शब्द और अर्थ के बीच लुकाछिपी का खेल
अब बहुत हो चुका
किंतु-परंतु में हमने काफी वक्त जाया कर दिया
किंतु-परंतु की खाई पार करके
अब अर्थ तक सीधे पहुंचने का वक्त है
ख़ालिस अर्थ तक
लेकिन अब अर्थ तक पहुंचना ही पर्याप्त नहीं है
अर्थ से सीधे आंख मिलाना भी जरूरी है
अर्थ से नज़र चुराते रहने का ही
तो यह नतीज़ा है कि आज
न्याय का मतलब बुलडोजर
और संस्कार का मतलब बलात्कार हो गया
किताबों में शब्दों को खुरच-खुरच कर
उनका ख़ालिस अर्थ निकालने का वक्त है यह
सहमे, अलसाए अर्थों को
दोपहर की कड़क धूप दिखाने का वक्त है यह
बेतरतीब शब्दों को अब
तरतीब से सजाने का वक्त है
उनके अर्थों से नज़र मिलाकर
यह घोषणा करने का वक्त है अब
कि आज से
और अभी से
तितली का मतलब तितली ही होगा
और प्यार का मतलब प्यार
सागर का मतलब अब सागर ही होगा
और विद्रोह का मतलब विद्रोह
जी, सही सुना आपने
विद्रोह का मतलब अब विद्रोह ही होगा…!
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संसद ‘रबर स्टैंप’ बन चुकी है,
न्यायालय अपनी ‘हत्या’ किए जाने के
डर से ‘आत्महत्या’ कर चुकी हैं.
नौकरशाही अपनी रीढ़ की
हड्डी कब की गवां चुकी है.
चुनाव पैसे और परसेप्शन की बंधक हो चुकी है.
विश्वविद्यालयों से ‘विश्व’ गायब हो चुका है.
कवि ‘क्लासिक’ की आड़ ले चुके हैं.
ऐसे में हमारे पास संघर्षों के
अलावा और रास्ता भी क्या है….?
- मनीष आजाद
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