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‘नास्टेल्जिया फॉर दि लाइट’ : एक और 9/11

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'नास्टेल्जिया फॉर दि लाइट' : एक और 9/11
‘नास्टेल्जिया फॉर दि लाइट’ : एक और 9/11
मनीष आजाद

9/11 आज एक मुहावरा बन चुका है. 2001 के बाद की दुनिया और 2001 के बाद की अमरीकी विदेश नीति को इन दो जादुई अंकों से ‘डीकोड’ किया जा सकता है. लेकिन कम लोगों को यह पता है कि दुनिया में एक और 9/11 है, जिस पर निरंतर पर्दा डाला जाता है.

11 सितम्बर, 1973 को दक्षिण अमरीकी देश चिली में समाजवादी-जनवादी ‘सल्वादोर अयेन्दे’ (Salvador Allende) की सरकार का तख्तापलट किया गया था; और इस तख्तापटल की पटकथा लिखी गयी थी अमरीका में. यही वह दौर था जब मशहूर जन संगीतकार विक्टर जारा को भी मारा गया था.

पिछले 40 साल से हम जिस ‘नवउदारवादी’ अर्थव्यवस्था का क्रूर कहर झेल रहे हैं, उसकी पहली प्रयोगशाला 9/11-1973 के बाद का चिली ही था. संयोग की बात यह है कि 4 सितम्बर 1970 को ही समाजवादी-जनवादी ‘सल्वादोर अयेन्दे’ भारी बहुमत से चुनकर सत्ता में आये थे. यानी आज से ठीक 50 साल पहले.

इस अवसर पर, अंत समय में उनके कला सलाहकार रहे एरिअल दोर्फमान (Ariel Dorfman) ने ‘लास एंजेल्स टाइम्स’ में एक लेख लिखते हुए कहा कि- ‘अगर अयेंदे का यह समाजवादी आन्दोलन आज जिन्दा होता, तो यह दुनिया कुछ और ही होती.’

इस उभरते आन्दोलन, इस खिलते स्वप्न को 11 सितम्बर, 1973 को और उसके बाद, अमरीकी नेतृत्व में फासीवादी पिनोसेट द्वारा किस तरह कुचला गया, इसे चिली के मशहूर डाकूमेन्ट्री मेकर ‘पैट्रिसियो गुजमान’ (Patricio Guzmán) ने अपनी मशहूर फिल्म ‘बैटल आफ चिली’ (Battle of Chile) में समेटा है.

इस फिल्म को भी ‘पिनोसेट’ के क्रूर दमन का शिकार होना पड़ा. इस फिल्म के कैमरामैन ‘जार्ज मुलर’ (Jorge Müller) को गायब कर दिया गया. तब से लेकर आज तक उनका कुछ पता नहीं !

यह फिल्म उन चंद फिल्मों में से हैं जो एतिहासिक घटनाओं का दस्तावेजीकरण इस तरह से करती है कि प्रकारान्तर में खुद इतिहास का जीवंत दस्तावेज बन जाती है. आज चिली के इस कालखण्ड का कोई भी अध्ययन इस फिल्म के बगैर अधूरा ही माना जायेगा. फिल्म की स्टाइल भी ‘थर्ड (वर्ल्ड) सिनेमा’ की क्रान्तिकारी परंपरा में है.

इसी फिल्म में वह मशहूर और दुःखद दृश्य भी है, जहां अर्जेन्टीना के मशहूर कैमरा-जर्नलिस्ट ‘लियोनार्डो हेनरिचसेन’
(Leonardo Henrichsen) ने चिली की सेना के एक जनरल के हाथों, अपनी खुद की मौत को कैमरे में कैद कर लिया था !

2011 में पैट्रिसियो गुजमान ने एक और फिल्म बनाई- ‘(Nostalgia for the Light). सल्वादोर अयेन्दे के तख्ता पलट के बाद ‘अगस्तो पिनोसेट’ (Augusto Pinochet) की अमरीकी समर्थक सैन्य सरकार ने, वहां के ‘वाम’ और ‘प्रगतिशील तबकों’ का, जो कत्लेआम किया, वह इतिहास के कुछ चुने हुए जनसंहारों में शामिल है.

और जैसा कि ऐसे मामलों में हमेशा होता है, इनमें से बहुत से लोगों की लाश भी नहीं मिलती और उनके नजदीकी ता-उम्र मानसिक प्रताड़ना झेलते हुए उनके अवशेष ढ़ूढते रहते हैं.

चिली में ऐसे लापता मृत लोगों की संख्या हजारों में है. उनके नजदीकी रिश्तेदार आज भी उनके अवशेष ढ़ूढ रहे हैं. यह फिल्म उन्ही लोगों की स्मृतियों पर है जो आज भी अपने भाइयों, बेटों, पतियों और अन्य नजदीकी लोगों की स्मृतियों के धुंधला होने के खिलाफ निरंतर लड़ रहे हैं; और इस बहाने यह फिल्म विस्मृति के खिलाफ एक अनोखी जंग का दस्तावेज बन जाती है.

मशहूर राजनीतिक चिंतक ’तारिक अली‘ कहते हैं कि ‘इतिहास का सबसे बड़ा दुरुपयोग इतिहास को भूल जाना है.’ यह फिल्म उन चंद फिल्मों में से है जो इतिहास के अंधेरे कोनों को ढ़ूढ़ती है और फिर उन्हे अपने कैमरे की रोशनी से रोशन करती हैं. ‘विस्मृति’ और ‘स्मृति’ का यह संघर्ष विशुद्ध कला का या अकादमिक संघर्ष नहीं है, बल्कि प्रत्येक जनसंघर्षों का एक अनिवार्य मोर्चा है. इस पूरे विषय को गुजमान ने अपनी इस फिल्म में बहुत ही अनोखे और प्रभावकारी अंदाज में निभाया है.

चिली-पेरू-बोलीविया-अर्जेन्टीना में फैले विशाल रेगिस्तान ‘अटाकामा’ (Atacama) ही वह जगह है, जहां लापता लोगों की लाशों को दफन किया गया है. ऐसा माना जाता है कि कुछ की लाश को इस रेगिस्तान से लगने वाले समुद्र में भी फेका गया है. इसलिए ज्यादातर लोग अपने साथ छोटे छोटे फावड़े लेकर आते हैं और इस विशाल रेगिस्तान की मिट्टी पलटते रहते है. कुछ लोगों को सफलता तो मिली लेकिन साबूत कंकाल शायद ही किसी को मिल पाया.

एक महिला अपने साक्षात्कार में बताती है कि उसे उसके भाई का महज एक पैर मिला…उसने मोजे और जूते से उसे पहचाना. यहां हम स्मृति की ताकत को पहचान सकते हैं. वह महिला उस पैर के साथ दिन भर बैठी रही. अभी भी उसे उम्मीद है कि वह अपने भाई का शेष हिस्सा भी खोज निकालेगी. इससे यह भी पता चलता है कि लोगों को मारने के बाद उन्हें कई टुकड़ों में विभक्त कर दिया गया और इधर उधर रेगिस्तान में फेंक दिया गया. हैवानियत की कोई सीमा नही होती !

फिल्म में एक ‘एन्थ्रोपालाजिस्ट’ के हवाले से बताया गया है कि यह रेगिस्तान सुदूर अतीत काल के मानव अवशेषों से भी भरा हुआ है. यहां एन्थ्रोपालाजिस्ट सुदूर अतीत के मानव इतिहास को खोज रहे हैं तो महिलाएं अपने नजदीक के ‘इतिहास’ को खोज रही हैं. सुदूर अतीत और आधुनिक काल के अवशेषों के रिश्तों पर यह फिल्म सीधे सीधे तो कुछ नही कहती; लेकिन संकेत साफ है.

‘बर्बरता’ से ‘सभ्यता’ तक की मानव यात्रा रैखिक नही हैं. इनके बीच बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारे बने बनाये सांचे में फिट नहीं होता. यह रेगिस्तान दुनिया का सबसे शुष्क रेगिस्तान है; इसलिए अन्तरिक्ष को खंगालने के लिए यह आदर्श जगह है. यहां दुनिया की आधुनिकतम आब्जरवेटरी है. यहां दुनिया के तमाम वैज्ञानिक ब्रहमाण्ड का इतिहास जानने में लगे हुए हैं.

दरअसल फिल्म इसी आब्जरवेटरी से शुरु होती है और अन्तरिक्ष के इतिहास के साथ चिली के इस तात्कालिक इतिहास की समस्या को दार्शनिक धरातल पर जोड़ने का प्रयास करती है.

फिल्म में इस आब्जरवेटरी में काम करने वाले वैज्ञानिकों के कुछ रोचक साक्षात्कार भी हैं, जिससे रेगिस्तान में सतह के नीचे अपने नजदीकियों को खोजने वाली महिलाओं और ब्रह्मांड की अतल गहराइयों से आने वाले प्रकाश को खोजने वाले वैज्ञानिकों के बीच एक खूबसूरत रिश्ता बनता है.

अपने पति के अवशेषों को इस रेगिस्तान में खोज रही एक महिला कहती है कि काश ऐसा होता कि अन्तरिक्ष की तरफ जो मशीनें अपनी नज़र गड़ाये हुए हैं, वे मशीनें इस रेगिस्तान की तरफ अपनी नज़र मोड़ ले और हम इसमें दबे हुए अपने लोगों को खोज निकालें !

इसी आब्जरवेटरी का एक वैज्ञानिक कहता है कि ‘हम दोनों ही इतिहास खोज रहे हैं. लेकिन दोनों के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि हम रोज अपने हिस्से का काम करके चैन की नींद ले सकते हैं, लेकिन इस रेेगिस्तान में अपनों को खोजने वाली ये महिलाएं कभी चैन की नींद नही ले पाती.’

हालांकि मुझे लगता है कि ब्रहमाण्ड के इतिहास और अपनों को खोजने के इतिहास के बीच साम्य पर आवश्यकता से ज्यादा जोर देने के कारण, विषय का तीखापन प्रभावित होता है; और फिल्म के अन्त में हमारे भाव कुछ हद तक ‘विरेचित’ (catharsis) होने लगते हैं. फिल्म में स्मृति की ताकत का एक रोचक उदाहरण है: इसी रेगिस्तान में पिनोसेट ने एक यातना शिविर बनवाया था, जिसके बारे में बाहरी दुनिया को कोई खबर नहीं थी.

इसमें बन्द एक व्यक्ति रोज रात को इस यातना शिविर का नक्शा बनाता था और सुबह पकड़े जाने के भय से इसे फाड़कर टायलेट में फेंक देता था. रोजाना के इस अभ्यास द्वारा उसने अपने दिमाग में इस यातना शिविर का एक पूरा नक्सा दर्ज कर लिया और छूटने के बाद इसी के माध्यम से दुनिया को पता चला कि यह यातना शिविर कैसा था !

फिल्म में ‘अटाकामा’ रेगिस्तान के ‘लांग शाट्स’ काफी खूबसूरत हैं. बिना बैकग्राउण्ड संगीत के ये लांग शाट्स रेगिस्तान की सतह के नीचे दबे इतिहास की रोशनी में एक साथ खूबसूरत भी लगते हैं और भयावह भी. इतिहास भी तो ऐसा ही है- ‘खूबसूरत और भयावह’ !!

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