विदेशों में भारत देश की इज्जत पटरी से उतारने में किसका हाथ है ? हमको यहां इस दुर्गति तक किसने पहुंचाया है ? क्या थे और क्या हो गये ! गुटनिरपेक्षता, खुद एक गुट था. जी हां, विश्व राजनीति के पटल पर, जो कूटनीति में असलियत बताने के लिए नहीं, असलियत छुपाने के लिए इस्तेमाल होते हैं गुटनिरपेक्षता के नाम पर नेहरू ने 100 देश जोड़ रखे थे. इसके बूते भारत, अपने वेट से ज्यादा बड़ी लीग में खेलता था. इसे मास्टरस्ट्रोक कहते हैं.
जी हां, 200 साल तक गुलाम रहा देश, जो 1947 में स्वतंत्र होने के वक्त दुनिया की जीडीपी का शून्य दशमलव कुछ प्रतिशत था. जो आर्थिक महाशक्ति नहीं था, जो इंडस्ट्रियल पावर नहीं था, मिलिट्री पावर नहीं था, सुपर पावर नहीं था, रीजनल पावर भी नहीं था, न्यूक्लियर पावर नहीं था, वीटो पावर नहीं था अचानक से विश्व परिदृश्य पर महत्वपूर्ण क्यों हो गया था ?
असल में नेहरू महत्वपूर्ण हो गए थे. सिक्युरिटी काउन्सिल में मेम्बरशिप, यहां तक की सुरक्षा परिषद में जुड़ने का अनऑफिशियल ऑफर, आजादी के पांच साल में मिलने लगे. वियतनाम हो, कोरिया हो, स्वेज हो…, हर वैश्विक कन्फ्लिक्ट में भारत यूएन मिशन लीड कर रहा था (वेल, असल में कृष्णा मेनन लीड कर रहे थे).
नेहरू-कृष्णा मेनन की युति वर्ल्ड स्टेज पर वही धमाल मचा रही थी, जो आज आप घरेलू राजनीति में छोटे-मोटे स्केल पर मोदी-शाह की युति को मचाते देखते हैं. (सॉरी, बेहद घटिया तुलना है, केवल बात समझा रहा हूं. नेहरू-मेनन मुझे माफ़ करें.)
नहीं तो फाकाकशी के दौर से गुजर रहे तीसरी दुनिया के इस देश को, या कहें नेहरू-मेनन को, यह ताकत मिल कहां से रही थी ? ऐसा क्या था ? च्यवनप्राश या विदेशी मशरूम या काजू की रोटी था, जिसे खाकर ये फेदरवेट, हैवीवेट लीग में कदमताल कर रहे थे ? कभी खुद से ये सवाल पुछा आपने ? जवाब है – ये तहरीक ए गुटनिरपेक्ष था, जो असल में खुद एक गुट था.
बांडुंग सम्मेलन तक नेहरू के ‘गुटनिरपेक्ष’ गुट में 120 देश जुड़ गए थे. यह अमेरिका और रूस के साथ जुड़े एलीट के अगेंस्ट गरीबों का गुट था. ये 180 यूएन मेंबर के बीच 120 वोट थे, जो खेल पलट सकते थे, खेल बिगाड़ सकते थे, खेल बना सकते थे.
मार्शल टीटो पूर्वी यूरोप साधते थे, नासिर अरब दुनिया को और नेहरू एशिया सहित दोनों महाशक्तियों को भी. और नेहरू याद रखिए, बेवकूफ नहीं थे, जो ट्रम्प जैसा बैल को खिलापिलाकर इण्डिया बुला कर नमस्ते करें, पालते रहें … लेकिन समय आने पर जोत न सकें. गोवा याद है ? बाद में पहले कुवैत भी याद कीजिए. सद्दाम ने कुवैत जीत लिया, मान्यता नहीं मिली, छोड़ना पड़ा. कुवैत आज भी आजाद देश है.
भारत ने पुर्तगाल पर सैनिक हमला करके कब्ज़ा किया (जी हां, गोवा के नागरिकों को फुल फ्लेजिड पुर्तगाली नागरिकता थी. गोवा फुल फ़लेज्ड पुर्तगाल का एक प्रांत था यानी पुर्तगाल) और फिर यूएन में पुर्तगाल के द्वारा भारत के विरोध में लाये भारत द्वारा गोआ खाली करने के प्रस्ताव को गिरवा दिया. क्या अमेरिका, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन या चीन ने वीटो किया ? नहीं. क्या बाकी यूरोप की ताकतों ने पुर्तगाल का साथ दिया ? जी नहीं.
नेहरू ने सारे बैल अपने जुए में जोत लिए. गोवा भारत का हिस्सा मान लिया गया. न सरदार पटेल, न मानेकशॉ ….. गोवा नेहरू का अनडिस्पुटेड गिफ्ट है. पुडचेरि और अन्य द्वीप समूह जो फ्रान्सिसी राज्य थे, वो भी बिना लड़ाई के पहले ही खाली करवा चुके थे.
और अन्य गुटों से निरपेक्षता ? अजी छोड़िये भी. हम अमेरिका से गेहूं लेते थे, रूस से कारखाने लगवाते थे. 62 में हमने US से नेवी फ्लीट तक हासिल कर किया, जो चीन को मजा चखाने बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ चुका था. ये खबर ही थी, जिसकी वजह से चीन पतली गली से खिसक लिया, एकतरफा युद्ध विराम कर जीते हुए इलाके खाली कर दिए. हां कुछ जमीन कब्जाये रखी.
नेहरू के बाद यह गुटनिरपेक्ष गुट जिन्दा रखा गया. शास्त्री जी को जब देसी विपक्ष के सपोर्टर बनियों ने कमजोर साबित करने हेतु अनाज तेल की जमाखोरी कर कालाबाजारी शुरु की, विपक्षी सपोर्टर राज परिवारों के बैंक और साहूकारों ने अपने को दीवालिया घोषित करना शुरु कर दिया. आम आदमी का जमा धन मार कर तो पडौसी दस पाकिस्तान ने भी कमजोर देश मान आक्रमण किया, पर मुंह की खाई. ये डैम क्या थी सेना के साथ गुटनिरपेक्ष देशों का भारत को समर्थन, रूस के पाकिस्तानी झुकाव के बाद भी !
लेकिन आपको याद है क्या कि इन्दिरा गान्धी ने कैसे रूस को अपने पाले में किया ? गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 100 से 124 करके, 71 में रूस के खुले समर्थन और हथियार से हमने पाकिस्तान को तोड़ा, नए देश को यूएन में अलग देश की मान्यता दिलवाई. क्या किसी देश का वीटो हुआ उस प्रस्ताव के खिलाफ ? और इस गुटनिरपेक्ष गुट को राजीव युग तक खींचते रहे.
बीच में (1978) मुरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई ने अमरीका को हमारी अन्तराष्ट्रीय गुप्तचर सेवा ‘रिसर्च ऐण्ड अनालिसिस विंग (रॉ), के खर्राट गुप्तचरों की लिस्ट अमरीका को सौंप दी, जो भारत के लिये गुटनिरपेक्ष देश के सदस्य देशों को भारत के लिये साधते थे और भारत के साथ उन देशों को भी अमरीका और पश्चिमी देशों की कूटनीतिज्ञ चालों से बचाते थे.
जिसके बाद अमरीका ने तुर्क ,लीबिया, मिश्र, सीरिया, ईरान, इराक, अफगानिस्तान में अमरीका ने उन एजेंटों के खिलाफ इजराइली मोसाद के साथ मिल कर उन देशों की सरकार को उनके खिलाफ कर दिया, उसके बाद उन देशों के कदम धीरे-धीरे बर्बादी की तरफ बढ़ा दिये. जिन देशों को भारत से संबल मिलता था, वो दीवार ही गिरा दिया.
इन्दिरा गांधी जी के वापस आने के बाद फिर से रॉ को खड़ा किया गया लेकिन अब रा की वो ताकत नहीं रही. और फिर उसका नतीजा भी भारत ने भुगता खालिस्तानी समस्या, श्री लंका समस्या के समय और कश्मीर को पाकिस्तानी आतंकवादियों की चारागाह बने से ना रोक पाये.
और फिर नरसिंहराव के दौर में बने न्यूक्लियर बम को फोड़ने के उत्सुक अटल बिहारी ने जल्दबाजी में गुटनिरपेक्ष देशों को अपने पक्ष में किये बगैर, उस दौर में अपने राजनैतिक कैरियर को स्थिरता देने की खातिर न्युक्लियर बम फोड़ने की कीमत चुकाई, जो की अटल बिहारी वाजपेयी में और उनके नेतृत्व के बिना गुट निरपेक्ष देशों के सपोर्ट के भारत में इस उतावलेपन की कीमत झेलने का गूदा नहीं था. जिसके फलस्वरूप तुरंत ही पाकिस्तान ने भी चीन के सहयोग से न्युक्लीयर बम फोड़ दिया. वह पाकिस्तान, जो भारत से दबता था, वह भी न्युक्लियर पावर बन गया.
न्यूक्लियर टेस्ट के बाद अमरीकी प्रतिबंधों से पसीना छोड़ते अटल ने अमेरिका के दरबार में हाजिरी लगानी शुरू की, और चीन को अपने पक्ष में करने के लिये तोहफे में तिब्बत दे दिया और चीन द्वारा पाक अधिकृत काश्मीर में गलियारा बनाने पर कोई ऑब्जेक्शन नहीं किया, क्योंकि गुटनिरपेक्षता (जो की असलियत में भारत का 138 देशों का गुट था) को वाजपेयी ने अमरीकी दबाव में तिलांजली देने की मंशा बना ली थी.
तभी पाकिस्तान ने भारत की बर्फीली कारगिल चोटी पर कब्जा कर लिया और अटल बिहारी चार महीने तक अमरीका से मिन्नत करते रहे पाकिस्तानी कब्जा खाली करवाने के लिये और अमरीका भारत के प्रधानमन्त्री को डराता रहा कि पाकिस्तान न्युक्लियर युद्ध ना छेड़ दे. वह तो भारत के मिलिट्री चीफ आफ स्टाफ ने सीधे मिलिट्री हैड राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के मशवरे से अपना अभियान चलाया और कारगिल का युद्ध जीता, जिसका श्रेय अटल बिहारी ने लिया.
अटल बिहारी ने देश को तर्क दिया कि शीतयुद्ध के बाद के दौर में गुटनिरपेक्षता तो बेकार की बात है. अर्थात आपके बैनर तले जो एक सौ अड़तीस देश थे, जो स्वयं में भारत के नेतृत्व में एक बड़ा गुट था, उसे छोड़ मानो ‘कलेक्टरी छोड़ अमेरिका का पटवारी बनना’ बाजपेयी के लिए बड़ी स्मार्टनेस की बात है !
अटल बिहारी बाजपेयी ने तिब्बत, चीन और पाकिस्तान के मामले में जो ब्लंडर किये थे, शुक्र था की वे 2004 का चुनाव हार गए और मनमोहन सिंह ने फिर से एक बार अमेरिका और रूस दोनों को साधा, साथ ही साथ गुटनिरपेक्ष गुट को भी खाद पानी देने की कोशिश की. 2012 में गुटनिरपेक्ष देशों का समिट तेहरान में हुआ.
ईरान और इराक को फिर अपने करीब लाये. उन्हें अपनी शक्ति का अहसास कराया. पूर्वी, दक्षिणी, पश्चिमी अफ्रीकी देशों से व्यापार सम्बंध मजबूत किया, दक्षिपूर्वी एशियायी देशों को अपने करीब लाये, उनसे आर्थिक सम्बंध मजबूत किये, तब जाकर कुल 150 देश गुटनिरपेक्ष देशों की छतरी के नीचे आये और ग्रुप बनाया गया.
वही तेहरान, जो आपको सस्ता तेल डॉलर में नहीं रूपये में दे रहा था, जिसने चाबहार से अफगनिस्तान में घुसने का कॉरिडोर गिफ्ट किया था. वही तेहरान है, जो अब (मोदी काल में) आपको चाबहार से निकाल बाहर फेंक चुका है. श्री लंका ने अपने व्यापारिक सामरिक बन्दरगाह चीन को सौंप दिये.
अफगानिस्तान से आप फेंके जा चुके हैं. नेपाल आंख दिखा रहा है और उसमें इतनी हिम्मत आ गई कि उत्तराखंड में जमीन दबा कर बैठा है. श्रीलंका, नेपाल, बंग्ला देश, मायंमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, अरब देश, दक्षिण पूर्वी एशियाई मित्र चीन की गोद में जा बैठे हैं. और चीन खुद हमारे सैनिकों को मारकर लद्दाख में और नार्थ ईस्ट में भारतीय जमीन पर कब्जा कर अपनी कॉलोनी, रोड़, पुल बना रहा है.
‘मन की बात’ में खुद को इंडस्ट्रियल पावर, मिलिट्री पावर, सुपर पावर, एक्सपौर्ट पावर, रीजनल पावर, न्यूक्लियर पावर, स्पोर्ट्स पावर, स्पेस पावर, स्पाइडरमैन, आयरनमैन, बैटमैन बताने के बाद आपकी धेले भर की पूंछ नहीं है. पता है क्यों ? क्योंकि अब आप स्वयं गुटनिरपेक्ष शक्ति नहीं हैं और ना ही तीसरी शक्ति के नेता.
सीधे शब्दों में विश्व पटल पर लिखी इबारत देखें तो गुटनिरपेक्षता, जो खुद में एक गुट था, भारत की ताकत थी, भारत का अपना गुट था, मोदी सरकार ने खत्म कर दिया. वह दुनिया में ‘आपका’ गुट था. 150 देश जो आपके पीछे खड़े थे, इन दस सालों में, जिसमें से 149 देश अब चीन के पीछे खड़े हैं, क्यों ?
आपने स्वयं ही उनका नेता बनने की जगह, उनका नेतृत्व करने के बजाय इन दस सालों में अमरीका, इजराइल, अरब और चीन के गले मिलकर अपने को उनका फुटबॉल बना दिया. जो साऊथ अफ्रीका अपनी आजादी को गान्धी के दिये मंत्र से पाया बताता था, वह भारत के प्रधानमंत्री की बेइज्जती करने पर उतर आया.
- आलोक सिन्हा
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