‘सुपर इंडिया- नेक्स्ट मिलिट्री पावर’ की कवर स्टोरी के साथ 3 अप्रैल 1989 को टाइम मैगजीन ने, में वर्ल्ड स्टेज भारत के आगमन की दुदुम्भी बजा दी थी. दरअसल 5 साल से दक्षिण एशिया में हिंदुस्तानी सेना की तूती बोल रही थी. एक के पीछे एक, सैनिक और राजनीतिक सफलताओं ने भारत को क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभार दिया था.
सबसे पहले ऑपरेशन मेघदूत. पाकिस्तान दस सालों से जो सियाचिन पर दावा ठोंक रहा था, उसकी चीन से जुड़ने वाली रोड जिसके साये तले गुजरती है, उस सियाचिन ग्लेशियर को आगे बढ़कर कब्जा किया गया. ये ऑपरेशन 1984 में हुआ था. कोई डेढ़ हजार स्क्वेयर किलोमीटर जमीन भारत में जुड़ी लेकिन कुछ हिस्से छूट गए थे, जहां पाक ने चौकी बना ली थी.
1987 में वहां ऑपरेशन राजीव हुआ. भारतीय फौज ने वहां से पाकिस्तान को पूरी तरह खदेड़ दिया. बाना सिंह ने जो बहादुरी दिखाई, उन्हें परमवीर चक्र मिला और जीती गयी चौकी का नाम रखा गया- बाना सिंह चौकी.
1986-87 में चीन ठीक वही नाटक कर रहा था, जो आज डोकलाम और गलवान में कर रहा है. तब यह ड्रामा तवांग, और सुमदरांगचु में चल रहा था. भारत ने 10 डिविजन तैनात की, एयरफोर्स लगाई और सेना को आगे बढ़ने की छूट दी. फ़ौज ने वो इलाके उठाये जहां वो 62 के बाद पेट्रोलिंग के लिए नहीं जाती थी. सारे हाई ग्राउंड कवर किये, और चीन की आवक रोक दी. इसे ‘ऑपरेशन चेकरबोर्ड’ कहते हैं.
ये अंधेरे में छुपकर घुसने वाली स्ट्राइक नहीं थी. दिनदहाड़े और खुल्लमखुल्ला बोमाबोम था. हमने चीन की आपत्ति का जमकर मजाक बनाया, उसके तमाम रोने चिल्लाने के बीच, उस क्षेत्र को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया. यानी अरुणाचल प्रदेश का नाम देकर, भारत के झंडे की कसम खाने वाली सरकार बिठा दी. चीन ने किया किया ?कुछ नहीं. नाराज फूफा बनकर अरुणाचल वालों को आज तक ‘स्टेपल वीजा’ देता है.
मगर इतने से जी न भरा. प्रधानमंत्री राजीव, शांति वार्ता के लिए गए चीन. वहां दोनों पार्टी में तय हुआ कि अब हम लोग प्यार से रहेंगे. भईया, नो लड़ा लड़ी…जो जहां खड़ा है, नक्शा मार्क करेंगे. अब वही LAC रहेगी. हिहिहि. ठीक…??
ईस्टर्न कमांड को खबर आई- अभी सांस्कृतिक आदान प्रदान का समझौता चल रहा है. दो दिन बाद सीमा समझौता होगा, तब तक जितना आगे बढ़ सकते हो, बढ़ो. तो 2 दिन तक फ़ौज सर पे पांव रखकर भागती रही. अरुणाचल में जितना जितना कब्जा कर सकती थी, कब्जाया. फिर उस सीमा को कंट्रोल लाइन बना लिया गया.
1987 में ही श्रीलंका में अशान्ति थी. शांति कौन लाएगा- यूनाइटेड नेशंस ?? अरे हुर्रर !! मुम्बई का किंग कौन- भीखू म्हात्रे और साउथ एशिया का ?? वो हम थे। ऑपरेशन पवन- भारत ने शांति सेना भेजी. अब लंका भारतीय सेना के कदमों तले था. इसका मतलब समझते हैं आप ?? 1989 में जब यह कवर स्टोरी टाइम ने छापी, तब भी श्रीलंका, भारतीय फ़ौज के अंगूठे तले था. इस स्टोरी में उस धमक की गूंज है.
1988 में मालदीव सरकार के तख्ता पलट की कोशिश हुई. हथियारबंद विद्रोहियों ने माले पर कब्जा कर लिया. प्रेजिडेंट गयूम ने गुहार लगाई- अमेरिका को ?? नहीं, इंडिया को…!
ऑपरेशन कैक्टस लॉन्च हुआ. छह घण्टे के भीतर भारतीय नौसेना माले उतर चुकी थी. माले हवाई पट्टी जीती. एयरफोर्स उतरने लगी. विद्रोही भारतीय फौज का नाम सुनते ही सुनते ही द्वीप छोड़कर भागे. नौसेना ने दो दिन पीछा किया. एक एक विद्रोही को पकड़ा- मारा. बोट डुबाई. गयूम सरकार पुनर्स्थापित हुई. भारत उसका संरक्षक था.
इस दौर में आंतरिक अशांति से भी फ़ौज निपटी. ऑपरेशन ब्लू स्टार, ऑपरेशन ब्लैक थंडर, मेरठ दंगे, नार्थ ईस्ट के विद्रोही गुट. उस विस्फोटक दौर में राजीव ने सेना और राजनीतिक पहल, दोनों का इस्तेमाल किया. इस बिंदु पर आप सहमत हों, या असहमत- मगर भारत की टूट का एक बड़ा खतरा भारतीय सेना ने टाल दिया, इस पर असहमत नहीं हो सकते.
इसी दौर में सेना को मिले नए जमाने के हथियार, साजो सामान, कम्युनिकेदशन उपकरण, नाइट विजन दूरबीनें, परमाणु पनडुब्बी, फ्रिगेट…और हां, तोपें मिली. वही होवित्जर बोफोर्स- जिसने कारगिल बचाया, मगर जिसे आप अटल द्वारा थककर जांच बन्द करने के 20 साल बाद भी ‘घोटाले’ के नाम से याद रखते है.
और आईएनएस विराट आया. आप इसे राजीव के एक रात गुजारने के लिए पिकनिक स्पॉट के रूप में याद करते हैं. घटिया फार्वर्ड से ऊपर उठकर देखेंगे तो जानेंगे कि इस दौर में भारत एशिया का अकेला देश था, जिसके पास दो-दो विमानवाहक पोत थे. टाइम के इस कवर पर, राजीव ने नहीं, राजीव के पिकनिक स्पॉट ने जगह बनाई है. आप जरा नौसैनिकों का आत्मविश्वास औऱ खुशी जूम करके देखिए.
1989 के अप्रेल में भारत दुनिया के पावर स्ट्रक्चर में दरवाजे खटखटा रहा था. और महज एक साल बाद मन्दिर के दलदल और मण्डल के जाले में उलझ गया. राजीव की लेगेसी एक शब्द ‘तुष्टिकरण’ में कैद कर, नफरत के नाले में फेंक दी गई. दो साल बाद देश का सोना गिरवी रखना पड़ा. 1977 और 1989 की फर्जी क्रांतियों ने देश का दामन कितना तार तार किया है, वो प्राचीन गौरव पर निगाह टिकाए लोग देख नहीं पाते.
आज चीन छाती पर खड़ा है. पाकिस्तान, लंका, नेपाल, मालदीव, म्यंमार को अपनी गोद में बिठाकर हमें घेर चुका है. न रूस साथ है, न क्वाड.. बस अमृत काल लागू है. टाइम मैग्जीन अब भी भारत को तवज्जो देता है. वो मुखपृष्ठ पर डिवाइडर इन चीफ की तस्वीर छापता है. आप जानते हैं कि इसका मतलब क्या है ??
मेरे विचार से इसका मतलब है कि हम विश्वगुरु बन चुके हैं। खुद को बर्बाद करने वाले, अपनी ही मकान गिराने वाले, अपनी बस्तियां उजाड़ने वाले, उस पर ताली औऱ थाली बजाने वाले…नफरत के विश्वगुरु !!
1920 का नागपुर अधिवेशन…
कांग्रेस के इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा अधिवेशन होने वाला था. ऐसा आयोजन पहले कभी नहीं हुआ. दरअसल कांग्रेस नाम के इस छोटे से एलीट क्लब को, एक नया आदमी, अलग ही जोश खरोश से चला रहा था. पिछले 4 साल से वो गांव गांव, पांव पांव चल चुका था. उत्तर से दक्षिण नाप चुका था. बिहार से गुजरात तक, कई आंदोलन किये थे. अब कुछ बड़ा होने वाला था.
नागपुर में अधिवेशन में देश भर से डेलीगेट आने वाले थे. अब हजारों लोग आएंगे, तो सबके आने जाने, ठहरने, खाने पीने की तैयारियां भी जबरजस्त करनी होती. बड़ा भारी काम था, तो डॉ. लक्षमन परंपजे को अधिवेशन का इंतजाम अली बनाया गया. डॉक्टर साहब ने नागपुर के आसपास से 1000 से अधिक वालंटियर इकट्ठे किये. नाम दिया- ‘भारत स्वयंसेवक मण्डल.’
उनका चेला, केशव उन्हें हाथ बंटा रहा था. नागपुर, तिलक का होल्ड एरिया था. दरअसल उस वक्त पाल याने बिपिन चन्द्र पाल का बंगाल, लाल याने लाला लाजपत राय का पंजाब औऱ बाल याने बाल गंगाधर तिलक का बाम्बे प्रेसिडेंसी- यही कांग्रेस के नेता थे, और यही कांग्रेस के इलाके थे. तो नागपुर वाले सारे कांग्रेसी, तिलक जी के चेले थे. परामपजे, केशव और उनके 1200 स्वयंसेवक भी जोशो खरोश से ये सारे स्वयंसेवक, अधिवेशन की व्यवस्था सम्हाल रहे थे.
गजब का अधिवेशन था. कांग्रेस नरम-गरम से आगे, अब आरपार सँघर्ष की बात कर रही थी. स्वराज हासिल करने के लिए अहिंसक संघर्ष, और असहयोग से काम लेने का संकल्प हुआ. सारे देश में फैलाव के मद्दनेजर कांग्रेस में भाषाई समितियां बनी. आज का आईटी सेल समझ लीजिए. पहली बार, अध्यक्ष को मदद करने को 15 सदस्यों की कार्यसमिति गठित हुई. पूरे देश के प्रतिनिधि इसमें फिट किये गए.
कांग्रेस नाम के क्लब में एंट्री की भारी भरकम फीस होती थी. अब महज चवन्नी में कांग्रेस मेम्बरशिप दी जाने लगी. यह बदली हुई कांग्रेस थी. गांधी राष्ट्रीय पटल पर छा गए, सुप्रीम लीडर, सुप्रीम लाइट बन गए. उनकी कांग्रेस का आकार विशाल था. और इसका हृदय भी विशाल था, जिसमे सबको जगह थी, जिस पर सबका अधिकार था. नागपुरियों का, पंजाबियों का, बंगालियों का, दक्षिण भारतीयों का. अछूत का, औरतों का…मुसलमानों का ???
छिछिछि !! ये स्वयंसेवक तो देश का प्राचीन गौरव जिंदा करने वाली कांग्रेस में आये थे. ब्राह्मणों की, मराठियों की, गोखले और तिलक की कांग्रेस में आये थे. उसके लिए दरी बिछाने को तैयार थे. जान देने और लेने को तैयार थे, मगर अछूतों को, औरतों को..?? मुसलमानो को ??
अरे वे मुस्लिम लीग में क्यों नहीं जाते भला ?? लक्ष्मण परम्पजे और केशव बलिराम हेडगेवार का मोहभंग हो चुका था. ये उनकी कांग्रेस नहीं थी. वे चाहते थे कि तिलक से सलाह लें. मगर जुलाई 1920 में इन्हें अनाथ छोड़ वे भी गोलोकवासी हो गए. बहरहाल, इस मोहभंग और निरुत्साह के बीच 1922 में हेडगेवार को प्रदेश कांग्रेस का सह सचिव औऱ प्रदेश सेवादल अध्यक्ष बना दिया गया.
सेवादल के नेता, एन. एस. हार्दिकवार उन्हें हुबली अधिवेशन के समय से जानते थे. हेडगेवार ने इस पद और इसके नेटवर्क का अच्छा उपयोग किया. इस दौरान सावरकर जेल से छूटकर आ चुके थे. मुंजे भी साथ थे. 1925 की विजयादशमी के दिन, इन्होंने एक पृथक संगठन बनाया, जिसका कोई नाम न था.
17 अप्रैल 1926 को हेडगेवार ने 26 क्लोज मितरों को बुलाया. इस बैठक में 3 नाम फाइनल हुए – जरी पताका मण्डल, बृहतोद्धारक मण्डल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. इन तीन में से एक, अंततः इस संगठन का नाम हुआ. पर अभी भी ऑब्जेक्टिव और तौर तरीके तय नहीं थे. बस ये तय था कि उन्हें कांग्रेस नहीं बनना है.
प्रेरणा के नए सोर्स खोजे गए. अब तक इटली में मुसोलिनी का सूर्योदय हो चुका था. वह दुनिया की नजर में ताकतवर, देशभक्त, राष्ट्रवादी, और बड़ा वाला तोपचन्द था, जिसे दुनिया नमस्कार कर रही थी. हमें भी वैसा ही विश्वगुरु बनना था. तो मुसोलिनी को नमस्कार करने मुंजे गए. इटली से आरएसएस की विचारधारा, वर्दी, करिया टोपी और डंडा वाली शाखा लाये. रेस्ट इज हिस्ट्री !!
क्या ही विडम्बना है कि कांग्रेसियों के लिए दरी बिछाने को बना संगठन, आज भी उन्हीं की दरी बिछा रहा है. बिस्वसरमा और ज्योतिरादित्य जैसे कांग्रेसी हों, या अजीत पवार जैसे राष्ट्रवादी कांग्रेसी…! हेडगेवार के चेले, बेचारे चना फांकते हैं, और कांग्रेसियों की दरी बिछाकर किस्मत को रोते हैं.
- मनीष सिंह
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