तुम बहुत डरे हुए हो
नहीं तो एक कवि के पास
क्या रखा है ?
सिवाय कुछ कविताओं के जिनसे वो
खुद अपना पेट नहीं भर सकता
उसे पकड़ने के लिए बार-बार आ रहे हो
उसके घरवालों को धमकी दे रहे हो
आखिर उसने ऐसा क्या कर दिया है ?
सिवाय जनता के लिए
लिखने,
बोलने और
लड़़ने के
दरअसल बात कुछ और ही है
तुम खुद इतने जर्जर,
कमजोर और
सूखी लकड़ियों का ढेर बन चुके हो
जिसे एक हवा का झोंका भी ढहा सकता है
एक माचिस की तिली भी
तुम्हारे साम्राज्य को जला सकती है
इसलिए तुम नहीं चाहते हो
विरोध की कोई भी आवाज़ आजाद रहे
तुम्हारे आंखों में आंखे डाल कर देंखे
जिनसे तुम्हें अपना झूठ पकड़े जाने का
डर हमेशा बना रहता है
यही कारण है कि तुम हमेशा
बेचैन रहते हो
हमेशा डर-डर के जीते हो
जिसे छुपाने के लिए अपने
विरोधियों को डराते रहते हो…
- विनोद शंकर
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