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एक भगोड़े शिक्षक की आत्म-प्रवंचना

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

मैं आठ वर्ष से अधिक तक चार महाविद्यालयों में पढ़ा चुका हूं. कम्बख्त तनख्वाह ने ऐसा मारा कि भाग खड़ा हुआ. फिर अध्यापक आत्मा में सुबकता रहा. देह पर कमाई की चर्बी चढ़ती रही. वक्त के बियाबान में सेवानिवृत्ति की उम्र पार हो गई. शिक्षक उसमें दफ्न हो गया. हर साल पांच सितंबर को वही शिक्षक देह के फोटो फ्रेम से निकल आता है.

धुल पुंछकर उसे फिर बामशक्कत एक वर्ष की उपेक्षा की कैद हो जाती है. गले के इर्द गिर्द पुष्पहार चाहता है. कुछ न हो सके तो सड़क से गुजरता हवलदार ‘नमस्ते सर‘ कहकर ही निकल जाये, इतनी पहचान के लिए साल दर साल गुमनामी की खंदकों में दफ्न होता रहता है.

भारत को भ्रम भी रहा है कि गुरु गोविन्द से बड़े होते हैं. गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार की कथाएं इसी देश में लिखी गई हैं. महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य ने अपने बेटे को दूध के बदले खड़िया घोलकर पिलाया था. दूध और मलाई मंत्रियों और अफसरों की तरह कौरव पांडव मिलकर छकते रहे. राजनीतिज्ञ अर्थनीति के मामले में सदैव एक हो जाते हैं जैसे कांग्रेस और भाजपा. गुरुकुल और आश्रम में विचारकों ने शिष्य पैदा किए. वे त्रेता और द्वापर के नायक बने. वे असंभव संभावनाओं को समेटे आखिरी आदमी के अस्तित्व के नियामक बन गए.

राम और कृष्ण को कहां पता था कि कलियुग में उनकी एक नहीं चलेगी. वैश्वीकरण, विश्व बैंक, डंकल, गैट, एशियन डेवलपमेन्ट बैंक, मेक इन इंडिया, यूरोपियन काॅमन मार्केट, काॅमनवेल्थ गुरुकुल और आश्रमों को नेस्तनाबूद करने में सफल हो गए. गुरुजी के घटते क्रम में शिक्षक, मानसेवी शिक्षक, व्याख्याता, प्राध्यापक, रीडर, प्रोफेसर विजिटिंग प्रोफेसर, प्रोफेसर एमेरिटस, संविदा शिक्षक, शिक्षाकर्मी वर्ग एक दो तीन, सहायक शिक्षक, कनिष्ठ शिक्षक, ट्यूटर, शिक्षा गारंटी गुरुजी जैसे नाम धरे.

शिक्षक अपनी आत्मा के आईने के सामने जाने से घबराने लगा. लाखों कुपोषित, कुसंस्कारित बच्चों की सोहबत में उसे इंसान बनाने की फैक्टरी का प्रभार दिया जाता है. कारखाने की चाबी लेकिन जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष के पास होती है. वह सत्तारूढ़ पार्टी का दोयम दर्जे का नेता होता है. उसे शिक्षा का चारागाह पेट भरने के लिए दिया जाता है. अमूमन प्रभारी मंत्री का चमचा होता है. प्रभारी मंत्री एक भूतपूर्व घटिया छात्र होने का यश अपने माथे पर लिपे ऐसे गिरोह का सरगना होता है.

इतिहास में नपुंसक विद्रोह भी सत्ता परिवर्तन का कारण होता है. सर्दियों में पड़ी पड़ी नर्म लकड़ी भी पत्थर में तब्दील हो जाती है. कोयला इसी तरह हीरा बनता है. यादें इसी तरह इतिहास बनती हैं. अंधेरी रात में तारों की रोशनी से राह ढूंढ़ी जा सकती है. इस देश का बेड़ा उन शिक्षकों ने भी गर्क किया है, जो दिन रात यूरोप और अमेरिका के ज्ञान की शेखी बघारते हैं, उसकी एजेंसी चलाते हैं. इस देश की जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के टैक्स से आई.आई.टी. संस्थान और बिजनेस मेनेजमेन्ट के कोर्स चलाए जाते हैं.

समूची कौम के दिमाग का बेहतरीन अंश विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है. ​शिक्षा व्यवस्था से तेल निकालकर बेच दिया जाता है. देश को खली खिलाई जाती है. मंत्रियों के खाते विदेशी बैंकों में सुरक्षित किए जाते हैं. मिडिल फेल राजनेता उच्च शिक्षा मंत्री नियुक्त होते हैं. वे ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और हारवर्ड में हो रहे शोध कार्यों का जायजा लेने भेजे जाते हैं. स्कूल से रस्टिकेट हुए अथवा नकल मारते पकड़े गए भूतपूर्व छात्र भावी मंत्री होकर अपने ही अध्यापकों से पुष्प मालाओं की चढ़ोतरी प्राप्त करते हैं और तबादलों के लिए घूस.

राजनीति हम्माम है. वहां आयुर्वेद का स्नातक मुख्यमंत्री होता है. एम.बी.बी.एस. डिग्रीधारी मंत्री, एम.एस. उपाधिकारी विभाग का सचिव, पद्मश्री प्राप्त कुशल डाॅक्टर मेडिकल काॅलेज का डीन. ऐसे इंतजाम में अध्यापक के जीवन और अस्तित्व को लेकर किसे चिंता है ? वह देश जो गुरु का अवमूल्यन करता है, जीने का हकदार नहीं होता.

शिक्षा राष्ट्रीय जीवन की शिरा है. उसमें शिक्षक की अस्मिता और चरित्र का खून सदैव बहता रहना चाहिए. शिक्षक सांस्कृतिक अहसास का फेफड़ा है. वहां इतिहास का खून शुद्ध होता है. शिक्षक दिवस के अवसर पर अपना सम्मान कराने के लिए उसे यदि खुद अपनी चरित्रावली तैयार करने को कहा जायेगा तो इतिहास के हिस्ट्रीशीटर राजनेताओं का मुंह काला होता है. इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर तो यही हो रहा है.

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