एक पेड़ है.
पेड़ क्या, पेड़ के नाम पर बोन्साई है
मगर उसी की लहर आई है.
सब उसी के नीचे जा रहे हैं
और जाते ही कुछ ना कुछ पा रहे हैं…
कोई साहित्य अकादमी पा रहा है,
कोई ज्ञानपीठ पा रहा है,
कोई फ़िल्मफेयर,
कोई गांधी शांति,
कोई पदम्-विभूषण,
कोई पदम्-भूषण,
कोई पदम्-श्री,
कोई पद,
कोई पैसा,
कोई प्रतिष्ठा…
उस पेड़ की छांव में जो भी जा रहा है
उसका झंडा बुलंद होता जा रहा है.
सब लालायित हैं,
पलायित हैं। सब उसी पेड़ के नीचे जा रहे हैं-
फल उठा रहे हैं, भकोस रहे हैं, छितरा रहे हैं
यह पुरस्कारों के झरने (गिरने) का दौर है
मैं चुप.
अपने ठूंठ के नीचे बैठा
देखता हूं भीड़ दर भीड़ को जाते हुए,
झूमते-गाते,
अपनी बिक्री का प्रमाण-पत्र दिखाते हुए
देखता हूं लोगों को जड़ों से छूटते हुए,
देखता हूं रीढ़ की हड्डियां टूटते हुए
देखता हूं लोगों को अद्धा, पौने होते हुए
अपनी परछाई से भी अधिक बौने होते हुए
मैं सब देखता हूं.
वे भी मुझे देखते हैं और मेरी मूर्खता पर हंसते हैं,
मैं उन्हें देखता हूं और बस मुस्कुराता हूं.
वैसे भी मुझमें और उनमें कोई ज्यादा अंतर नहीं है…
वे खुश हैं कि उनकी रीढ़ की हड्डी ही टूटी और
सलामत है समूचा शरीर.
मैं ख़ुश हूं कि भले ही
टूट गया हो पूरा शरीर
मगर बची है अभी रीढ़ की हड्डी.
बस इतना ही अंतर है उनमें और मुझमें
मगर ना जाने क्यों उनकी हंसी,
हंसी कम और आवाज ज्यादा है मगर
मेरे मुस्कुराने भर से और
बौना होता जाता है उनका पेड़-
घड़े पड़ने लगते हैं,
पुरस्कार के फल सड़ने लगते हैं,
भीड़ में खलबली मच जाती है और
वह हिंसक हो जाती है.
सिर्फ मेरे मुस्कुराने भर से…
- अजय दुर्ज्ञेय
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