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‘जाति व्यवस्था को तोड़ना असंभव नहीं है’ – प्रो. आनंद तेलतुंबडे

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प्रो. आनंद तेलतुंबडे

आनंद तेलतुंबडे एक विद्वान और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हैं, जो बी. आर. अंबेडकर पर अपने व्यापक काम के लिए जाने जाते हैं. उन्हें 2020 में एल्गार परिषद् मामले में गिरफ्तार किया गया था और 31 महीने जेल में बिताने के बाद नवंबर 2022 में जमानत पर रिहा कर दिया गया था. 72 वर्षीय आनंद ने स्निग्धेंदु भट्टाचार्य से बात की –

जेल में रहने के दौरान आपने जाति के किस नए पहलू के बारे में सीखा ?

आनंद तेलतुंबडे : जेल में जाति के मुद्दे के बारे में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं सीखा जो मैं पहले नहीं जानता था. पिछले चार दशकों से एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में, मैं जेलों में विचाराधीन कैदियों और दोषियों दोनों के रूप में मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों की बहुतायत के बारे में जानता था. तलोजा जेल अलग नहीं था.

नवीनतम एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार, जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी 39 प्रतिशत के मुकाबले यह लगभग 51 प्रतिशत है. इसके लिए पूरी तरह से वर्तमान शासन जिम्मेदार नहीं है, जिसने इन समुदायों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपना मुख्य लक्ष्य बनाया है. यह सुविधा पिछली व्यवस्था से जारी है. फ्योदोर दोस्तोवस्की की उक्ति के संदर्भ में यह हमारी सभ्यतागत विशेषता है : ‘किसी समाज में सभ्यता की डिग्री का अंदाजा उसकी जेलों में प्रवेश करके किया जा सकता है.’

इन दिनों जो सांप्रदायिक जहर उगला जा रहा है, वह कारण नहीं बल्कि इस सभ्यतागत विशेषता का प्रभाव है. चाहे कोई इसे जाति, समुदाय (धर्म) या वर्ग के चश्मे से देखे, तस्वीर लगभग वही रहती है. यह तथ्य एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा करता है : अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए, एक स्थायी जन आंदोलन बनाने के लिए इनमें से कौन सी श्रेणी व्यवहार्य श्रेणी होनी चाहिए ?

जेलें लोगों की जन्मजात प्रवृत्तियों, अच्छे और बुरे, दोनों को सामने लाती हैं. वहां मेरी एक कैदी से पहली मुलाकात इस सवाल के साथ हुई कि क्या मैं मराठा हूं. मैं अचंभित रह गया लेकिन ‘हूं’ (हां) कहकर शॉर्टकट अपनाया. मुझे अपनी उपजाति के बारे में और अधिक जांच की उम्मीद थी लेकिन सौभाग्य से, यह रुक गया. इसने केवल मेरे अवलोकन की पुष्टि की कि भारत आज पहले से कहीं अधिक जातिवादी है.

जाति के संदर्भ में एक और बात जो मैंने सुनी वह थी भेदभाव के विरुद्ध कुछ अम्बेडकरवादी युवाओं का संघर्ष. यह पहचान के दावे के रूप में प्रकट हुआ (जिसे मैं अस्वीकार करता हूं) लेकिन प्रशासन द्वारा जिस तीव्रता से इसे कुचला गया, वह ब्राह्मणवादी अहंकार को दर्शाता है. इसमें शामिल सभी लोगों को कथित तौर पर गार्डों द्वारा पीटा गया था.

इसका नेतृत्व करने वाले सुरेश गायकवाड़ को कल्याण जेल में इतनी बेरहमी से पीटा गया कि उन्हें स्ट्रेचर पर लाना पड़ा. उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और उन्हें फिर से पीटा गया और ठाणे जेल में स्थानांतरित कर दिया गया. ऐसा तब हुआ जब आईजी जेल खुद दलित थे. इसने एक बार फिर मेरी परिकल्पना को साबित कर दिया कि ‘आरक्षण’ अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित उद्देश्य को पूरा नहीं करता है.

क्या दलितों का अपना पदानुक्रम है और वे दलित राजनीति को कैसे प्रभावित करते हैं ?

आनंद तेलतुंबडे : दलित अपने आप में वर्णाश्रम व्यवस्था का हिस्सा नहीं थे लेकिन उनके अलगाव और साथ ही साथ सवर्णों पर निर्भरता ने उनके अपने बहिष्कृत समाज के लिए समान पदानुक्रमित संरचना के अनुकरण को प्रेरित किया. अत: इसकी धुंधली दर्पण छवि जातीय समाज के दलित वाडाओं में देखने को मिलती है. उनके पास ब्राह्मण, नाई, बढ़ई आदि थे. पदानुक्रम जाति का सार है और इसने भारतीय उपमहाद्वीप में बने सभी समुदायों को संक्रमित कर दिया, भले ही वे किसी भी धर्म का पालन करते हों.

यदि आप महाराष्ट्र को दलित राजनीति के घर के रूप में लेते हैं, तो आप स्पष्ट रूप से दलित जातियों का प्रभाव पाएंगे. सबसे पहले अंबेडकर के समय में गैर-महार दलितों (मांग, चांभार, ढोर) के अलगाव में और उसके बाद, उपजाति के अनुसार इसका विभाजन हुआ. महार जाति, महारों में उपजाति की चेतना इतनी प्रबल थी कि बाबासाहेब अम्बेडकर को उन्हें सह-भोज जैसे तरीकों से एकजुट करने के लिए विशेष प्रयास करने पड़े.

ऐसा कहा जाता है कि रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई), जिसकी कल्पना उन्होंने एक गैर-कांग्रेसी, गैर-कम्युनिस्ट विपक्षी पार्टी के रूप में की थी, महारों की उप-जातियों में विभाजित हो गई. दलित असमानता, जिसका सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व माला-मादिगा सिंड्रोम द्वारा किया जाता है, हर जगह एक वास्तविकता है. आज राजनीति में भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा इसका निंदनीय ढंग से उपयोग किया जाता है.

जैसा कि दलित पैंथर्स के संस्थापकों में से एक, जे. वी. पवार ने अपनी पुस्तक में पुष्टि की है, यह महार उपजाति दलित पैंथर आंदोलन के दौरान भी सामने आई थी, लेकिन इस पर अंकुश लगा दिया गया था. यह अकेले महाराष्ट्र में नहीं है; दलित एकता, जिसका सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व माला-मादिगा सिंड्रोम द्वारा किया जाता है, हर जगह एक वास्तविकता है, जिसका उपयोग आज की राजनीति में भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा निंदनीय रूप से किया जाता है.

यह मेरी परिकल्पना को भी साबित करता है कि जाति संसाधनों (धारणाएं, चेतना, मुहावरे) का उपयोग करके, जाति केवल मजबूत होगी, कभी नष्ट नहीं होगी. यदि आप इसे नष्ट करना चाहते हैं तो आपको जाति से ऊपर उठकर एक वैकल्पिक श्रेणी अपनानी होगी.

दलित राजनीति को द्रविड़ या वामपंथी राजनीति – हिंदुत्व के दो वैचारिक विरोध – के साथ मिलाने की क्या गुंजाइश है ?

आनंद तेलतुंबडे : जहरीले ध्रुवीकरण के युग में अभिसरण के बारे में बात करने में बहुत देर हो चुकी है लेकिन एक सकारात्मक बात यह है कि मुझे अभी भी ऐसे अभिसरण की उम्मीद है, द्रविड़ राजनीति के साथ नहीं बल्कि वर्ग राजनीति के साथ. मेरे लिए, जाति एक ज़हर भरी पहचान है जिसका अंतर्निहित गुण अमीबा की तरह विभाजित होना है; यह कभी भी किसी अभिसरण का आधार नहीं हो सकता. अभिसरण की एकमात्र आशा वर्ग के आधार पर है.

मेरे आलोचक मुझ पर मार्क्सवादी का लेबल लगा देंगे. हालांकि मुझे उनके लेबलों की परवाह नहीं है, मैं उनकी अज्ञानता को दूर करना चाहूंगा कि वर्ग का मतलब जरूरी नहीं कि मार्क्सवाद हो. मौजूदा ताकतों के बारे में आपकी समझ के आधार पर अपनी राजनीति बनाने के लिए आपके पास अभी भी कई स्तर की स्वतंत्रता है.

समस्या यह है कि इस देश में वर्ग राजनीति का पर्याप्त प्रयास कभी नहीं किया गया. अन्यत्र इसकी विफलता मेरे लिए वैध बिंदु नहीं है. भारत केवल लोगों की वर्ग-आधारित लामबंदी के माध्यम से ही इस सभ्यतागत (जाति) राजनीति से छुटकारा पा सकता है. मेरे अनुसार, केवल यही बात हिंदुत्व जैसे खतरनाक आंदोलनों को मजबूत वैचारिक विरोध प्रदान कर सकती है.

संवैधानिकता और सक्रियता के बीच बहस ने वर्षों से अम्बेडकरवादी आंदोलन को प्रभावित किया है. अब यह कितना प्रासंगिक है ?

आनंद तेलतुंबडे : यह अब महत्वपूर्ण नहीं है. इस पर लंबे समय से अवसरवादिता हावी रही है. यह मुख्य रूप से अम्बेडकरवाद क्या है, के मुद्दे पर रिपब्लिकन पार्टी के भीतर प्रारंभिक बहस में उभरा. एक समूह का मानना था कि संविधानवाद अंबेडकरवाद है, जो संघर्ष की वकालत करने वाले दूसरे समूह का विरोध करता है, जिसे पहले समूह ने मार्क्सवाद के रूप में बदनाम किया था. इसने आरपीआई को विभाजित कर दिया.

फिर यह दलित पैंथर्स के दौरान पुनर्जीवित हुआ, जब अंबेडकरवाद बौद्ध धर्म बन गया, जिसने संघर्ष के नायकों को मार्क्सवादी कहकर निंदा की. इसने दलित पैंथर्स को विभाजित कर दिया. बहस ख़त्म हो गई लेकिन मार्क्सवाद किसी भी पार्टी, यहां तक कि भाजपा में भी अवसरवादी रूप से शामिल होने का बिजूका बन गया. जाति एक जहर भरी पहचान है जिसका मूल गुण अमीबा की तरह टूट जाना है. अभिसरण की एकमात्र आशा वर्ग के आधार पर है.

कम्युनिस्टों को जाति के महत्व को समझने में देर हो गई. आप उन्हें किस हद तक अपना रास्ता सही करते हुए देखते हैं ?

आनंद तेलतुंबडे : जाति की अनदेखी करना कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी भूल रही है, जाति-विरोधी संघर्ष के संदर्भ में नहीं बल्कि अपने स्वयं के वर्ग संघर्ष के संदर्भ में. वर्ग की संकल्पना ही जाति की वास्तविकता को छोड़कर नहीं की जा सकती. (अतः वर्ग की एक व्यापक व्याख्या होनी चाहिए. वर्ग संघर्ष में ही जाति उत्पीड़िन भी समाहित है).

यह मेरी सुविचारित राय है कि यदि उन्होंने जातियों को शामिल करने वाले वर्गों की कल्पना की होती और अपने वर्ग संघर्ष की रणनीति बनाई होती ताकि जातियों के खिलाफ संघर्ष किया जा सके, तो वे उस दुःखद स्थिति में नहीं पहुंचे होते जो उनके पास है. आज भी इसे आज़माया जा सकता है, हालांकि यह एक सदी पहले की तुलना में लाखों गुना अधिक कठिन हो सकता है, जब दलित और कम्युनिस्ट दोनों आंदोलनों का जन्म हुआ था.

अम्बेडकर को हथियाने के हिंदू राष्ट्रवादी प्रयासों को कैसे विफल किया जा सकता है ? हिंदुत्व बौद्ध धर्म को भी शामिल करने का प्रयास करता है, इसका अम्बेडकरवादियों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

आनंद तेलतुंबडे : हिंदुत्व द्वारा अंबेडकर को अपनाना उनके चुनावी खेल के लिए एक सामरिक कदम है. अंबेडकर और हिंदुत्व एक दूसरे के विरोधी हैं. 1980 के दशक की शुरुआत में देवरस द्वारा आरएसएस के रणनीतिक सुधार तक हिंदुत्व ताकतें अंबेडकर से नफरत करती थी. वे इसमें कभी सफल नहीं हो पाते यदि तथाकथित अम्बेडकरवादियों ने उन्हें एक निष्क्रिय प्रतीक में न बदल दिया होता. 2024 के आम चुनाव इस सौहार्द के अंत का प्रतीक हो सकते हैं क्योंकि उसके बाद हिंदुत्व ताकतों के पास अंबेडकर का कोई उपयोग नहीं रह जाएगा।

पेरियार को हथियाना हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए अधिक कठिन काम हो सकता है लेकिन क्या दलित राजनीति पेरियार का उपयोग तमिलनाडु या दक्षिण से परे कर सकती है ?

आनंद तेलतुंबडे : पेरियार इतने तीखे ब्राह्मणवाद-विरोधी प्रतीक हैं कि हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा उनका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता लेकिन जहां तक हिंदुओं, हिंदू धर्म और हिंदुत्व पर उनकी राय का सवाल है, अंबेडकर भी ऐसे ही थे. जैसा कि मैंने कहा, यह उनके स्वघोषित अनुयायी ही हैं जिन्होंने उनकी हेराफेरी में मदद की. हालांकि, मुझे नहीं लगता कि यह नायक-केंद्रित दृष्टिकोण अब से प्रतिरोध आंदोलन खड़ा करने में काम आएगा. एक नई आत्मसात वर्ग राजनीति भविष्य की आवश्यकता है.

क्या जातिगत बाधाएं कभी ख़त्म हो सकती हैं ? यदि नहीं, तो सरकारों और नागरिक समाज को उनसे कैसे निपटना चाहिए ?

आनंद तेलतुंबडे : यह सोचना पूरी तरह मूर्खतापूर्ण है कि जाति को नष्ट नहीं किया जा सकता. दुनिया भर में कई जगहों पर जाति जैसी संस्थाएं मानव इतिहास का हिस्सा रही हैं और वे गायब हो गई हैं. हालांकि कई मायनों में भारत की जाति व्यवस्था ने अपने इतिहास और भूगोल के माध्यम से अपनी विशिष्टता हासिल कर ली है, और एक स्व-संगठित, स्व-विनियमन प्रणाली बन गई है, लेकिन इसे तोड़ना असंभव नहीं है.

हालांकि, इसकी प्रतिशक्ति का निर्माण अपने स्वयं के संसाधनों, यानी, धर्म, संस्कृति, आदि का उपयोग करके नहीं किया जा सकता है, बल्कि आधुनिकता के संसाधनों का उपयोग करके किया जा सकता है.

भविष्य के प्रति आपकी क्या आशा है ?

आनंद तेलतुंबडे : तर्कसंगत रूप से कहें तो, जिस तरह से चीजें चल रही हैं, उसे देखते हुए मुझे इस देश के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती. कई लोगों को इसकी जानकारी नहीं है कि फासीवादी तरीकों का इस्तेमाल करके भारत को पहले ही ब्राह्मणवाद के पूर्व-मध्ययुगीन प्रतिमान में धकेल दिया गया है. इस तथ्य को देखते हुए कि फासीवाद केवल विश्व युद्ध की स्थितियों में ही पराजित हुआ था, और वर्तमान नवउदारवादी भू-राजनीति को देखते हुए, भारत के अपने प्राचीन स्व को पुनः प्राप्त करने का कार्य कठिन प्रतीत होता है.

लेकिन मेरा अटूट विश्वास है कि किसी भी समस्या का हमेशा एक समाधान होता है. और अगर हम अपनी राजनीति लोगों की मुक्ति पर केंद्रित करते हैं, और शासक वर्गों के खेल खेलने के प्रलोभन से दूर रहते हैं, तो न केवल भारत बल्कि दुनिया को मानवता के लिए मुक्ति दिलाना संभव है. वर्तमान गंदगी हमारी ही बनाई हुई है और हमें ही इसे साफ़ करना होगा.

  • ‘आउट्लुक’ से
    मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट.

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