‘सामाजिक लोकतंत्रवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, नेता, पत्रकार और क्रांतिकारी रोज़ा लक्जमबर्ग वह नाम है जो अपने विचारों के कारण पूरी दुनिया में जानी जाती हैं. सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना उनका पसंदीदा काम था. राजनीतिक हठधर्मिता, सामाजिक असमानता, लैंगिक भेदभाव और विकलांगता के भेदभाव के खिलाफ उनका जुझारू काम आज की पीढ़ी के लिए भी विरासत है, जो अन्याय के खिलाफ बोलने के लिए लोगों को प्रेरणा देता है.’
रोज़ा जर्मनी वापस लौटना चाहती थी लेकिन नागरिकता के नियमों के चलते वह इसमें बाधा का सामना कर रही थी. 1898 में उन्होंने जर्मन नागरिक गुस्ताव लुबेक के साथ शादी की और जर्मन नागरिकता हासिल की. वह बर्लिन में बस गई. वह पत्रकार के रूप में काम कर रही थी. वहां उन्होंने जर्मनी की ‘सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी’ के साथ काम किया. जल्द ही पार्टी में विवाद हुआ और पार्टी दो हिस्सों में बंट गई.
साल 1898 में जर्मन संशोधनवादी एडुआर्ड बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मार्क्सवादी थ्योरी पुरानी हो गई है. रोज़ा उनके विचारों से असहमत थी. वह मार्क्सवादी और क्रांति की आवश्यकता के पक्ष में बहस करते हुए विपक्ष के तर्क को संसद का एक पूंजीवादी दिखावा बताती थी. वह एक कुशल वक्ता के तौर पर भी सभाओं को संबोधित किया करती थी.
1905 की रूसी क्रांति लक्जमबर्ग के जीवन का मुख्य केंद्र बनी. क्रांति का विस्तार रूस में हो गया था. वह वारसा गई और संघर्ष में शामिल हो गईं, जहां उन्हें कैद कर लिया गया. इन अनुभवों से उनकी ‘रेवूल्शनरी मास एक्शन थ्योरी’ उभरी जिसे उन्होंने 1906 में ‘द मास स्ट्राइक, द पॉलटिकल पार्टी एंड द ट्रेड यूनियन’ में जगह दी.
रोज़ा लक्ज़मबर्ग हड़ताल की पैरोकार थी. वह इसे मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा हथियार बताती थी. वह सामूहिक हड़ताल को क्रांति आगे बढ़ाने का मार्ग बताया करती थी. वह लेनिन के विपरीत सख्त केंद्रीय पार्टी संरचना में विश्वास नहीं रखती थी. वह मानती थी कि संगठन वास्तव में संघर्ष से स्वाभाविक रूप से उभरता है. इस वजह से रूढ़िवादी कम्युनिस्ट पार्टियां उन्हें बार-बार सजा देती रहती थी.
वारसा जेल से रिहा होने के बाद 1907 से 1914 तक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी स्कूल, बर्लिन में पढ़ाया. वहां उन्होंने 1913 में ‘द एक्युमूलेशन ऑफ कैपिटल’ लिखा. इसी समय उन्होंने आंदोलन करना भी शुरू कर दिया था. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने जर्मन सरकार का साथ दिया. वह तुरंत ही इसके विरोध में चली गई थी. वह युद्ध के पूरी तरह खिलाफ थी.
उन्होंने कार्ल लीब्नेख्त और अन्य समान विचारधारा वाले लोगों के साथ स्पार्टाकस लीग का गठन किया, जो क्रांति के माध्यम से युद्ध को खत्म करने और सर्वहारा सरकार स्थापित करने के समर्थन में था. इस संगठन का आधार सैद्धांतिक रूप से रोजा के द्वारा लिखे 1916 का ‘द क्राइसिस इन जर्मन सोशल डेमोक्रेसी’ पत्र पर था. राजनीतिक गतिविधियों के कारण उन्हें बार-बार जेल में डाला जा रहा था.
1918 में जर्मन क्रांति के दौरान लक्जमबर्ग और लीब्नेख्त ने लेफ्ट के द्वारा लगाए नए आदेशों के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया. उनके प्रयासों ने जनता पर काफी प्रभाव डाला और बर्लिन में कई सशस्त्र विरोध शुरू हो गए. इसका परिणाम यह निकला कि लक्जमबर्ग को ‘खूनी रोज़ा’ कहकर अपमानित किया गया. लक्जमबर्ग और लीब्रेख्त ने मजदूरों और सैनिकों के लिए राजनीतिक सत्ता की मांग की.
रोज़ा लक्ज़मबर्ग हड़ताल की पैरोकार थी. वह इसे मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा हथियार बताती थी. वह सामूहिक हड़ताल को क्रांति आगे बढ़ाने का मार्ग बताया करती थीं.
दिसंबर 1918 में उन्होंने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की. लक्जमबर्ग इस नये संगठन में बोल्शेविक का प्रभाव कम रखना चाहती थी. लेनिन के लोकतांत्रिक केंद्रीयवाद के विपरीत लक्जमबर्ग हमेशा लोकतंत्र में विश्वास रखती थी. स्पार्टाकस विद्रोह के नाम से जाने वाले कम्युनिस्ट विद्रोह के भड़कने में उनकी भूमिका के कारण उन्हें और लीब्नेख्त को 15 जनवरी 1919 में गिरफ्तार कर लिया. इस कैद के दौरान ही उनकी हत्या भी कर दी गई.
रोज़ा लक्जमबर्ग अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा थी. उन्होंने अपना पूरा जीवन क्रांति और न्याय में लगा दिया. सामाजिक न्याय की लड़ाई में रोज़ा लक्ज़मबर्ग के कदम को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है. अपने राजनीतिक विचारों के कारण रोज़ा लक्जमबर्ग ने हमेशा विरोध का सामना किया, लेकिन वह लोकतंत्र और समानता के लिए अंतिम समय तक संघर्ष करती रही.
- पूजा राठी
‘फेमिनिज्म इन इंडिया’ ब्लॉग का एक लेखांश
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