यहां पर
कुछ समय
बिताऊंगा तुम्हारे साथ
काल के इस
शिला खंड पर
फ़ॉसिल बन कर उभरने तक
पिघलता रहूंगा
बर्फ़ के फूलों की तरह
वितृष्णा का स्वेद
अनिर्वाण का पाथेय नहीं है
समझाऊंगा तुम्हें
और
छाया सा
बदन से टूट कर
अंधेरे में
गुम हो जाओगी तुम
वृत्ति विलास का अंत
न सुखद होता है और न दुखद
छंटती हुई
प्रेक्षा गृह की भीड़ के पांव में
घर लौटने की जल्दी है
वही घर
जहां मैं रोज़ लौटता हूं
साथ लिए हुए
बाज़ार
2
सालों तक
रिश्तों के क़ब्र पर
मैंने चढ़ाए हैं फूल
और हरेक बार
देखा है आसमान की तरफ़
मेरी आंखों में
धनक की तलाश थी
और वे मुझे
चातक समझते रहे
मरे हुए रिश्तों की क़ब्रों पर
फूल चढ़ाने का फ़ैसला
अब वापिस लेता हूं मैं
और निकल पड़ा हूं
भरी बारिश में
सूखे हुए मन को लिए
कहीं दूर
- सुब्रतो चटर्जी
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