जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छांव में बैठकर
घड़ी भर सुस्ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्कारें गूंजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर.
मैं उठकर भागना चाहता हूं
शंबूक का सिर मेरा रास्ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है–
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूं
बार-बार राम ने मेरी हत्या की है.
मेरे शब्द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं–
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्वी
यहां तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्य लोग;
जिनकी सिसकियां घुटकर रह जाती है
अंधेरे की काली पर्तों में
यहां गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्य है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्त से सनी उंगलियों को महिमा-मंडित.
शंबूक ! तुम्हारा रक्त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्वालामुखी बनकर !
- ओम प्रकाश वाल्मीकि
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]