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जनगणना में मातृभाषाओं का प्रश्न

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इस बार की जनगणना में मातृभाषा का कॉलम नहीं था. स्वाभाविक रूप से देश के लोगों की मातृभाषा नहीं गिनी गई. भारत भौगोलिक रूप से एक बड़ा देश तो है ही साथ ही यहां विभिन्न जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा आदि के लोग रहते हैं. कहीं एक जगह बैठकर या किसी एक फार्मूले से पूरे देश को ठीक ढंग से जानना-समझना
संभव नहीं है. इसके लिए कई तरह के आंकड़ों की जरूरत पड़ती है.

जनगणना के द्वारा विभिन्न तरह के आंकड़े जमा होते हैं. इसके आधार पर पूरे देश को समझने-जानने में मदद मिलती है. भाषा भी ऐसा ही एक सवाल है. देश के लोगों की मातृभाषा क्या है, इसे जनगणना के माध्यम से जाना जा सकता है. अब तक इसी उद्देश्य से मातृभाषा को शामिल किया जाता रहा है. इस बार की जनगणना में मातृभाषा का नहीं पूछी गई. इससे देश भाषिक विविधता का अंदाज नहीं हो पाएगा.

असल में केंद्र सरकार एक अज्ञात आशंका से पीड़ित है. मोदी सरकार को यह लगता है कि मातृभाषा की गणना होने से हिंदी भाषियों की संख्या घटी हुई दिखाई देगी. असल में उत्तर भारत के सभी लोगों की मातृभाषा हिंदी मानी जाती है. यहां की एक भाषा मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में आ चुकी है. मिथिलांचल में बड़ी संख्या में लोग अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं लिखवाते हैं. इधर भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, ब्रजभाषा, मगही, अंगिका को अपनी मातृभाषा के रूप में मानने की मांग जोड़ पकड रही है.

अभी तक इन भाषाओं को बोलनेवालों को हिंदी में गिन लिया जाता रहा है. मोदी सरकार को यह डर था कि अगर इस बार जनगणना में मातृभाषा को शामिल किया गया तो भोजपुरी, राजस्थानी, मगही, अंगिका, अवधी, ब्रजभाषा जैसी कई भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं लिखवाएंगे, इसी अज्ञात आशंका से पीड़ित होकर उसने जनगणना से मातृभाषा का कॉलम ही हटा दिया.

उत्तर भारत में 49 से अधिक ऐसी भाषाएं हैं जिनकी गणना जनगणना में हिंदी में की जाती है. ऐसी भाषाओं में अवधी, भोजपुरी, मगही, अंगिका, वज्जिका, सुरजापुरी, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं शामिल हैं. इन भाषाओं को हिंदी मान लिया जाता है.

सन 1961 की जनगणना में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इन मातृभाषाओं की गणना की व्यवस्था करवाई थी. उस समय मातृभाषा तय करने वाला सरकारी निर्देश इस प्रकार था – ‘जनगणना के क्रम में लोग जैसा कहते हैं, उसी प्रकार मातृभाषा का उल्लेख, बोली सहित, पूर्णरूपेण करें. मातृभाषा वह भाषा है, जिसमें किसी की मां बाल्यावस्था में उससे बोलती है या वह भाषा है जो मुख्यतः परिवार में बोली जाती है. अगर बाल्यावस्था में ही मां की मृत्यु हो गई हो तो उस भाषा का उल्लेख करें जो इस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके घर में मुख्यतः बोली जाती हो. बच्चे या गूंगे – बघिर के सम्बन्ध में उस भाषा का उल्लेख करें जो उन सबों की मांएं बराबर बोलती हो.’

मातृभाषा तय करनेवाले इस निर्देश के फलस्वरूप उत्तर भारत की भाषाओं की संख्या में बढोत्तरी हुई. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. सन 1951 के जनगणना में भोजपुरी भाषियों की संख्या 1902 थी, वह सन 1961 की जनगणना में बढ़ कर 78 लाख हो गई. कुछ लोगों को लगा कि इससे हिंदी की संख्या घट रही है. इसका विरोध हुआ, फलतः 1971 की जनगणना में इसे बदल दिया गया. तब से इन भाषाओं को हिंदी माना जाता रहा है.

कुछ लोग धर्म के आधार पर अपनी मातृभाषा लिखवाते हैं. भोजपुरी क्षेत्र के मुसलमानों की मातृभाषा भोजपुरी ही है परंतु कुछ मुसलमान उर्दू लिखवाते हैं. हिंदी, उर्दू यहां की मातृभाषा नहीं है वह अर्जित की हुई भाषा है. कभी राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक लेख में मातृभाषाओं का प्रश्न उठाया था. यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है.

  • जितेन्द्र वर्मा

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