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माई नेम इज़ सेल्मा : यह सिर्फ़ उस यहूदी महिला की कहानी भर नहीं है…

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माई नेम इज़ सेल्मा : यह सिर्फ़ उस यहूदी महिला की कहानी भर नहीं है…
माई नेम इज़ सेल्मा : यह सिर्फ़ उस यहूदी महिला की कहानी भर नहीं है…
मनीष आजाद

98 साल की उम्र में यहूदी महिला ‘सेल्मा’ (Selma van de Perre) ने 2021 में इसी नाम से अपना संस्मरण लिखा. हिटलर के शासन के दौरान जर्मनी व यूरोप में 1933 से 1945 के बीच यहूदियों की क्या स्थिति थी, इसका बहुत ही ग्राफिक चित्रण इस किताब में है.

नीदरलैंड में एक मध्यवर्गीय यहूदी परिवार में जन्मी सेल्मा, जर्मन- राजनीति की उथल-पुथल से अनभिज्ञ एक सामान्य जीवन जी रही थी. 1933 में जर्मनी में हिटलर के सत्ता संभालते ही वहां पर यहूदियों के उत्पीड़न की खबरें नीदरलैंड के यहूदियों के बीच भी पहुंचने लगी.

सेल्मा के माता-पिता और रिश्तेदार भी चिंतित होने लगे. लेकिन फिर अपने को यह समझाकर कि यह तो जर्मनी में हो रहा है, अपना ‘सामान्य’ जीवन जीने लगे. फिर अचानक 1941 में नीदरलैंड पर हिलटर का हमला हुआ और एक क्षण में सब कुछ तेज़ गति से बदलने लगा.

हिटलर का पहला आदेश आया कि यहूदियों के बच्चे अब ‘आर्य नस्ल’ के बच्चो के साथ नहीं पढ़ेंगे. यहूदियों को लगा चलो, शायद इसके बाद स्थितियां सामान्य हो जाय.

कुछ ही माह में हिटलर का दूसरा आदेश आया कि यहूदी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. एक ही क्षण में यहूदियों को पैदल ही कई किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी. सेल्मा भी अपनी पढ़ाई और रोजगार के लिए सड़कों पर पैदल ही किलोमीटर- किलोमीटर चलने को बाध्य हो गयी.

यहूदियों ने सोचा कि अब इससे ज्यादा क्या होगा ! यह भी सह लेते हैं. तभी हिलटर का तीसरा आदेश आया कि यहूदियों को ‘डेविड स्टार’ बांध कर सड़क पर निकलना होगा ताकि उनकी यहूदी पहचान सुनिश्चित की जा सके.

और उसके बाद वह समय भी आया जिससे हम सभी परिचित हैं. यानी यहूदियों/कम्युनिस्टों और हिटलर विरोधियों को पकड़-पकड़ कर ‘यातना शिविर’ में बंद करना और फिर वहां से कुख्यात ‘आश्विच गैस चैम्बर’ में ले जाकर मार डालना.

सेल्मा अपनी दमदार लेखनी में इसे यों दर्ज करती हैं – ‘मैं यहां लंदन में चुपचाप बैठी 1940 में खींची गयी फैमिली एल्बम को निहार रही हूं. यह मेरी मां, मेरी छोटी बहन और मै हूं. हम एम्सटर्डम में चाची सारा के बगीचे में बैठे आराम फरमा रहे हैं. उस वक्त यह मेरे लिए सबसे शांति वाली जगह थी.

‘पारिवारिक समय की एक आदर्श तस्वीर: प्यार, सुरक्षा, आराम और सब कुछ प्रत्याशित. हमारे चेहरों पर इस बात का कोई चिन्ह मौजूद नहीं था कि अगले तीन सालों में क्या घटित होने जा रहा है.

‘लेकिन इन्ही तीन सालों में मेरी मां, पिता और छोटी बहन क्लारा की मृत्यु हो गयी. इसके अलावा मेरी दादी, चाची सारा, उनके पति अरी और उनके दो बच्चे व बहुत से दोस्तों और परिवार के लोग भी मारे गये.

‘इनमें से कोई भी मृत्यु प्राकृतिक या एक्सीडेन्ट के कारण नहीं हुई थी. यह उस बर्बरता का नतीजा था जो उस वक्त तक अधिकांश यूरोप को अपनी गिरफ़्त में ले चुका था, जब हमारी यह फैमिली फोटो ली गयी थी.

‘उस बर्बरता का कहर अब नीदरलैंड पर गिरने ही वाला था. इस विपत्ति के आने से पहले हम इस बात को कतई नहीं समझ सके थे कि एक सामान्य जीवन जीना भी किसी के लिए कितना विशेषाधिकारयुक्त हो सकता है !

‘मेरे लिए यह विश्वास करना आज भी बेहद कठिन है कि जो लोग बिना कोई चिन्ह छोड़े, अपना जीवन बिता देने वाले थे, उन सबके नाम आज स्मारकों पर दर्ज हैं, क्योंकि वे दुनिया के सबसे व्यवस्थित जन-संहार के शिकार हुए हैं.’

सेल्मा अंततः नीदरलैंड के भूमिगत प्रतिरोध दस्ते का हिस्सा बन जाती है, जहां उनका मुख्य काम ‘कुरियर’ का होता है, क्योंकि वे ‘यहूदी जैसी’ नहीं दिखती. सेल्मा ने कुरियर के रूप में बेहद खतरनाक काम को अंजाम दिया और अनेकों कम्युनिस्टों, यहूदियों की जान बचायी.

लेकिन अंत में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें महिलाओं के लिए बने यातना शिविर ‘Ravens-brück’ में रखा गया. हिटलर के मरने के बाद ही वो यहां से मुक्त हो पायी और तभी उन्हें यह जानकारी भी मिली कि उनकी मां, पिता, छोटी बहन व अन्य लोग गैस चैम्बर में किस क्रूरता से मारे गये !

सेल्मा ने ‘Ravens¬brück’ यातना शिविर का भी बहुत सजीव चित्रण किया है, जहां एक ओर नारकीय जीवन है तो दूसरी बहनापा और प्रतिरोध भी है. बहनापे को सेल्मा ने बहुत ही अच्छा नाम ‘कैम्प सिस्टर’ दिया है.

यहां भी सेल्मा व अन्य महिलाओं का प्रतिरोध जारी रहता है. पूछताछ के दौरान जर्मन भाषा अच्छी तरह जानने के बावजूद वे कहती हैं कि ‘उन्हें जर्मन नहीं आती.’ लिहाजा उनके लिए दुभाषिये का इंतजाम करना पड़ता है.

जब उन्हें सेना के लिए मास्क बनाने के कारखाने में लगाया जाता है, तो वे पेच को जानबूझकर कर थोड़ा ढीला छोड़ देती हैं, जिससे वह युद्ध के मैदान में काम न आ सके.

सेल्मा यहां एक महत्वपूर्ण जानकारी भी देती हैं. इस यातना शिविर में जो लेबर कैम्प था, वहां मशहूर जर्मन कंपनी ‘सीमेंस’ के लिए काम होता था. इसी तरह मशहूर ‘फिलिप्स’ कंपनी के लिए भी लेबर कैम्प बनाये गये थे. इसी कारण हिलटर को इन पूंजीपतियों का तगड़ा समर्थन प्राप्त था.

इस विषय पर विस्तार से लेखक ‘David De Jong’ ने अपनी पुस्तक ‘Nazi Billionaires’ में लिखा है. आज के दौर को ध्यान में रखकर इस किताब को पढ़ने की जरूरत है, और तभी हम समझ पाएंगे कि यह सिर्फ ‘सेल्मा’ की कहानी नहीं है. हम सबकी कहानी है.

यह भी एक अजब संयोग है कि जिस दिन (5 सितम्बर, 2023) मेरे घर NIA (National Investigation Agency) का छापा पड़ा, उसकी पिछली रात मैं यही किताब पढ़ रहा था और मेरे सपने में ‘SS’ (नाज़ी पार्टी का सशस्त्र दस्ता) के बूटों की आवाज़ गूंज रही थी.

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