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भारत के किसान की बदहाली और किसान संघर्ष – शोध रिपोर्ट

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भारत के किसान की बदहाली और किसान संघर्ष - शोध रिपोर्ट
भारत के किसान की बदहाली और किसान संघर्ष – शोध रिपोर्ट
Ram Chandra Shuklaरामचन्द्र शुक्ल

कृषि अर्थशास्त्री व पत्रकार देवेन्द्र शर्मा द्वारा प्रस्तुत एक आकलन के अनुसार 1976 में गेंहू 76/-₹ प्रति कुंतल था. 45 साल बाद 2015 में गेंहू की कीमत 1450/-₹ प्रति कुंतल थी, जो कि 76/-₹ का 19 गुना होती है. इसके अतिरिक्त एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार 2000 ई. से लेकर 2016 ई. के बीच के 16 सालों में भारत के किसानों को 45 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है, परंतु इस बात की चर्चा न तो किसी किसान संगठन तथा न खेती व किसानी से जुड़ी अन्य किसी सरकारी अकादमी व गैर सरकारी संगठन द्वारा अब तक की गयी है.

इस संबंध में गांव कनेक्शन हिंदी न्यूज पेपर से जुड़े रहे तथा वर्तमान समय में न्यूज पोटली नामक वीडियो चैनल संचालित करने वाले अपने फेसबुक मित्र अरविंद शुक्ल जी से गत वर्ष 2022 के आखिर में हुई एक बातचीत में कृषि अर्थशास्त्री व पत्रकार देवेन्द्र शर्मा द्वारा भारत की खेती व किसानों की स्थिति के संबंध में जिन तथ्यों का उद्घाटन किया गया है, वह आंख खोल देने वाला है.

विचारणीय सवाल

शर्मा जी के अनुसार 1970 से 2015 के बीच सरकारी कार्मिकों के वेतन में 120 गुना, स्कूल अध्यापकों के वेतन में 280 गुना तथा विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों के वेतन में 150 गुना की वृद्धि हो चुकी है. मेरी सरकारी नौकरी मई 1997 में लगी तो मेरा पहला वेतन 5100/-₹ मिला था. 24 साल के बाद जब मैं सेवानिवृत्त हुआ तब तक यह वेतन 25 गुना बढ़ चुका था. मतलब कि 24 साल की सरकारी सेवा में 25 गुना वेतन वृद्धि हो गयी.

उपरोक्त वृद्धि के अनुपात में अगर किसान द्वारा अपने खेत में पैदा किए जाने वाले गेहूं की 1970 में कीमत 76/-₹ प्रति कुंतल में 100 गुना भी वृद्धि की जाए तो 2015 में उसे 7600/-₹ प्रति कुंतल गेंहू की कीमत मिलनी चाहिए थी, पर 1970 के 52 साल बाद आज की तारीख में किसान के गेंहू का समर्थन मूल्य 2200 रूपये के भीतर ही है. इसके अतिरिक्त सरकारी कार्मिकों को वेतन के अतिरिक्त मकान किराया भत्ता, चिकित्सा प्रतिपूर्ति भत्ता तथा शिक्षा भत्ता सहित 108 तरह के भत्ते मिल रहे हैं. यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के जजों को 21 हजार रूपये सालाना धुलाई भत्ता तथा सेना के अधिकारियों को 20 हजार रूपये सालाना धुलाई भत्ता मिल रहा है. पर किसान को इनके स्थान पर क्या मिल रहा है – यह विचारणीय सवाल है.

किसानों का कर्ज

पिछले 08 सालों में देश के कॉर्पोरेट्स के 10 लाख करोड़ से अधिक के बैंक लोन को राइट आफ (माफ) किया जा चुका है और किसान की पिछले 15 सालों के भीतर कुल कर्ज माफी 2 लाख करोड़ से अधिक नहीं हुई है. पूरे देश में सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियां लागू करने पर देश के सालाना बजट में लगभग 05 लाख करोड़ की वृद्धि हो जाने की संभावना है. सरकारी कर्मचारी को हर छ: महीने पर मंहगाई भत्ते की एक अतिरिक्त किश्त मिल जाती है, जिससे उसका वेतन साल दर साल बढ़ता रहता है.

इस सबके बावजूद देश व विदेश के अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था देश के 15 करोड़ किसान परिवारों की मेहनत के बलबूते पर टिकाऊ बनी हुई है लेकिन हकीकत यह है कि इस देश की अर्थव्यवस्था देश के किसान को निचोड़कर चल रही है. इसके लिए देश के किसान लगातार अपने जीवन की आहुति दे रहे हैं. गांव व खेती से जुड़े तथा देश के गांवों के किसानों व मजदूरों से सहानुभूति रखने वाले अपने फेसबुक मित्रों से अनुरोध है कि वे कृपया देश के किसानों के वर्तमान हालात पर चर्चा व विचार विमर्श को विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पोस्ट करें, ताकि सरकार पर देश के किसानों की स्थिति में बेहतरी लाने का दबाव बन सके.

खरीद मूल्य बनाम एमएसपी

उत्तर प्रदेश में आलू की सरकारी खरीद के लिए दाम 650/-₹ निर्धारित किया है, पर बाजारों व मंडियों में किसान का आलू 500/-₹ प्रति कुंतल या फिर इससे भी कम मूल्य पर बिक रहा है. आलू की सरकारी खरीद कहां हो रही है, इसकी जानकारी किसानों को बिल्कुल नहीं है. उत्तर प्रदेश के शीतगृह (कोल्ड स्टोर) लगभग भर चुके हैं. मुझे खुद अपने बीज के आलू रायबरेली के बजाय पड़ोसी जिले प्रतापगढ़ के कोल्ड स्टोर में जमा कराने पड़े हैं.

यही हाल प्याज किसानों का है. भारत में प्याज के कुल उत्पादन की आधी उपज अकेले महाराष्ट्र में होती है. महाराष्ट्र की कुल उपज के आधे प्याज का उत्पादन अकेले नासिक जिले में होता है. न्यूज पोटली की रिपोर्ट के अनुसार नासिक की कृषि मंडियों में इस समय प्याज 800/-₹ प्रति कुंतल से कम मूल्य पर बिक रहा है, जिसके कारण किसानों को प्याज का लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है.

यही हालत पिछली फसल में मध्यप्रदेश व राजस्थान के लहसुन किसानों की हुई थी. मध्य प्रदेश की मंदसौर और राजस्थान की कोटा मंडियों में लहसुन की खरीद 10/-₹ प्रति किलोग्राम से भी कम मूल्य पर हुई थी, जबकि सरकारी खरीद हेतु निर्धारित समर्थन मूल्य 1800/-₹ प्रति कुंतल था. फलस्वरूप गुस्साए किसानों ने अपने लहसुन इसलिए नदी में फेंक दिए थे क्योंकि उनकी बिक्री से लहसुन की लागत भी नही निकल पा रही थी.

उपरोक्त हालात किसान को बर्बाद व बदहाल नहीं बनाएंगे तो और क्या होगा. ऐसे में या तो किसान तनाव में आकर आत्मघात करेंगे या फिर खेती करना छोड़ देंगे. उनके खेतों पर देश के कारपोरेट घरानों की गिद्ध दृष्टि पहले से लगी हुई है. देश भर में फैले अपने फेसबुक मित्रों से अपेक्षा करता हूं कि वे कृपया जिस भी भाषा व लिपि में लिख सकते हों अपने क्षेत्र के प्रमुख कृषि उपजों, उनकी कीमतों तथा किसानों की स्थिति पर पोस्ट जरूर लिखें.

लखनऊ की स्थानीय मंडी में आज लाल आलू 12/-₹ प्रति किलो ग्राम, सफेद आलू 10/-₹ प्रति किलोग्राम तथा प्याज 16/-₹ प्रति किलोग्राम मिल रहा है, जबकि अपने गांव भैनापुर के क्षेत्र में औसत दर्जे का आलू 10/-₹ का दो किलोग्राम तक बिक रहा है. सरकार द्वारा आलू खरीद के लिए समर्थन मूल्य 650/-₹ प्रति कुंतल निर्धारित है, पर सरकारी खरीद केंद्र कहां खुले हैं इसकी जानकारी किसी किसान को नहीं है. किसान अपने आलू न तो अन्य राज्यों को भेज पा रहें हैं और न ही उनका आलू विदेशों को ही निर्यात हो पा रहा है.

ऊपर मैने आलू की फुटकर बिक्री वाली दरें लिखी हैं. हकीकत में आलू की थोक वाली दर मेरे क्षेत्र में 400/-₹ प्रति कुंतल से ज्यादा नहीं है. ऐसी दरों के कारण किसान की लागत भी नहीं निकल पा रही है और सारा मुनाफा बिचौलियों की जेब में जा रहा है. मेरे क्षेत्र में 400/-₹ प्रति कुंतल बिकने वाला आलू शहर की मंडी में 10/-₹ प्रति किलोग्राम बिक रहा है. इस तरह से 10 रूपये में से किसान को मात्र 4/-₹ प्रति किलोग्राम मिल रहा है और विचौलिए 6/-₹ प्रति किलोग्राम मुनाफा हासिल कर रहे हैं.

खेती, घाटे का सौदा : किसान बन रहे मजदूर

खेती के घाटे का सौदा होने के कारण देश में किसान की स्थिति बहुत त्रासद होती जा रही है. मेरे क्षेत्र में बहुत सारे किसानों ने आवारा पशुओं व नील गायों के प्रकोप के कारण खेती करना ही छोड़ दिया है और ऐसे परिवारों के सदस्य शहर जाकर मजदूरी करने लगे हैं. देश के शासक और कारपोरेट घराने यही चाह रहे हैं कि किसान खेती छोड़कर शहर में जाकर मजदूर बन जाएं, ताकि वे उनकी जमीनें हड़प सकें और उनके कारखानों के लिए शहरों में बेहद सस्ती दरों पर मजदूर मिल सकें.

छोटे किसानों के साथ अब तक बहुत नाइंसाफ़ी की गयी है बैंककर्मियों द्वारा. सरकारी कोआपरेटिव बैंक तथा भूमि विकास बैंक किसानों के लिए यमदूत की भूमिका निभाते रहे हैं अब तक. छोटे व मझोले किसानों के छोटे छोटे कर्जों की वसूली न हो पाने पर उन्हें तहसील के हवालात में 14 दिन के लिए बंद करते देखा है. इन कर्जदार किसानों की सूची पैक्स (प्राथमिक कृषि ॠण सहकारी समितियों) के सूचना बोर्ड पर लगाई जाती है. उनके कर्जों की वसूली आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) काटकर पुलिस तथा राजस्व विभाग के कर्मचारियों से भू- राजस्व की भांति कराई जाती है तथा इनकी सम्पत्ति व घर तथा खेती की नीलामी कर कर्ज की वसूली की जाती है.

वर्तमान सरकारी तंत्र किसानों के लिए अंग्रेजी शासकों से कम क्रूर व जालिम नहीं है. अपने गांव को सैकड़ों किसानों को सरकारी कर्ज के कारण बड़े किसान से भूमिहीन किसान बनते देखा है. उनकी अधिकांश जमीनें सरकारी कर्ज अदा करने के लिए बिक गयी. इसके ठीक विपरीत हजारों हजार करोड़ रूपये के कर्ज देश के सरकारी बैंकों से लेकर तथा उन्हें चुकता न कर पाने के कारण सैकड़ों पूंजीपतियों व कारपोरेट घरानों ने खुद को दिवालिया घोषित करा लिया तथा सारी दौलत लेकर सत्ताधारी शासकों के सहयोग से विदेशों में जाकर बस गये. नीरव मोदी, मेहुल चौकसी तथा विजय माल्या ऐसे लोगों के प्रतिनिधि व मार्गदर्शक बन चुके हैं.

आखिरकार इनके द्वारा देश के सरकारी बैंकों से लिए गये कर्जों की वसूली देश में मौजूद इनकी सम्पत्तियों को बेचकर क्यों नहीं की जा रही है. इसलिये नहीं की जा रही है क्योंकि ये वर्तमान सत्ताधारी दल को करोड़ों का चंदा देते रहे हैं.

धरती से फ्री में पानी निकाल कर देश के पूंजीपति व कारपोरेट घराने 20/-₹ प्रति लीटर बेच रहे हैं. इस मुनाफाखोरी को बढ़ावा देने के लिए रेलवे व बस स्टेशनों सहित सार्वजनिक स्थानों पर फ्री पानी मिलना बंद हो चुका है जबकि रेल मैनुअल में रेल यात्रियों को फ्री में पानी उपलब्ध कराने का प्राविधान है. इसके लिए देश के सभी शहरों तथा जनपद स्तरीय रेलवे स्टेशनों पर पानीवाला का एक पद होता था तथा इस पद पर एक कर्मचारी तैनात होता था, जिसका एक मात्र काम रेल यात्रियों को पानी पिलाने का होता है.

किसान सम्मान निधि का ढकोसला

ये जो किसान सम्मान निधि के नाम से 500/-₹ प्रतिमाह अर्थात 06 हजार रुपए सालाना देश के किसानों को मिल रहे हैं, उसके लिए देश के किसान संगठनों तथा देवेन्द्र शर्मा जैसे कृषि अर्थशास्त्रियों ने सरकार पर लगातार दबाव बनाकर इसके लिए सरकार को मजबूर किया है. अब देश के किसानों को इस धनराशि में वृद्धि के लिए आन्दोलन आदि करके सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. यह धनराशि यद्यपि हर माह 5 हजार और 60 हजार रुपए सालाना होनी चाहिए. परंतु यदि किसान संगठन अभी से सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दें तो 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले यह धनराशि दूनी होकर 1000/-₹ प्रतिमाह और 12 हजार रुपए सालाना हो सकती है.

इसके अतिरिक्त सरकार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून बनाने तथा कृषि उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए भी दबाव बनाने के लिए किसानों को आन्दोलन करना चाहिए. ध्यान रहे कि मां बच्चे के रोने पर ही दूध पिलाती है इसलिए देश के किसानों जागो, आपको अपनी लड़ाई लड़ने के लिए खुद सामने आना होगा. यह आपके अस्तित्व की रक्षा तथा जीने मरने का सवाल है. अगर आप अब नहीं जागे तो आपका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा. इसलिए अपनी मांगों को मनवाने के लिए अपनी आवाज को बुलंद करें.

जिस तरह से आपने आन्दोलन के रास्ते पर चलकर सरकार को तीन किसान विरोधी काले कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर किया उसी तरह से आप आन्दोलन के रास्ते पर चलकर किसान सम्मान निधि की धनराशि दूनी करा सकते हैं तथा सरकार को कृषि उपजों का समर्थन मूल्य बढ़ाने तथा एमएसपी की गारंटी को कानून बनाकर लागू करा सकते हैं. जब से जागो तभी से सबेरा है इसलिए भारत देश के किसानों जागकर अपने हक हुकूक की लड़ाई में लग जाओ.

किसान आन्दोलन के खिलाफ दुश्प्रचार : धनी किसानों का आन्दोलन

जो लोग 2020-21 के किसान आन्दोलन को पंजाब व हरियाणा के धनी किसानों का आन्दोलन मान/बता रहे हैं, उनके लिए कृषि अर्थशास्त्री व पत्रकार देवेन्द्र शर्मा ने चुनौती दी है. दिल्ली की किसी भी सीमा पर कोई भी धनी आदमी या धनी किसान यदि 15 दिन गुजार दे तो वह आदमी पुरस्कार का हकदार बन जाएगा और उसे यह पुरस्कार शर्मा खुद देंगे, पर इसमें शर्त यही होगी कि उस आदमी को उन्हीं परिस्थितियों व उतनी ही सुविधाओं के अंतर्गत यह अवधि बितानी होगी, जिन स्थितियों व जितनी सुविधाओं के अंतर्गत आन्दोलन के दौरान किसानों ने अपना समय गुजारा था. इच्छुक व्यक्ति मेरे भी मैसेंजर इनबाक्स में अपना फोन नंबर व अपना व्यक्तिगत विवरण दे सकता है. यह बात शर्मा जी ने न्यूज पोटली यू-ट्यूब चैनल से जुड़े मित्र अरविन्द शुक्ला को दिए गए गये एक इंटरव्यू में कही है.

2020-21 के किसान आन्दोलन को धनी किसानों का आन्दोलन मानने वालों में मेरे प्रिय मित्र मुकेश असीम तथा आदरणीया कात्यायनी जी भी है. मुकेश असीम ने किसी प्रसंग में यह बात पीडीएफ फाइल समूह (सोशल मीडिया ग्रुप) में तथा कात्यायनी ने यह बात तब कही थी जब उनसे शिष्टाचार भेंट हेतु दिनांक 12-03-2023 को जनचेतना बुक शाप गया था. इस भेंट के समय बद्री वर्मा भी उसी स्थान पर उपस्थित थे.

दरअसल इस आन्दोलन को पंजाब व हरियाणा के धनी किसानों का आन्दोलन बताने वालों में मेरे अन्य कई मित्र भी शामिल हैं लेकिन अपने इन सभी मित्रों से मेरा कहना है कि यह किसान आन्दोलन मात्र धनी किसानों का आन्दोलन नहीं था, अपितु इस आन्दोलन को भारत की 100 करोड़ आबादी का समर्थन प्राप्त था. हमारे मित्रों को यह भी समझना होगा कि भारत के लघु व सीमांत किसान तथा बटाईदार किसानों की स्थिति सरकारी नीतियों के कारण मजदूरों से भी बदतर हो चुकी है और इस समय ये किसान ही इस देश के लिए सर्वहारा वर्ग हैं. इन्हें नजरअंदाज कर हमारे देश में कोई भी आन्दोलन न तो सफल हो सकता है और न ही किसी बड़े और व्यापक परिवर्तन की संभावना ही बन सकती है.

यह आन्दोलन यदि सफल न होता तो अब तक पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) का संचालन खत्म हो गया होता और आज देश की 80 करोड़ गरीब जनता को जो नाममात्र मूल्य पर हर महीने खाद्यान्न हासिल हो रहा है, वह मिलना अब तक बंद हो गया होता. वर्तमान शासक आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 को निष्प्रभावी बनाकर रोजमर्रा की जिंदगी के लिए जरूरी गेहूं, चावल, दाल, चीनी, मिट्टी के तेल, प्याज, आलू, खाद्य तेल आदि की स्टाक लिमिट को खत्म करा देते और ये सभी जरूरी उपभोक्ता वस्तुएं अडानी, अंबानी, टाटा तथा सलवारी बाबा के गोदामों में चोर रास्ते से पहुंचकर जमा हो जाती. बाद के दिनों में इस आन्दोलन का स्वरूप उसी तरह से अखिल भारतीय हो गया था, जिस तरह से दिल्ली के शाहीन बाग में सीएए व एनआरसी के विरुद्ध चले आन्दोलन का स्वरूप अखिल भारतीय हो गया था.

अपराजेय किसान आन्दोलन

इन दोनों आन्दोलनों ने भारत के वर्तमान फासीवादी शासकों को बैकफुट पर ढकेलकर उन्हे पराजित किया है. इस आन्दोलनों से भारत की मेहनतकश लोगों, किसानों, निम्न मध्यम वर्ग के शिक्षित व अशिक्षित बेरोजगार युवाओं, आदिवासियों तथा महिलाओं को सबक लेना चाहिए. देश के किसानों का यह आन्दोलन यह भी सिद्ध करता है कि वर्तमान शासक अपराजेय नहीं हैं तथा इन्हें भी पराजित कर सत्ता से बाहर किया जा सकता है.

यह आन्दोलन इस मामले में भी मार्गदर्शक की भूमिका अदा करने वाला है कि देश के किसानों को कृषि उपजों की एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज या न्यूनतम समर्थन मूल्य) बढ़ाने, एमएसपी की गारंटी का कानूनी प्रावधान करने, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के स्थान पर पहले की तरह बैलट पेपर पर मुहर लगाकर मतदान के माध्यम से चुनाव कराने तथा किसान सम्मान निधि की धनराशि में बढ़ोत्तरी करने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर पुनः एक बड़ा आन्दोलन शुरू करना चाहिए. देश में अगले साल 2024 में लोकसभा का आम चुनाव होना है. सरकार अडानी मामले में घिरी हुई है इसलिए यह आन्दोलन का बिल्कुल सही अवसर है. लोहा पूरी तरह से गर्म है. उस पर एक बड़ी चोट की जरूरत है. इस समय इन मुद्दों पर आन्दोलन होने से सफलता की संभावना 90% से भी ज्यादा है.

इस आन्दोलन से भारत के वर्तमान शासक इस कदर भयभीत है कि इस आन्दोलन में शहीद होने वाले 700 से अधिक किसानों के आश्रितों को अभी तक एक पैसे का मुआवजा नहीं दिया है. इन दोनों आन्दोलनों को तोड़कर इन्हें खत्म कराने के लिए भारत के शासकों को देश में लाक डाउन तक लगाना पड़ा. सार्वजनिक परिवहन के समस्त साधनों को बंद कराना पड़ा था, इसके बावजूद भारत के शासक इस आन्दोलन को खत्म नही करा सके और न ही किसानों के हौसले को तोड़ सके थे.

इस आन्दोलन की शक्ति को तोड़ने तथा इसे बदनाम करने के लिए वर्तमान शासकों ने 26 जनवरी 2021 को किसानों के ट्रैक्टर मार्च को गुमराह किया और अपने दलालों के माध्यम से दिल्ली के लाल किले पर सिख समुदाय द्वारा सम्मानित निशान साहब को तिरंगे के स्थान पर फहरवाया. पर यहां भी इनके षड्यंत्र की असलियत जनता के सामने आ गयी और आन्दोलन आगे भी चलता रहा. वर्तमान शासकों द्वारा एमएसपी की गारंटी का कानूनी प्रावधान करने के लिए समिति के गठन का वायदा किया गया था लेकिन आन्दोलन खत्म हो जाने के बाद इस संबंध में सरकार के स्तर से किसी कार्रवाई होने की कोई सूचना अब तक संचार माध्यमों से प्राप्त नहीं हुई है.

किसान आन्दोलन से जुड़े रहे साथियों को आन्दोलन के दौरान शहीद हुए किसानों की सूची जारी करते हुए देश की जनता से इनके परिजनों की आर्थिक सहायता की अपील करनी चाहिए. मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि देश की जनता के दिलों में उन शहीद किसानों के प्रति आज भी हमदर्दी है. इसलिए देश के लोग इन शहीद किसानों के परिजनों की आर्थिक सहायता हरहाल में करेंगे. यह ध्यान रहे कि देश के वर्तमान शासक बैक डोर से फिर से किसान विरोधी काले कानूनों को लाने की कोशिश में लगे हुए हैं. किसान यदि गाफिल हुए तो फिर से देश पर ये काले कानून थोपे जा सकते हैं इसलिए इस नारे को जोरदार आवाज में पुनः बुलंद करने की जरूरत है –

हर जोर जुल्म के टक्कर में
हड़ताल हमारा नारा है,
आन्दोलन हमारा नारा है
धरना-प्रदर्शन हमारा नारा है !

दो-गुनी आमदनी का झांसा

2016 में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री व कृषि मंत्री द्वारा घोषणा की गयी थी कि 2022 तक देश के किसानों की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी. पर हकीकत में 2022 आया और निकल भी गय लेकिन किसान की आय दूना होने की बात कौन कहे उनकी आय इन 06 सालों में आधी हो गयी. 2016 के इकोनॉमिक सर्वे में यह बात कही गयी थी कि देश के 17 राज्यों में किसान परिवारों की आय सालाना 20 हजार रुपए से भी कम है. यहां तक कि भारत की गाय की आय भी भारत के किसान की सालाना आय से ज्यादा है. यहां तक कि दैनिक मजदूरी करने वाला मजदूर की भी आर्थिक स्थिति एक औसत किसान से बेहतर है.

वर्तमान समय में हर साल किसानों को रूपये 06 हजार किसान सम्मान निधि के रूप में दिए जा रहे हैं, पर सब्सिडी की यह धनराशि बेहद कम है और इसके बलबूते पर किसान परिवार का सर्वाइव कर (गुजारा हो पाना) पाना संभव नहीं है. इस समय किसान सम्मान निधि के रूप में हर किसान को कम से कम 03 हजार रुपए मासिक और 18 हजार रुपए सालाना दिया जाना चाहिए. इस धन के देने पर देश के बजट पर मात्र 01 लाख 45 हजार करोड़ का वित्तीय भार आएगा. देश के कारपोरेट घरानों को बैंकों से दिए गये कर्ज की इससे कई गुना धनराशि हर साल राइट ऑफ (माफ) की जा रही है.

भारत के किसानों को वर्तमान में जो किसान सम्मान निधि हर साल दी जा रही है, इससे काफी जादा डायरेक्ट इन्कम सपोर्ट फ्रांस, यूएसए तथा कनाडा के किसानों को वहां की सरकारों की ओर से हो रही है. दुनिया-भर के देशों के किसान बदहाल हैं और अपने-अपने देशों के शासकों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं. मात्र भारत के किसान ही आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. यूएसए के किसान भी आत्महत्या कर रहे हैं. यूएसए में शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में की जाने वाली आत्महत्याएं 45% ज्यादा हैं.

दुनियाभर में किसानों के फसलों का गिरता मूल्य

संयुक्त राज्य अमेरिका में 1865 में सिविल वार (गृहयुद्ध) के खत्म होने के समय गेहूं का जो दाम था, वह आज की तुलना में 06 गुना ज्यादा था. यूएसए में 150 साल के भीतर गेंहू का दाम 15 गुना कम हो चुका है. दुनिया-भर में जब गेहूं की पैदावार बढ़ी तो प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी और गेहूं के दाम गिरने लगे।यहां यह भी उल्लेखनीय है कि धान सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों-भारत, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड, वर्मा तथा बंग्लादेश में ही ज्यादा पैदा होता है. विश्व के शेष देश इन्हीं देशों से चावल आयात कर रहे हैं. दुनिया-भर के अधिकांश बड़े देश ठंढी जलवायु वाले हैं, जहां एकमात्र रबी की फसल गेहूं की ही पैदावार होती है.

सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धा तो गेंहू के उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण में है. दुनिया-भर के अधिकांश ठंढ वाले देशों में गेहूं का उत्पादन अधिक होता है. दुनिया-भर में गेहूं ज्यादा पैदा करने वाले देशों में कनाडा, यूएसए, रूस, यूक्रेन, आस्ट्रेलिया तथा यूरोपीय देशों का नाम शामिल है. दुनिया-भर में गेंहू का अत्यधिक उत्पादन होने के कारण इसके मूल्यों में भी बहुत जादा प्रतिस्पर्धा है. गेंहू का मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में न बढ़ने का एक प्रमुख कारण इसका अत्यधिक उत्पादन भी है. इसके बावजूद विश्व के अन्य देशों की तुलना में गेहूं का मूल्य भारत में सबसे जादा कम है.

खाद्यान्न संकट के लिए भारत पर विदेशी दवाब

यूएसए अपने कुल खाद्यान्न उत्पादन के 40% हिस्से से एथेनाल बना रहा है और भारत पर भी दबाव बना रहा है कि भारत गन्ने के अतिरिक्त गेहूं से भी एथेनाल बनाकर पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता कम करे. पर भारत की इतनी बड़ी आबादी के भरण-पोषण के लिए खाद्यान्न का भंडार होना आवश्यक है. अपनी उर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत सौर उर्जा तथा अन्य स्रोतों से उर्जा पैदा करे और पेट्रोलियम पर निर्भरता कम करे.

ईरान ईराक संयुक्त अरब अमीरात कुवैत तथा खाड़ी के अन्य देश भारत से गेहूं लेकर उसके बदले में पेट्रोलियम पदार्थ देते रहे. जब तक यह सिस्टम चला तब तक भारत में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें नियंत्रण में रहीं. पर ईराक पर यूएसए व ब्रिटेन का कब्जा हो जाने तथा ईरान से यूएसए के दबाव में तेल की खरीद बंद हो जाने के बाद से भारत को बेल्जियम, रूस, यूएसए तथा सउदी अरब आदि से पेट्रोलियम पदार्थों का अत्यधिक आयात करना पड़ रहा है. रूस यूक्रेन युद्ध के बाद से भारत ने रूस से सस्ते तेल आयात की मात्रा तो बढ़ाई है, लेकिन इसका कोई फायदा भारत के घरेलू उपभोक्ताओं को नहीं मिल पा रहा है.

यूएसए में खेती व पशुपालन मंहगा होने के बाद से 93% डेरी फार्म बंद हो चुके हैं, पर इस क्षेत्र में बड़ी कंपनियों के घुसने के बाद से दूध का उत्पादन वहां बढ़ गया है. अब भारत पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह यूएसए, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा यूरोपीय देशों से दूध का आयात करे जबकि भारत दुनिया-भर में सबसे ज्यादा दूध का उत्पादन करने वाला देश है. इसके बावजूद भारत में सूखे (पाउडर) मिल्क का आयात यूरोपीय देशों तथा आस्ट्रेलिया से हो रहा है.

एमएसपी नहीं, एमआरपी दो !

कृषि उत्पादों को छोड़कर अन्य जो भी उपभोक्ता सामग्री है, उसके पैकेट पर अधिकतम खुदरा मूल्य लिखा होता है जबकि कृषि उपजों के लिए भारत में सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती हैं हर साल. इसलिए अन्य उत्पादों व उपभोक्ता वस्तुओं की तरह ही कृषि उत्पादों का भी अधिकतम खुदरा मूल्य निर्धारित होना चाहिए. शहरी लोगों को आटे और ब्रेड की चिंता रहती है, पर उन्हें इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि आटे व ब्रेड के लिए गेहूं पैदा करने वाले किसान को भी उसकी उपजों का सही मूल्य प्राप्त हो. दुनिया-भर के शासकों की सोच है कि अनाज के मूल्य सस्ते रखे जाएं ताकि यह मजदूरों को सस्ते में उपलब्ध हो सके, पर उन्हे यह भी सोचना चाहिए कि कृषि उपजों का मूल्य इस कदर तर्कसंगत बनाया जाए कि किसान भी जीवित रह सकें.

दुनिया-भर में आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है. यूएसए में 3% परिवारों के पास उपलब्ध धन या सम्पत्ति यूएसए के आधे धन के बराबर है. यही हालत भारत का भी है. भारत में भी मात्र 10% परिवारों के पास देश के धन का 60% हिस्सा मौजूद है. इस आर्थिक असमानता के कारण गरीबी व अमीरी के बीच खाई चौड़ी होती जा रही है. भारत जैसे देशों की आर्थिक नीतियां पक्षपातपूर्ण हैं. देश के किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दरों तथा कारपोरेट घरानों व पूंजीपतियों को मिलने वाले कर्ज की दरों में बहुत ज्यादा फर्क है.

उदाहरण के लिए टाटा की नैनो कार की फैक्ट्री जब पश्चिम बंगाल से हटाकर गुजरात के लिए शिफ्ट हुई तब टाटा को भारतीय बैंकों से 520 करोड़ का लोन 20 साल के लिए 1% से भी कम ब्याज दर पर दिलाया गया. वहीं किसानों को क्रेडिट कार्ड पर मिलने वाला लोन पहले साल तो 04% की सीमा के भीतर रहता है. पर जैसे ही एक साल की अवधि पूरी होती है उसके बाद साल दर साल उसे दिए गए लोन पर ब्याज तथा उसका प्रतिशत बढ़ने लगता है.

इस तरह ब्याज व चक्रवृद्धि ब्याज को मिलाकर कुछ ही सालों में यह लोन बढ़कर इतना अधिक हो जाता है कि किसान के पास अपनी जमीन बेचकर लोन चुकाने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं बचता. इस तरह से देखा जाए तो देश की आर्थिक नीतियां भी भेदभाव से भरी हुई हैं. इन नीतियों में बदलाव किया जाना अपरिहार्य है.

भारत में कुछ समय पूर्व एक सर्वे कराया गया और तमाम किसानों के इंटरव्यू लिए गये तो पता चला कि 40 साल पहले तक बैल के जरिए खेती करने वाला किसान आज की तुलना में ज्यादा समृद्ध और सुखी था. भारत के किसानों द्वारा बैल के स्थान पर ट्रैक्टर से खेती करने का काम उसे इस अर्थ में और अधिक कंगाल बना रहा है कि एक ओर उसे हजार रुपए घंटे किराए पर रोटावेटर से खेत कि जुताई करानी पड़ रही है, वहीं दूसरी ओर वह परिवार में पशु न होने की स्थिति में अपने फसल अवशेषों को खेतों में जलाकर अपने खेतों की उर्वरा शक्ति कम कर रहा है.

तीसरी बात यह की जो गोवंश पहले बैल के रूप में किसान के लिए उपयोगी थे, वे ही आजकल सांड बनकर उसकी फसलों को तबाह कर रहे हैं. इसलिए यह जरूरी है कि किसानों के खेतों में पैदा होने वाले अनाज की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) बढ़ाया जाए और एमएसपी को कानूनी जामा पहनाया जाए तथा किसान की डायरेक्ट इन्कम सपोर्ट की धनराशि में बढ़ोत्तरी की जाए. इसके अतिरिक्त किसान अपने गोवंश को आवारा छोड़ देने के स्थान पर उनका पहले की तरह उपयोग किए जाने का तरीका अपनाएं.

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ROHIT SHARMA

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