हेमन्त कुमार झा,एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
आधुनिक इतिहास के पन्ने पलट कर देख लीजिए, कोई भी पुनरुत्थानवादी शक्ति ऐसी नहीं हुई जिसने अपने दौर के समाज का भला किया हो. समाज के कुछ खास तबकों को इन पुनरुत्थानवादियों में भले ही तात्कालिक आकर्षण नजर आए, लेकिन अंततः वे भी अपना सिर पीटते ही देखे गए.
सिर पीटना शुरू हो भी चुका है. कोई कितना भी अतीतजीवी हो, कोई कितना भी स्वप्नजीवी हो, जीना तो उसको वर्तमान में ही है और कोई भी जीवन आर्थिक आधार के बिना पंगु है, बेमानी है. जीवन न अतीत की जुगाली से चलता है, न भविष्य के कोरे स्वप्नों से. जो तालियां पीटते थे उनमें से बहुत सारे लोग अब अपना सिर पीट रहे हैं.
नवउदारवाद की अवैध संतानों के भरोसे कोई भी सत्ता कितने दिनों तक टिक सकती है ? सिर्फ यही वह वर्ग है जो आज भी दिल से इस सत्ता का पैरोकार बना है. बाकी सब असमंजस में हैं. इस असमंजस के पीछे विकल्पों का भोथरापन है, जिसे धार देने की कोशिशें हाल के कुछ महीनों से परवान चढ़ रही हैं.
उनके पास नफरत की खेती के सिवा और कोई रास्ता है ही नहीं जो उनकी राजनीति का मार्ग प्रशस्त करे. उनके पास कोई स्पष्ट आर्थिक चिंतन है ही नहीं. उनके वैचारिक पुरखों के पास भी नहीं था. आप उनकी किताबें पलट कर देख लीजिए, उनके भाषणों के रिकार्ड सुन कर देख लीजिए, वही घिसी पिटी बातें कि जी, सुदूर अतीत में हम विश्वगुरु थे, हम फिर से विश्व गुरु बनेंगे.
हमारे पुरखे पुष्पक विमान से उड़ते थे, हम फिर से उसमें उड़ेंगे, हमारे पूर्वजों ने प्लास्टिक सर्जरी में ऐसी महारत हासिल की थी कि एक किशोरवय आदमी की गर्दन के ऊपर हाथी के बच्चे का सिर लगा दिया था आदि आदि.
अतीत के तर्कहीन आख्यानों में एक पूरी पीढ़ी को सम्मोहित कर वे भविष्य की काल्पनिक तस्वीर रच रहे हैं और इस पीढ़ी के साथ ही आने वाली पीढ़ियों के जीवन के लिए भी दुश्वारियां पैदा कर रहे हैं.
दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है. कृषि सभ्यता से बरास्ते औद्योगिक सभ्यता, दुनिया अब उत्तर औद्योगिक सभ्यता के दौर में है. इस दौर में कोई संगठन, कोई नेता अतार्किक लफ्फाजियों के सहारे सत्ता तक तो पहुंच सकता है लेकिन अपने दौर पर गहरी छाप नहीं छोड़ सकता.
छोड़ सकता है तो कुछ खंरोचें, जिनके निशान सभ्यता की बाहरी परतों पर लंबे अरसे तक नजर आते रहेंगे और याद दिलाते रहेंगे कि ठोस चिंतन पर आधारित न्यायपूर्ण आर्थिक नीतियों, समानता और सौहार्द्र की ओर ले जाने वाली सामाजिक नीतियों, चित्त को मानवीय गरिमा से आलोकित करने वाली सांस्कृतिक नीतियों का कोई विकल्प नहीं है.
संभव है कि उखड़ती सांसों के साथ वे जैसे-तैसे अगला चुनाव भी जीत जाएं. प्रोपेगेंडा उनका सबसे बड़ा बल है जो पिछले चुनाव में उनके बहुत काम आया था. संभव है, आगे भी कुछ ऐसा हो. लेकिन, वे जितने दिन राज करेंगे, खुद अपनी ही कब्र को और गहराई, और गहराई देते जाएंगे.
और जब एक दिन वे सत्ता से बाहर होंगे तो खुद अपनी बनाई इसी कब्र में दफन हो इतिहास के ऐसे अध्याय में शामिल कर लिए जाएंगे जिन्हें पढ़ कर भावी पीढ़ियां सीख लेंगी कि इस तरह की शक्तियों का राजनीतिक उभार मानवता के व्यापक हितों के संदर्भ में कितना घातक हो सकता है.
उनका आर्थिक चिंतन इतना दरिद्र है कि इस निर्धन देश की बहुसंख्यक वंचित आबादी को बेलगाम लालच से प्रेरित कार्पोरेट शक्तियों के हवाले कर किसी खास धर्म के नाम पर राष्ट्र की कल्पनाओं और योजनाओं में डूबा हुआ है.
हालांकि, राजनीतिक रूप से वे कितने भी ताकतवर हो जाएं, अपने आईटी सेल के माध्यम से लोगों के मानस को कितना भी दूषित करने का प्रयास करते रहें, वे धर्म आधारित राष्ट्र को यथार्थ की विविधता भरी जमीन पर नहीं उतार सकते.
आखिर, इस राष्ट्र की नींव में गांधी, नेहरू, सुभाष, पटेल, मौलाना आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खां, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल, अशफाकुल्ला जैसे बलिदानियों का त्याग है, उनकी तपस्या है, दशकों चले स्वतंत्रता संघर्ष की वैचारिक विरासत है.
इनकी शानदार और गरिमामयी विरासत हमें आश्वस्त करती है कि भले ही लोकतंत्र के अंतर्विरोधों का लाभ उठा कर, समय के अंधेरों में रास्ता बना कर कोई शक्ति कुछ वर्षों या दशकों के लिए सत्ता शीर्ष पर बैठ सकती है, लेकिन वह इस देश की मानवतावादी वैचारिकी को कुचल कर नया देश, नया समाज नहीं रच सकती।
उन्होंने नया संसद भवन बनाया जिसके पहले सत्र में ही उनके एक सांसद ने बदतमीज टिप्पणियों से माहौल को कोलाहल से भर दिया. वह सांसद असंसदीय शब्दों के साथ चीख रहा था और उसकी बगल में बैठे दो अन्य वरिष्ठ सांसद, जो आजकल सत्ता केंद्र से दूर हैं, निर्लज्ज तरीके से हंसते मुस्कुराते देखे गए.
वह सांसद क्यों इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था ? क्योंकि वह जानता है कि उसके कुनबे में इस तरह की बदतमीजियां पुरस्कृत होती हैं. सत्ता केंद्र से दूर वे दोनों वरिष्ठ सांसद तब क्यों हंसते मुस्कुराते देखे गए ? क्योंकि उन्हें पता है कि इन असंसदीय, घटिया बातों पर हंसना और खूब हंसना उन्हें सत्ता केंद्र के करीब लाने में सहायक हो सकता है. उनमें एक ख्यात डॉक्टर है एक प्रख्यात वकील. दोनों अच्छे खासे पढ़े लिखे.
लेकिन उन्हें पता है कि अपनी पढ़ाई लिखाई को ताक पर रख कर उन्हें इन असभ्य, असंसदीय शब्दों पर हंसने वाली प्रतिक्रिया ही देनी है क्योंकि कक्ष में लगे दर्जनों कैमरे हर सांसद के चेहरे के हाव भाव को रिकार्ड कर रहे हैं और संभव है कि सुप्रीमो और उनके सलाहकार इन वीडियोज की पड़ताल करें कि जब लोकतांत्रिक और संसदीय मर्यादाओं का चीर हरण हो रहा था तो उनका कौन आदमी किस मुद्रा में था, उसके चेहरे पर कैसी प्रतिक्रिया थी.
वह डॉक्टर, वह वकील अब पुरस्कृत होने की प्रत्याशा में होगा. वे पुरस्कृत होंगे भी, लेकिन देश की आत्मा उन्हें कभी माफ नहीं करेगी. इस देश की आत्मा ने मानवीय गरिमा के चीर हरण पर चुप्पी साधे रहने वाले महाज्ञानी, महाप्रतापी भीष्म और द्रोण को, महान योद्धा, महादानी कर्ण को क्षमा नहीं किया, स्वयं कृष्ण ने उन्हें दंड दिलवाया तो इन टुच्चे नेताओं को इस देश के नैतिक मूल्य कैसे क्षमा करेंगे.
यह शोध और बहस का विषय होगा कि नरेंद्र मोदी ने अपने दौर को कितना प्रभावित किया या दौर ने मोदी के राजनीतिक उत्थान में कितनी या कैसी भूमिका निभाई, लेकिन, यह तयशुदा निष्कर्ष तो होगा ही कि भारतीय राजनीति का मोदी काल सभ्यता और संस्कृति के मानकों पर अंधकार काल कहा जाएगा.
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