वांटे पाबो और उनके कुछ करीबी वैज्ञानिकों की कोशिशों से पिछले पचीस वर्षों में पैलियो जिनॉमिक्स, हिंदी में कहें तो ‘पुरा जिनोम शास्त्र’ नाम के एक नए विज्ञान की शुरुआत हुई है, जिसके बारे में हाल तक कोई सोच भी नहीं सकता था. पुराने टीलों पर मिलने वाले बर्तन-भांड़ों और उनके आसपास मौजूद छोटी-मोटी हड्डियों पर सिर खपाना कुछ समय पहले तक पुरातत्वशास्त्रियों का ही काम माना जाता था. लेकिन स्वांटे पाबो ने हजारों-लाखों साल पुरानी इन हड्डियों पर काम करके इंसानों और उनसे मिलते-जुलते कुछ अन्य जीवों का पूरा जिनोम यानी आनुवांशिक ढांचा खड़ा कर दिया.

इतना ही नहीं, आधुनिक इंसानों के जिनोम से उनकी तुलना करके यह बताया कि इसमें कौन-कौन से हिस्से उन दूसरे जीवों से आए हुए हैं और हमारी बनावट का हिस्सा बनकर यहां वे कैसे-कैसे कमाल दिखा रहे हैं. इंसानों जैसे कुछ और जीव भी धरती पर रह चुके हैं, ऐसा कयास सबसे पहले 1856 में जर्मनी के डुसेलडॉर्फ शहर से थोड़ी दूर निएंडर नाम की एक घाटी के किनारे मौजूद पहाड़ी में काफी ऊपर मौजूद एक गुफा से मिली हड्डियों की खोजबीन से लगाया गया था.

बताया जाता है कि यह घाटी पहले बहुत सुंदर थी. यहां जंगलों से ढ़के चूना-पत्थर के पहाड़ थे और जगह-जगह झरने गिरते रहते थे. न्यूमान नाम के एक पादरी इस घाटी में जाकर कविताएं लिखते थे. इसी न्यूमान (नया आदमी) का देसीकरण करके निएंडर शब्द बना, जबकि थल जर्मनी में घाटी को कहते हैं. यहां की गुफा में मिली हड्डियां इंसानों जैसे किसी अलग जीव की हैं, यह वैज्ञानिक खोज उस समय दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी, क्योंकि ऐसे जीवों की कल्पना अभी तक देवता या राक्षस के रूप में ही की जाती रही है.

सुविधा के लिए इन जीवों की जाति का नाम होमो निएंडरथल ही रख दिया गया. हालांकि सौ साल के अंदर जानकारी मिली कि यूरोप के बहुत बड़े भाग में लाखों साल तक इनकी मौजूदगी थी और संसार से विदा हुए इनको अभी कुल 30 हजार साल ही गुजरे हैं. 1997 में स्वांटे पाबो की टीम ने निएंडर घाटी में ही मिली निएंडरथल हड्डी के एक टुकड़े पर काम करते हुए उसके माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए की पूरी सीक्वेंसिंग कर लेने की घोषणा की.

बता दें कि माइटोकॉन्ड्रिया का काम कोशिका में ऊर्जा की आपूर्ति करने का होता है और उसमें पाया जाने वाला जेनेटिक मटीरियल किसी जीव के पूरे जिनोम का एक छोटा हिस्सा भर होता है. शुरू में कहा जा चुका है कि ह्यूमन जिनोम प्रॉजेक्ट सन 2003 में पूरा हुआ था. स्वांटे पाबो का कमाल यह कि उन्होंने इसके सात साल बाद ही, यानी सन 2010 में अब से 30 हजार साल पहले समाप्त हो चुकी निएंडरथल जाति के जिनोम की भी पूरी सीक्वेंसिंग करके दिखा दी. इस तरह दो मिलती-जुलती, समानांतर जीव-जातियों के जिनोम मेडिकल साइंस के सामने थे, जिनकी तुलना से महत्वपूर्ण नतीजे निकाले जा सकते थे.

लगभग असंभव काम

यह काम कितना कठिन था, इसका अंदाजा पैलियो जेनेटिक्स और पैलियो जिनॉमिक्स से बाहर रहकर कैसे लगाया जाए ? एक जीव जब मरता है तो देर-सबेर उसकी हर कोशिका तहस-नहस हो जाती है. हड्डी के भीतर मौजूद जेनेटिक मटीरियल भी हजारों की साल की अवधि में नमी के साथ आने वाले बहुत हल्के तेजाब और बैक्टीरिया के असर में टूट-बिखर जाता है. सबसे बड़ा खतरा शोधार्थियों से रहता है, जिनके छूने भर से कुछ न कुछ नया जेनेटिक मटीरियल वहां पहुंच जाता है. लेकिन विज्ञान की कई शाखाओं में हो रही प्रगति का भरपूर इस्तेमाल करके इस टीम ने बहुत छोटे से नमूने के साथ यह चमत्कार संपन्न कर डाला.

इतना ही नहीं, 2010 में ही स्वांटे पाबो की टीम ने एक कमाल और किया कि साइबेरिया की एक गुफा में मिले जैविक अवशेषों की खोजबीन से इस नतीजे पर पहुंच गई कि यह इंसानों और निएंडरथल से ही मिलती-जुलती लेकिन कुछ मायनों में उनसे अलग एक तीसरी जीवजाति है. होमो डेनिसोवन नाम की इस जीवजाति की एक जीन ईपीएस1 बाद में तिब्बतियों में पाई गई, जो कम ऑक्सिजन वाले ऊंचे-ठंडे इलाकों में जिंदा रहने में उनकी मदद करती है.

इसके कुछ समय बाद एक हड्डी पर काम करते हुए इस टीम ने अपनी यह खोज प्रकाशित की कि यह हड्डी निएंडरथल मां और डेनिसोवन पिता से पैदा हुई बेटी की है. इन दोनों जीवजातियों का आपसी घुलाव-मिलाव बहुत जल्दी प्रमाणित हो गया. यह भी कि इंसानों की नस्ल होमो सैपिएंस, निएंडरथल और डेनिसोवन कई हजार साल तक आसपास के इलाकों में रहते थे. लेकिन इंसानों और निएंडरथल्स के बीच घुलाव-मिलाव के प्रमाण यूरेशिया महाद्वीप के दक्षिणी इलाके में अब से 45 हजार और 55 हजार साल पहले की अवधि में ही मिलते हैं.

इंसानों जैसी तीन जातियां अगर अगल-बगल रहती थीं तो उनमें से एक ही जिंदा क्यों बची, इस पर कई तरह के अनुमान लगाए जाते रहे हैं. अभी इतना ही पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि अब से 40 हजार साल पहले निएंडरथल और डेनिसोवन की बस्तियां गायब होनी शुरू हो गईं और 30 हजार साल पहले वे पूरी तरह खत्म हो चुके थे. लेकिन उन्हें इंसानों ने घेरकर मार डाला, या अभी की इंसानों की जाति में ही वे समाते चले गए, या फिर पर्यावरण में आ रहे बदलावों के साथ उनका तालमेल नहीं बन पाया, इस बारे में कोई नतीजा ज्यादा लंबी खोजबीन के बाद ही निकाला जा सकेगा.

हममें कितना बचे हैं वे

एक बात पक्की है कि अभी के इंसानों में उनके जीन्स इक्का-दुक्का ही मिलते हैं. यानी निएंडरथल और डेनिसोवन किसी बराबरी के रिश्ते से होमो सैपिएंस में समा गए हों, इसकी उम्मीद कम है. हाल में कोविड महामारी के दौर में स्वांटे पाबो की टीम ने 2020 और 2021 में दो पेपर प्रकाशित किए, जिसमें पहले पेपर का निष्कर्ष यह था कि एक निएंडरथल जीन के चलते सार्स कोव-2 के इनफेक्शन में सांस की समस्या से उबर पाना यूरोपीय मूल के लोगों के लिए ज्यादा मुश्किल हो रहा है.

लेकिन 2021 में आए पेपर में एक और निएंडरथल जीन का हवाला देते हुए इसी टीम ने कहा कि उसके प्रभाव में संक्रमण कम ही मामलों में गंभीर स्थिति तक पहुंच रहा है. वंशवृक्ष के इतिहास पर जाएं तो स्वांटे पाबो की खोजों के बाद नजारा कुछ ऐसा बन रहा है. होमो नस्ल का पहला पुरखा अब से साढ़े छह लाख साल पहले अफ्रीका में खड़ा हुआ और कुछ-कुछ बदलावों के साथ यह हमारे-आपके जैसा होमो सैपिएन बनकर दुनिया पर राज कर रहा है. उसी की एक शाखा अब से सवा चार लाख साल पहले यूरेशिया में पहुंचकर दो हिस्सों में बंट गई- पश्चिम में होमो निएंडरथल और पूरब-उत्तर में होमो डेनिसोवन.

सबसे बाद में अफ्रीका से निकली प्रजाति होमो सैपिएन ने हर जगह अपना विस्तार किया. करीब 50 हजार साल पहले कुछ-कुछ जगहों पर बाकी दोनों के साथ घुला-मिला भी लेकिन अगले 20 हजार वर्षों में ये दोनों जातियां खत्म हो गईं. इनके कुछ गुण अपने भीतर समेटकर अफ्रीका से लेकर यूरोप, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और दोनों अमेरिकी महाद्वीपों तक होमो सैपिएन ही बचे रह गए.

70 वर्षीय स्वांटे पाबो अभी जर्मनी के लाइपजिग शहर में मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपॉलजी के निदेशक हैं और इस संस्थान की स्थापना उन्होंने ही की है. इसके अलावा जापान के ओकिनावा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलजी में भी वे जिनॉमिक्स पढ़ाते हैं. अपने शास्त्र को और आगे तक ले जाने का समय उनके पास है.

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ROHIT SHARMA

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