हेमन्त कुमार झा,एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
के. के. पाठक ने जब विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता और कुलाधिपति के अधिकारों पर सवाल उठाए तो मीडिया का एक तबका अति-उत्साहित हो उठा. किसी सरकारी अधिकारी के ‘सिंघम’ अवतार में आने पर मीडिया के उछलने और खूब उछलने का यह कोई पहला मामला नहीं था. लेकिन, सिंघम फिल्मों के परदे पर ही देखने और तालियां बजाने की चीज है, वास्तविक धरातल पर हर कोई कानून और परंपराओं से बंधा है. इस सीमा का उल्लंघन हो तो भले ही आपके उद्देश्य सकारात्मक हों, आप लक्ष्य हासिल करने के बजाय महज विवादों को ही जन्म देंगें.
बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के. के. पाठक के साथ ऐसा ही हो रहा है. उन्होंने अपने आदेश से एक विश्वविद्यालय के कुलपति का वेतन रोक दिया. कुलाधिपति कार्यालय ने इसे अपने अधिकारों का अतिक्रमण माना और आपत्ति जाहिर करते हुए इस आदेश को अमान्य घोषित कर दिया. महज विवाद के इस मामले में और कुछ हासिल नहीं हुआ. उन्होंने बिहार सरकार के बैनर तले कुलपतियों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी कर दिया. वह भी तब, जब महीने भर पहले राजभवन यह विज्ञापन जारी कर चुका था.
उच्च शिक्षा के इतिहास में यह अनोखा उदाहरण बना कि एक ही पद के दो अलग अलग विज्ञापन दो अलग-अलग प्राधिकारों ने जारी कर दिए. यह हास्यास्पद था और अंततः उन्हें सरकारी विज्ञापन रद्द करना पड़ा. इस मामले में भी महज विवाद के और कुछ हासिल नहीं हुआ. कुलाधिपति कार्यालय की घोर आपत्तियों के बावजूद उन्होंने मान्य परंपराओं की अवहेलना करते हुए विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के नाम सीधा आदेश पत्र जारी कर दिया कि उन्हें कैसे अपने कार्यालय में आना है और कैसे अपना काम करना है.
कुलपतिगण इस आदेश को मानेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं दिखती. जाहिर है, इसमें भी विवाद के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता. इन सब आदेशों के भी पहले, उन्होंने आदेश दिया कि जो संबद्ध डिग्री कॉलेज अपने शिक्षकों और कर्मचारियों की उपस्थिति की दैनिक रिपोर्ट नहीं भेजेंगे तो उनका संबंधन रद्द कर दिया जाए. उनके इस आदेश पर भी कुछ होना जाना नहीं था क्योंकि यह व्यावहारिक था ही नहीं.
जिन संस्थानों के कर्मियों को सात आठ वर्षों से वेतन के नाम पर एक पाई तक नहीं मिले, उन्हें सख्त अनुशासन में आप कैसे बांधेंगे ? अनुदान के नाम पर वर्षों पहले का बकाया अगर रिलीज भी होता है तो ऐसे डिग्री कॉलेजों के शिक्षकों और कर्मियों को औसतन दस-पंद्रह हजार रुपये महीने का वेतन भी नसीब नहीं होता. यानी, मान्यता प्राप्त डिग्री कॉलेज के प्रोफेसरों को बरसों बरस रुला तड़पा कर पारिश्रमिक के नाम पर आप कुछ दे दिला देंगे और उनसे उम्मीद करेंगे कि वे भी लाख दो लाख प्रति माह वेतन उठाने वाले सरकारी कॉलेजों के प्रोफेसरों की तर्ज पर आपका अनुशासन मानें.
उन्होंने सख्त आदेश जारी किया कि बात नहीं मानने वाले संस्थानों की मान्यता ही रद्द कर दें. अब तक ऐसा एक भी उदाहरण शायद ही मिला हो, जिसमें इस आदेश के आलोक में किसी संस्थान की मान्यता रद्द हुई हो. फिर, ऐसे हास्यास्पद आदेशों का क्या मतलब ? बिहार सकल नामांकन अनुपात और उच्च शिक्षण संस्थानों की उपलब्धता के मामले में देश के निचली कतार के राज्यों में शामिल है. यहां जितने उच्च शिक्षण संस्थान हैं उनसे बहुत अधिक संख्या में और संस्थानों की जरूरत है. फिर, संस्थानों की मान्यता रद्द करने के आदेश का क्या मतलब ?
किसी सरकारी अधिकारी के बस की बात नहीं है कि वह बिहार के संबद्ध डिग्री कॉलेजों के हालात सुधार दे. इसके लिए राजनीतिक स्तरों पर निर्णयों की जरूरत है. मंत्रिमंडल के स्तर पर ऐसे निर्णय नहीं लिए जा रहे और अधिकतर संबद्ध कॉलेज महज नामांकन और परीक्षा फार्म भरवाने के और कुछ खास नहीं कर पा रहे. प्रायोगिक कक्षाओं की तो बात ही भूल जाइए, सैद्धांतिक कक्षाओं का व्यवस्थित संचालन भी यहां असंभव है. कोई सचिव या निदेशक स्तर का अधिकारी इन संस्थानों की दशा सुधारने का सकारात्मक प्रयास तो कर सकता है, इन संस्थानों का प्रभु नहीं बन सकता.
के. के. पाठक के ताबड़तोड़ फरमानों ने खूब सुर्खियां बटोरीं. गंदे और प्रायः जाम हो चुके नाले में तब्दील हो चुकी बिहार की शिक्षा व्यवस्था में प्रवाह आने के कुछ संकेत भी मिलने शुरू हुए. लेकिन, इसे अति उत्साह कहें या अति अहंकार या सीमा का अतिक्रमण करती अति सक्रियता कहें, पाठक महोदय के अनेक फरमानों ने बिहार की उच्च शिक्षा में सिवाय गफलत पैदा करने के और कुछ खास लक्ष्य हासिल नहीं किया.
बावजूद इसके कि अतीत में कुलपति नामक संस्था के नैतिक आभा मंडल में क्षरण हुआ है, यहां तक कि कुलाधिपति कार्यालय भी विवादों के घेरे में रहा है, लेकिन, कोई सरकारी अधिकारी कुलपतियों को सीधा आदेश जारी करे, उनके लिए अपमानजनक स्थितियां उत्पन्न करे, यह हालात सुधारने में सकारात्मक भूमिका तो नहीं ही निभा सकता.
विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता किसी भी देश और समाज के बौद्धिक विकास की पहली और आखिरी शर्त है. कुछ भी इस दायरे के भीतर ही हो सकता है. जिस दिन विश्वविद्यालय सरकारी संस्थानों में बदल जाएंगे और सरकारी अधिकारियों के फरमानों पर चलने लगेंगे, कैंपस की बौद्धिक आभा और स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी. कुलपति नामक संस्था का अगर नैतिक क्षरण हुआ है तो उसमें सुधार या बदलाव उस पद की गरिमा पर खरोंच डाल कर नहीं हो सकता.
इस राज्य का कौन पढ़ा लिखा व्यक्ति नहीं जानता कि राजनीतिक बिसात पर किस तरह विश्वविद्यालयों को, उनकी संस्कृति को, उनकी व्यवस्था को बेदर्दी से नष्ट किया गया. बड़े पदों पर नियुक्तियों, पदस्थापनाओं आदि में नियम कानूनों का घोर उल्लंघन, आधारभूत संरचना के विकास के प्रति घोर उपेक्षा का भाव, शिक्षण प्रक्रिया को आधुनिक जरूरतों के अनुसार ढालने के संदर्भ में महज खानापूरी करने आदि ने बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों की प्रतिष्ठा को भी धूमिल कर दिया. छोटे और मंझोले स्तर के संस्थान तो कब के बदहाली का शिकार हो गर्त में जा चुके.
इनको सुधारने के लिए गंभीरता से चिंतन, नीति निर्धारण और नियमन की जरूरत है. अखबारी सुर्खियां पा रहे ताबड़तोड़ फरमानों से संस्थानों में हलचल तो पैदा हो सकती है, उनके स्वास्थ्य में वास्तविक सुधार नहीं हो सकता.
बावजूद इसके कि विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं, जो कि उन्हें होना ही चाहिए, सरकार के अपर मुख्य सचिव के पास तब भी इतने अधिकार हैं कि वे अपने प्रयासों से बड़े बदलाव ला सकते हैं. वे सघन ऑडिट कर वित्तीय अनियमितताओं पर सख्त नकेल कस सकते हैं, दोषियों को कानून के दायरे में ला सकते हैं, विश्वविद्यालयों की प्रशासनिक अराजकताओं पर कुलाधिपति का ध्यान आकर्षित कर उन्हे कार्रवाई के लिए अनुरोध कर सकते हैं, जैसा कि पटना हाई कोर्ट ने एक मामले में कहा, वित्तीय अनियमितताओं में वे विश्वविद्यालय के किसी भी अधिकारी को सीधे कानून के शिकंजे में ला सकते हैं. वे चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं.
लेकिन नहीं, जो वे कर सकते हैं, जो उन्हें करना ही चाहिए, वह नहीं कर के वे सीधे कुलाधिपति के अधिकारों को ही चुनौती देंगे, शिक्षकों पर लगातार ऐसे फरमान पर फरमान जारी करेंगे जो अव्यावहारिकता की हदों तक पहुंच जाएगा, विश्वविद्यालयों के संचालन और प्रशासन में अवांछित हस्तक्षेप करेंगे और कुल मिला कर ऐसे हालात का निर्माण कर देंगे जिसमें खूब विवाद होंगे, खूब कोलाहल मचेगा, अखबारों, टीवी और डिजिटल मीडिया के चैनलों पर खूब सुर्खियां बनेंगी, चटखारेदार चर्चाएं परिचर्चाएं होंगी, राजनीतिक एंगल खोजे जाएंगे और फिर, जैसा कि रिवाज है, एक दिन वे ईख उत्पादन की प्रगति मापने किसी अन्य विभाग में स्थानांतरित कर दिए जाएंगे.
इसमें संदेह नहीं कि के के पाठक ने बीते महीनों में बड़ी उम्मीदें जगाई, जंग लगी संरचनाओं में गतिशीलता लाने की कोशिश कर व्यापक जन समर्थन और आस्था के केंद्र बने. सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों की उपस्थिति का ग्राफ आशातीत तरीके से बढ़ने लगा.
बच्चों की बढ़ती उपस्थिति ने सरकारी शिक्षण संस्थानों की आधारभूत संरचना की कमियों को एकदम से बेपर्दा कर दिया और इस कारण, आज हर संस्थान इस मायने में दबाव में है. हालत यह है कि शिक्षकों की घोर कमी से इन संस्थानों में अराजकता की स्थितियां पैदा हो रही है. दूर दराज से आए बच्चे अपने विषय के शिक्षकों की खोज कर रहे जो कि कई विषयों में हैं ही नहीं. निराश हो इधर उधर भटकते वे एक सवाल बन कर कहीं बैठ जाते हैं. यूरिनल, बाथरूम, कैंटीन, हॉस्टल आदि जैसी बेहद जरूरी सुविधाओं के अभावों से जूझते कई संस्थानों के प्रधान और शिक्षक बच्चों की अनपेक्षित भीड़ के सामने विवश और हलकान हैं.
के. के. पाठक जैसे अधिकारियों की सख्त जरूरत है शिक्षा विभाग को, बल्कि सबसे अधिक जरूरत शिक्षा विभाग को ही है. वे स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों और उनके अभिभावकों में उम्मीदें जगाने के लिए याद किए जाएंगे. लेकिन, उम्मीद जगाने से अधिक महत्वपूर्ण है उन्हें पूरा करना. यहीं आकर पाठक महोदय कहीं न कहीं ट्रैक से भटकते प्रतीत होने लगते हैं. उन पर अपनी कानूनी सीमाओं का अतिक्रमण करने के आरोप लगते हैं, जबकि, अगर वे अपनी सीमाओं में रह कर भी कल्पनाशील, संवेदनशील किंतु सख्त तरीके से अपने अधिकारों का प्रयोग करें तो बहुत कुछ सकारात्मक कर सकते हैं.
शिक्षक दिवस के दिन महामहिम राज्यपाल सह कुलाधिपति महोदय ने मुख्यमंत्री की उपस्थिति में उन्हें आड़े हाथों लेते हुए अपने व्याख्यान में जो उदगार व्यक्त किए उनसे अधिकतर लोग सहमत ही होंगें. कुलपति और शिक्षकों की गरिमा का ध्यान रखते हुए ही सुधार की कोई बात हो सकती है.
किंतु, माननीय कुलाधिपति सहित उच्च शिक्षा के तमाम कर्णधारों के लिए भी यह आत्म मंथन का समय है. आखिर, किसी सरकारी अधिकारी को उनके दायरे में घुसने का स्पेस मिला कैसे ? उससे भी अधिक गौर करने की बात है कि विश्वविद्यालयों पर उक्त अधिकारी के तथाकथित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को जन सामान्य का नैतिक समर्थन क्यों हासिल है ? अगर कोई अपनी गरिमा और स्वायत्तता के प्रति आग्रही है तो यह होना ही चाहिए, किंतु ऐसे आग्रह जिस आत्म अवलोकन और आत्म नियमन की अपेक्षा रखते हैं, उसके प्रति भी सावधान रहना होगा.
यह दुर्भग्यपूर्ण सत्य है कि बिहार के विश्वविद्यालय अपनी संरचनात्मक और प्रशासनिक अराजकताओं के कारण जनता में प्रतिष्ठा बहुत हद तक खो चुके हैं. ऐसी अराजकताएं उनकी स्वायत्तता पर सवाल उठाने वालों को स्वाभाविक तौर पर स्पेस देती हैं. अगर समाज ने आपको अपरिमित गरिमा और प्रतिष्ठा दी है तो उसकी अपेक्षाएं भी होंगी. हाल के वर्षों में बिहार के विश्वविद्यालयों ने इन अपेक्षाओं की जबर्दस्त और खुलेआम ऐसी की तैसी की है. कोई लज्जा नहीं, कोई लिहाज नहीं. कई मायनों में कई विश्वविद्यालय दुकान बन कर रह गए जहां पद बिकने के आरोप लगते रहे, जहां नियमों और कानूनों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती रहीं.
बिना आत्म नियमन और जिम्मेदारी के स्वायत्तता का राग बेसुरा भी हो सकता है और यह न सिर्फ वर्तमान, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी अभिशाप साबित होगा, हो भी रहा है. आज का सच यही है कि इस राज्य के अधिकतर जागरूक आदमी और हर गरीब आदमी के. के. पाठक के समर्थन में हैं. पाठक महोदय ने साबित किया कि एक अकेला अधिकारी सड़ चुके सिस्टम में हलचल पैदा कर सकता है.
मुश्किल यह है कि स्वयं के के पाठक इस बात को शायद नहीं समझ रहे कि इस अभिशप्त राज्य के करोड़ों गरीबों की आस्था और उम्मीदों का केंद्र बन जाने के बाद उन्हें किस तरह इन उम्मीदों को थामे रखना चाहिए.
इस संदर्भ में पटना विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए महामहिम ने सबसे सटीक बात कही, ‘यह संघर्ष नहीं, समन्वय का विषय है.’.उम्मीद है, आने वाला वक्त बिहार के शिक्षा जगत में अहंकारों की टकराहट का नहीं, संस्थाओं के समन्वय का साक्षी बनेगा. वरना, बाकी लोग तो एक दिन अपनी राह लेंगे, अचानक से उमड़ी उम्मीदों का दामन थामे करोड़ों लोग बेहद निराश होंगे.
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