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‘वो गुज़रा ज़माना’: नमक के खंभों पर टिका समय…!

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‘वो गुज़रा ज़माना’: नमक के खंभों पर टिका समय…!
‘वो गुज़रा ज़माना’: नमक के खंभों पर टिका समय…!
मनीष आजाद

प्रथम विश्व युद्ध के समय आस्ट्रिया और रूस आमने सामने थे. ‘राष्ट्रवाद’ चरम पर था. आस्ट्रिया की राजधानी वियेना में सड़क पर अगर कोई रूसी बोलता पाया जाता तो उसे ‘लिंच’ किया जा सकता था.

लेकिन युद्ध ख़त्म होने के बाद की भयानक तबाही और सामानों की भारी किल्लत के बीच वियेना के लोग सड़कों पर रूसी सैनिकों की वर्दी पहने भी नज़र आने लगे. यह वर्दी उन्होंने मृत रूसी सैनिकों के बदन से उतारी थी क्योंकि उनके पास पहनने को कोई कपड़ा नहीं बचा था. सब युद्ध की भेंट चढ़ चुका था.

युद्ध के ख़िलाफ़ इससे बढ़िया शब्द-चित्र अब तक मुझे किसी भी युद्ध-विरोधी साहित्य में नहीं मिला. इस शब्द-चित्र को खींचा है, आस्ट्रिया के मशहूर लेखक ‘स्टीफन स्वाइग’ (Stefan Zweig) ने अपनी आत्मकथा ‘वो गुज़रा ज़माना’ (The World of Yesterday) में.

अपनी इस आत्मकथा में लेखक प्रथम विश्व-युद्ध से करीब 25 साल पहले से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत तक ग़म-ए-जानां के बहाने ग़म-ए-दौरां की कहानी इस तरह सुनाता है कि हमें लगता है यह हमारी कहानी ही तो है. कहीं हम, कहीं हमारा दोस्त और कहीं हमारा समाज.

यहीं पर ‘एदुआर्दो गैलियानो’ का वह मशहूर कथन याद आता है कि सच्ची कला हर बार उस वक़्त नए तरह से ज़िन्दा हो जाती है, जब उसे कोई निहारता है.

लगभग 400 पेज की इस आत्मकथा में पन्ने दर पन्ने, पंक्ति दर पंक्ति गुज़रते हुए स्टीफन स्वाइग की आन्तरिक और बाहरी दुनिया मेरे लिए, सिर्फ मेरे लिए एक बार फिर से जीवित हो गयी.

एक बार स्टीफन स्वाइग अपने चित्रकार मित्र स्पेन के सल्वाडोर डाली (Salvador Dali) को अपने जिगरी दोस्त ‘सिगमंड फ्रायड’ से मिलाने ले गये. उस वक़्त फ्रायड जबड़े के कैंसर से जूझ रहे थे. बातचीत के दौरान सल्वाडोर डाली फ्रायड का रेखाचित्र भी बनाते रहे. बाद में जब यह चित्र उन्होंने स्टीफन स्वाइग को दिखाया तो स्वाइग यह देखकर दंग रह गये कि इस चित्र में मौत की आहट भी नज़र आ रही है. और कुछ समय बाद ही फ्रायड की मृत्यु हो गयी.

‘वो गुज़रा ज़माना’ पढ़ते हुए भी मुझे बार-बार अहसास होता रहा कि इसमें हमारे दौर के लिए एक सांकेतिक चेतावनी भी है. ‘सभ्यता की मौत’ का साया बहुत तेजी से हमे अपने आगोश में लेता जा रहा है. फ्रायड के लिए जिस आने वाले कल को सल्वाडोर डाली ने भांप लिया था, उसे हम मानवता के स्तर पर कहां भांप पा रहे हैं.

स्टीफन स्वाइग साफ़ साफ़ लिखते हैं- ‘…अपने दौर को तय करने वाले बड़े-बड़े आन्दोलन की शुरूआती हलचलें समकालीनों को सुनाई नहीं पड़ती. मुझे ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता कि हिटलर का नाम मैंने पहली बार कब सुना था.’ क्या आपको याद है कि आपने आज के हिटलरों का नाम पहली बार कब सुना था ?

प्रथम विश्व युद्ध के पहले पूरा यूरोप और खास तौर पर आस्ट्रिया शान्ति-खुशहाली-सुरक्षा में गोते लगा रहा था. साहित्य-संस्कृति की तूती बोल रही थी. संस्कृति-कर्मियों को गुमान था कि उनकी कालजयी रचनाओं की उपस्थिति में उनकी पवित्र स्वतंत्रता को कौन कुचल सकता है, उनकी पवित्र धुनों के रहते कौन शान्ति भंग कर सकता है ?

लेकिन यह यकीं काम नहीं आया और महज चंद वर्षों में ही सब कुछ धराशायी हो गया. स्वाइग लिखते हैं- ‘अमन-चैन और रचनात्मक तर्क की वह दुनिया जिसमें हम पले-बढ़े और महफूज थे, एक ही पल में माटी के मटके सी बिखर गयी.’ क्या यही बात नेहरु युग में पली-बढ़ी मध्यवर्गीय पीढ़ी के बारे में नहीं कही जा सकती ?

प्रथम विश्व युद्ध के पहले के समय को जिस तरह से बाद का विशेषकर हिटलर का समय अपने बूटों तले कुचलता है, उसका बहुत ही ग्राफिक चित्रण इस किताब में है. और यह हमारे लिए एक जीवित चेतावनी भी है.

आस्ट्रिया पर हिटलर के कब्ज़े के बाद एक स्थानीय कानून आया कि सार्वजानिक पार्कों में यहूदियों के बैठने की मनाही है. लेखक तो आस्ट्रिया से बाहर निकल चुका है, लेकिन उसकी 83 वर्षीय मां आस्ट्रिया में ही हैं. वह रोज पार्क में टहलने जाती हैं और हर 5 मिनट बाद पार्क में लगी बेंच पर सुस्ताने के लिए बैठती हैं.

लेकिन अब इस कानून के आने के बाद वह बैठ नहीं सकती और इस कारण उनका टहलना बंद हो गया. इसके कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गयी. फासीवाद के परपीड़क चरित्र की इतनी बारीक़ तफसील इतिहास की किताबें कभी नहीं दे सकती.

हिटलर के समर्थक युवा कभी भी यहूदियों के पूजा गृह ‘सिनेगाग’ में घुसकर उन्हें ‘हेल हिटलर’ करने को बाध्य करते थे. अजीब संयोग है, यह घटना पढ़ते हुए ही यह खबर आयी कि कश्मीर में सेना के कुछ जवान मस्जिद में घुसकर मुस्लिमों से ‘जै श्री राम’ कहने को बाध्य कर रहे हैं.

फिर जब मैं यह घटना पढ़ रहा था कि हिटलर के समर्थक, यहूदी नौजवानों को पकड़ कर अपने शौचालय साफ़ करवा रहे थे, तब यह घटना सामने आयी कि मध्य प्रदेश में एक भाजपा का नेता एक आदिवासी नौजवान पर पेशाब कर रहा है. मुझे एक सुर्रियलिस्ट फीलिंग हुई, मानो मैं किताब न पढ़कर कोई जादू जगा रहा हूं. यानी किताब की बातें अलग रंग-रूप में आज जमीन पर उतर रही हैं, क्रूर यथार्थ बनकर.

एदुआर्दो गैलियानो की वह बात फिर याद आयी कि हर बार रचना अपने पाठक के लिए फिर से जिन्दा हो जाती है. जाहिर है यहां एक चेतावनी के रूप में.

इस आत्मकथा की एक खास बात यह है कि लेखक अपने बारे में बहुत कम बोलता है. उसकी निजी जिंदगी के बारे में बस किसी सन्दर्भ में ही पता चलता है. लेकिन लेखक ने अपने समकालीनों के बारे में दिल खोल कर लिखा है. रिल्के, रोमा रोलां, गोर्की, वेरहारन, फ्रायड, जेम्स जायस, आगस्त रोंदा (Auguste Rodin) के बारे में लेखक ऐसे लिखता है, मानो हमारे सामने बैठ कर उनसे गुफ्तुगू कर रहा हो.

रिल्के के साथ लेखक की काफी अच्छी दोस्ती थी. ऑस्ट्रिया के कवि कथाकार रिल्के के बारे में एक जगह लेखक लिखता है- ‘उसके साथ हर लम्बी बातचीत के कई घंटों या दिनों बाद तक आप कोई टुचपना करने लायक नहीं बचते थे.’

इस किताब में होशोफर, स्ट्रास जैसे उन बुद्धिजीवियों के बारे में भी है जो बाद में ‘हिटलर्स प्रोफेसर्स’ बन गये. इस प्रसंग को लेखक ने बेहद आन्तरिक दुःख से याद किया है. उन प्रसंगों के आईने में हम आज के ‘हिटलर्स प्रोफेसर्स’ को साफ़-साफ़ चिन्हित कर सकते हैं.

यहां एक बात रेखांकित करनी जरूरी है कि स्टीफन स्वाइग अपने दौर पर जो टिप्पणी करते हैं वह पूरी तरह से पवित्र नैतिक जमीन पर खड़े होकर करते हैं. इसलिए प्रथम विश्व युद्ध के पहले की शान्ति-खुशहाली के बाद की उठापटक और फिर हिटलर के फासीवाद को उसकी जड़ यानी साम्राज्यवाद में नहीं देख पाते.

हालांकि किताब में इसके कुछ संकेत अवश्य मिलते हैं, लेकिन यह संकेत लेखक की साम्राज्यवाद की समझ से न निकल कर उसकी लेखकीय ईमानदारी से निकलते हैं. लेखक सोवियत क्रांति के प्रति सम्मान रखने के बावजूद इसमें मानवता के भविष्य को नहीं देख पता.

और यही कारण है कि आस्ट्रिया से निर्वासित यह बेहद नैतिक, शांतिप्रिय यहूदी लेखक भटकते हुए ब्राजील पहुंचता है और अपनी यह आत्मकथा (वो गुज़रा ज़माना) लिखने के तुरंत बाद अपनी पत्नी के साथ 22 फरवरी 1942 को आत्महत्या कर लेता है.

काश अगर स्टीफन स्वाइग साल भर और रुक जाते तो अपनी आंखों के सामने लाल फ़ौज द्वारा हिटलर को कुचले जाते देखते और शायद तब मानवता में स्टीफन स्वाइग का विश्वास फिर से जागता और हमें कुछ और शानदार रचनाएं पढ़ने को मिलती.

अपने ‘सुसाइड नोट’ में भी उन्हें अपने पाठकों/दोस्तों की ही चिंता थी. सुसाइड नोट की अंतिम पंक्ति है- ‘अपने तमाम दोस्तों को मेरा सलाम ! इस लम्बी रात के बाद भगवान उन्हें रोशनी की सुबह अता फरमाए ! मुझ बेताब को जल्दी है, सो चलता हूं.’

ओमा शर्मा जी का अनुवाद तो बेहतरीन है ही, इसके अलावा हर पन्ने के नीचे उनकी टिप्पणियों से स्टीफन स्वाइग के दौर को समझने में काफी मदद मिलती है. 295 रूपये की इस पुस्तक को ‘आधार प्रकाशन’ ने छापा है.

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